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जातिवार जनगणना का ऐतिहासिक फैसला: युद्धोन्माद के बीच मोदी सरकार का चौंकाने वाला कदम

“पहलगाम आतंकी हमले के बाद देश में छाए युद्धोन्मादी माहौल के बीच मोदी सरकार ने 30 अप्रैल, 2025 को जातिवार जनगणना कराने का ऐलान कर सबको हैरान कर दिया। यह फैसला न केवल राजनीतिक रूप से चौंकाने वाला है, बल्कि सामाजिक न्याय की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम भी साबित हो सकता है। आइए, इस फैसले की गहराई, इसके पीछे की कहानी और इसके संभावित प्रभावों को समझते हैं।”

एक अप्रत्याशित फैसला
पहलगाम में हुए आतंकी हमले ने देश को हिलाकर रख दिया था। भारत-पाकिस्तान के बीच बढ़ता तनाव, टीवी चैनलों पर युद्धोन्मादी बहसें और सत्ताधारी समर्थकों का आक्रामक रुख—ऐसे माहौल में कोई उम्मीद नहीं थी कि सरकार कोई सामाजिक मुद्दे पर इतना बड़ा फैसला लेगी। लेकिन केंद्रीय कैबिनेट की बैठक में जातिवार जनगणना को मंजूरी देकर मोदी सरकार ने सबको चौंका दिया। यह फैसला न केवल देश की राजनीति को नई दिशा दे सकता है, बल्कि सामाजिक समानता और न्याय की दिशा में भी मील का पत्थर बन सकता है।

क्यों है यह फैसला महत्वपूर्ण?
जातिवार जनगणना की मांग भारत में लंबे समय से उठ रही थी। सामाजिक न्याय के लिए लड़ने वाले संगठनों, पार्टियों और नेताओं ने इस मुद्दे को बार-बार उठाया। लेकिन जब कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी ने इसे अपने राजनीतिक अभियान का केंद्र बनाया, तो यह मांग राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय हो गई। राहुल की अगुवाई में कांग्रेस ने इस मुद्दे को इतनी शिद्दत से उठाया कि सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) पर दबाव बढ़ने लगा।

हालांकि, मोदी सरकार और भाजपा शुरू में इस मांग के खिलाफ थीं। 2021 में कोविड-19 के कारण राष्ट्रीय जनगणना टल गई, लेकिन उसके बाद भी सरकार ने इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया। आजादी के बाद पहली बार जनगणना में इतना विलंब हुआ। इस बीच, राहुल गांधी ने इस मुद्दे को इतना जोरदार तरीके से उठाया कि यह विपक्ष का सबसे मजबूत हथियार बन गया। उन्होंने न केवल भाजपा के ‘पिछड़े प्रधानमंत्री’ के नारे को चुनौती दी, बल्कि सामाजिक न्याय के लिए एक नया विमर्श खड़ा कर दिया।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
भारत में जातिवार जनगणना का विचार नया नहीं है। 1931 में ब्रिटिश शासन के दौरान आखिरी बार जातियों की गिनती हुई थी। आजादी के बाद जवाहरलाल नेहरू के समय काका कालेलकर आयोग और बाद में मंडल आयोग ने इसकी जरूरत पर जोर दिया। लेकिन न कांग्रेस और न ही भाजपा की किसी सरकार ने इसे गंभीरता से लिया। 2011 में यूपीए सरकार ने जातिवार जनगणना का वादा किया, लेकिन वरिष्ठ मंत्रियों प्रणब मुखर्जी और पी. चिदंबरम की अनिच्छा के चलते यह योजना ठंडे बस्ते में चली गई।

2012-13 में यूपीए सरकार ने एक सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण कराया, लेकिन उसकी रिपोर्ट इतनी अविश्वसनीय थी कि उसे कभी सार्वजनिक ही नहीं किया गया। दूसरी ओर, मोदी सरकार भी हाल तक जातिवार जनगणना के खिलाफ थी। प्रधानमंत्री मोदी ने तो यह तक कहा था कि वह केवल चार जातियों को मानते हैं—गरीब, युवा, महिला और किसान। आरएसएस भी इसे समाज में जातिवाद बढ़ाने वाला कदम बताता रहा।

