गुरूवार, नवम्बर 21, 2024
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‘हर घर तिरंगा’ अभियान: राष्ट्रीय ध्वज के प्रति आरएसएस और बीजेपी के बदलते रुख की पड़ताल

तिरंगा: क्यों आरएसएस और भगवा समर्थक भी इसके सम्मान में झुक गए?

2024 के स्वतंत्रता दिवस पर, एनडीए सरकार ने ‘हर घर तिरंगा’ अभियान का आह्वान किया, जो इस पहल का तीसरा संस्करण था। इस अभियान की शुरुआत 2022 में भाजपा सरकार ने की थी। यह कदम हैरान करने वाला था क्योंकि भाजपा के वैचारिक मार्गदर्शक, आरएसएस, लंबे समय तक तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाने के खिलाफ रहे हैं।

आरएसएस और तिरंगे के विरोध का इतिहास
2001 के गणतंत्र दिवस पर, नागपुर पुलिस ने एक मामला दर्ज किया जिसमें तीन कार्यकर्ताओं ने आरएसएस के मुख्यालय में घुसकर तिरंगा फहराया। इस घटना के बाद आरोपियों को गिरफ्तार कर जेल भेजा गया, लेकिन बाद में अदालत ने उन्हें बरी कर दिया। इस तरह 2001 में आरएसएस की तिरंगा न फहराने की परंपरा समाप्त हो गई।

तिरंगा, जिसके केंद्र में कभी चरखा होता था, स्वतंत्रता संग्राम के दौरान देशभक्तों के लिए प्रेरणास्रोत था। 1929 के कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में, जवाहरलाल नेहरू ने लोगों से 26 जनवरी को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाने और अपने घरों पर तिरंगा फहराने का आग्रह किया। इसके विपरीत, आरएसएस के संस्थापक के.बी. हेडगेवार ने भगवा झंडा फहराने का निर्देश दिया। आरएसएस का मानना था कि भगवा झंडा प्राचीन काल से ही हिंदू राष्ट्र का प्रतीक रहा है, इसलिए किसी नए ध्वज की आवश्यकता नहीं है।

आरएसएस के दृष्टिकोण में बदलाव
आरएसएस के दूसरे प्रमुख, एम.एस. गोलवलकर ने कहा कि भगवा ध्वज भारतीय संस्कृति का पूर्ण प्रतिनिधित्व करता है और समय के साथ पूरा राष्ट्र इसके सामने झुकेगा। आरएसएस के मुखपत्र ‘द ऑर्गेनाइज़र’ ने भी लगातार तिरंगे का विरोध और भगवा ध्वज की वकालत की। संविधान सभा में झंडे के मुद्दे पर विचार करते हुए, डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद, सी. राजगोपालाचारी, के.एम. मुंशी, और डॉ. अंबेडकर की ध्वज समिति ने कांग्रेस के झंडे को ही राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकार करने का निर्णय लिया, केवल चरखे की जगह अशोक चक्र जोड़कर।

पंडित नेहरू ने संविधान सभा में अपने संबोधन में कहा कि राष्ट्रीय ध्वज हमारी गौरवशाली परंपरा और भविष्य की आशाओं का प्रतीक है। उन्होंने तिरंगे को अशोक के प्रतीक से जोड़ा, जो भारत की वैश्विक पहचान और शांति का संदेश देता है।

वर्तमान परिदृश्य
आज, ‘हर घर तिरंगा’ अभियान को भाजपा की एक राजनीतिक चाल के रूप में देखा जा सकता है। यह उनके मूल हिंदू राष्ट्रवादी एजेंडे के साथ कोई समझौता किए बिना, प्रतीकात्मक रूप से बदलाव लाने की कोशिश है। इस नीति के तहत, वे आम जनमानस में गहराई से बसे प्रतीकों को अपना लेते हैं, साथ ही विभाजन विभीषिका दिवस जैसे नए दिवस भी प्रस्तावित करते हैं, जिनका उद्देश्य हिंदुओं के कष्टों को उजागर करना है।

हालांकि, तिरंगे का गलत उपयोग भी हो रहा है। धार्मिक त्योहारों पर तिरंगा रैलियां मुस्लिम बहुल इलाकों से गुजरती हैं, जिससे तनाव उत्पन्न होता है। रामनवमी पर मस्जिदों पर तिरंगा फहराने जैसी घटनाएं भी सामने आई हैं। इस संदर्भ में, ‘हर घर तिरंगा’ अभियान एक ढकोसला मात्र प्रतीत होता है, जो तिरंगे के मूल्यों – त्याग, शांति, और विविधता – से भाजपा की प्रतिबद्धता को दर्शाने में असफल है।

राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा, जिसे कभी आरएसएस ने अपनाने से इनकार किया था, आज बीजेपी के शासन में एक बड़े अभियान का हिस्सा बन गया है। लेकिन इसकी मूल भावना, जिसे नेहरू ने स्वतंत्रता संग्राम के समय स्थापित किया था, उस पर सवाल उठाना जरूरी है। 
(आलेख: राम पुनियानी, लेखक आईआईटी मुंबई में बायो मेडिकल इंजीनियरिंग के सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं और मानवाधिकार गतिविधियों से जुड़े हैं।)

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