अचानक बदला माहौल
तो फिर ऐसा क्या हुआ कि मोदी सरकार ने यह फैसला लिया? दरअसल, पिछले कुछ वर्षों में समाज में जातिवार जनगणना के पक्ष में व्यापक सहमति बनी। बिहार में नीतीश कुमार की सरकार ने प्रांतीय स्तर पर जातिवार सर्वेक्षण कराया, जिसने इस मुद्दे को और हवा दी। दूसरी ओर, राहुल गांधी के लगातार दबाव और विपक्ष के एकजुट समर्थन ने भाजपा को बैकफुट पर ला दिया।

आरएसएस ने भी इस मुद्दे पर अपने रुख में बदलाव के संकेत दिए। सितंबर 2024 में केरल के पालक्कड में हुए एक सम्मेलन में आरएसएस ने पहली बार जातिवार जनगणना पर सकारात्मक रुख दिखाया। माना जा रहा है कि संघ प्रमुख मोहन भागवत ने हाल ही में भाजपा नेतृत्व के साथ इस मुद्दे पर गहन चर्चा की। पहलगाम हमले के बाद युद्धोन्मादी माहौल को कम करने और राजनीतिक रणनीति को नई दिशा देने के लिए यह फैसला लिया गया।

क्या होगा असर?
यह फैसला कई मायनों में खेल बदलने वाला हो सकता है। सबसे पहले, बिहार जैसे राज्यों में, जहां जातिवार जनगणना की मांग लंबे समय से जोर पकड़ रही है, भाजपा इसे अपने पक्ष में भुनाने की कोशिश करेगी। बिहार विधानसभा चुनाव में यह मुद्दा बड़ा हथियार बन सकता है। दूसरी ओर, राहुल गांधी और कांग्रेस के लिए यह एक तरह से जीत है, क्योंकि उनकी मेहनत ने इस मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया।

लेकिन सवाल यह है कि क्या यह फैसला केवल राजनीतिक रणनीति है, या वाकई सामाजिक न्याय की दिशा में ठोस कदम उठाया जाएगा? राहुल गांधी ने सही कहा कि जनगणना समयबद्ध और पारदर्शी होनी चाहिए। इसके आंकड़ों का इस्तेमाल वंचित समुदायों के कल्याण के लिए होना चाहिए, न कि केवल कागजी आंकड़ों की किताब बनकर रह जाना चाहिए।

चुनौतियां और उम्मीदें
जातिवार जनगणना का रास्ता आसान नहीं है। हजारों उपजातियों की गिनती और आंकड़ों की जटिलता इसे चुनौतीपूर्ण बना सकती है। बिहार के सर्वेक्षण की तरह इसके नतीजे अगर लागू नहीं हुए, तो यह केवल दिखावा बनकर रह जाएगा। साथ ही, भाजपा और आरएसएस के पुराने रुख को देखते हुए यह सवाल उठता है कि क्या सरकार इन आंकड़ों का इस्तेमाल सामाजिक न्याय के लिए करेगी?

फिर भी, यह फैसला एक नई उम्मीद जगाता है। अगर इसे ईमानदारी और स्पष्टता के साथ लागू किया गया, तो यह न केवल सामाजिक समानता को बढ़ावा देगा, बल्कि संविधान के मूल्यों—समता और न्याय—को और मजबूत करेगा। यह भारत के करोड़ों वंचित लोगों की आवाज को सुनने का मौका हो सकता है।

मोदी सरकार का जातिवार जनगणना का फैसला एक ऐतिहासिक कदम है, जो युद्धोन्मादी माहौल के बीच उम्मीद की किरण बनकर आया है। यह फैसला न केवल राजनीतिक परिदृश्य को बदल सकता है, बल्कि सामाजिक न्याय की दिशा में भी नई राह खोल सकता है। लेकिन इसका असली मकसद तभी पूरा होगा, जब इसे पूरी पारदर्शिता और प्रतिबद्धता के साथ लागू किया जाए। देश की जनता अब इस फैसले के अमल पर नजर रखेगी, क्योंकि यह केवल आंकड़ों की गिनती नहीं, बल्कि करोड़ों लोगों के हक और सम्मान की लड़ाई है।

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