“रेवड़ी संस्कृति, लोकतंत्र की परीक्षा और मतदाता का विवेक!”
चुनावी मौसम में मतदाताओं के दरवाजे पर दस्तक देने वाली मुफ्त योजनाएं अब भारतीय राजनीति का एक अहम हिस्सा बन गई हैं। जहां एक ओर ये योजनाएं गरीब वर्ग को राहत देने का वादा करती हैं, वहीं दूसरी ओर देश की अर्थव्यवस्था पर इनका गंभीर प्रभाव पड़ता है।
गहराई में जाएं तो आज की तारीख में हर राजनीतिक दल मुफ्त बिजली, पानी, राशन से लेकर स्मार्टफोन और लैपटॉप तक की घोषणाएं कर रहा है। यह सिलसिला यहीं नहीं रुकता – महिलाओं को मासिक आर्थिक सहायता, किसानों की कर्ज माफी और बेरोजगार भत्ते जैसी योजनाएं भी शामिल हैं।
चुनावी मौसम में देशभर में एक नया चलन जोर पकड़ रहा है-‘मुफ्त की राजनीति’। हर दल अपने घोषणापत्र में मुफ्त बिजली, राशन, गैस सिलेंडर, स्मार्टफोन, लैपटॉप और यहां तक कि नकद धनराशि देने तक के वादे कर रहा है। बड़े-बड़े वायदों की इस बाढ़ में सवाल उठता है: क्या ये वादे देश को आगे ले जा रहे हैं या हमारे लोकतंत्र की नींव को कमजोर कर रहे हैं?
क्या बताते हैं आंकड़े?
2023 के पांच राज्यों के चुनावी घोषणापत्र: 90% राजनीतिक दलों ने किसी-न-किसी मुफ्त योजना का वादा किया।
RBI रिपोर्ट (2022-23): राज्यों का कुल घाटा जीडीपी के 4.6% तक पहुंच गया, जिसमें मुफ्त सुविधाओं का बड़ा हाथ माना गया।
सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी (2023): “मुफ्त की संस्कृति लोकतंत्र को बाजारू बना सकती है।”
इन संख्याओं से साफ है कि मुफ्त की घोषणाएं न सिर्फ चुनावों का रुख बदल रही हैं, बल्कि राज्य के खजाने पर भारी दबाव भी डाल रही हैं।
गरीब को राहत या अर्थव्यवस्था पर बोझ?
सकारात्मक पहलू
1. तत्कालिक सहारा:
बिहार की रीना देवी (32) बताती हैं, “कोरोना के दौरान मुफ्त राशन से हमारा जीवन चल पाया।”
इससे ज़रूरतमंदों को कम से कम पेट भरने की चिंता से राहत मिलती है।
2. शिक्षा व स्वास्थ्य में सुधार:
तमिलनाडु की मुफ्त साइकिल योजना ने लड़कियों के स्कूल छोड़ने की दर में 40% कमी लाई।
मुफ्त स्वास्थ्य योजनाओं ने आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों के इलाज का खर्च घटाया।
नकारात्मक असर
1. अर्थव्यवस्था पर दबाव:
पंजाब में मुफ्त बिजली ने राज्य के कर्ज को 2.82 लाख करोड़ रुपये तक पहुंचा दिया।
2. भ्रष्टाचार की संभावना:
उत्तर प्रदेश की 2022 की एक रिपोर्ट में सामने आया कि मुफ्त रसोई गैस योजना के 35% सिलेंडर ऐसे लोगों को मिले, जिन्हें जरूरत ही नहीं थी।
3. युवाओं में निराशा:
दिल्ली के इंजीनियरिंग ग्रेजुएट राहुल (24) कहते हैं, “मुफ्त लैपटॉप मिलने से रोजगार तो नहीं मिलता। असली जरूरत स्किल और जॉब की है।”
क्या कहते हैं विशेषज्ञ?
अभिजीत बनर्जी (नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री): “मुफ्त योजनाएं कई बार जरूरी हो जाती हैं, लेकिन इसे दीर्घकालिक रूप से टिकाऊ बनाने पर ध्यान देना होगा।”
प्रताप भानु मेहता (राजनीतिक विश्लेषक): “मुफ्त की घोषणाएं मध्यवर्ग को अनचाहे टैक्स के बोझ में डाल देती हैं। दीर्घकाल में यह असंतुलन बढ़ाती हैं।”
चुनाव आयोग की चिंता: “मुफ्त वादों से चुनावी मुकाबला असंतुलित हो सकता है, जिससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया प्रभावित होती है।”
सिर्फ मुफ्त ही क्यों?
1. लक्षित योजनाएं
मुफ्त सुविधाओं को केवल वास्तविक बीपीएल (Below Poverty Line) परिवारों तक सीमित रखा जाए, ताकि जरूरतमंदों को सही मदद मिले।
2. रोज़गार पर जोर
‘स्किल इंडिया’ जैसे कार्यक्रमों को मजबूत करें। गुजरात में ऐसे ही प्रयासों से 5 लाख युवाओं को रोज़गार मिला।
3. वित्तीय पारदर्शिता
राजनीतिक दलों को बताना होगा कि मुफ्त योजनाओं का खर्च किस मद से आएगा, ताकि जनता को भ्रम न हो।
4. जनता की जागरूकता
केरल की तर्ज़ पर “वोट की क़ीमत समझें” जैसे अभियान ज़रूरी हैं, ताकि मतदाता जल्दबाज़ी में फैसले न लें।
अगली पीढ़ी के लिए कैसा देश चाहिए?
मुफ्त की योजनाएं तत्काल भूख तो मिटा सकती हैं, लेकिन अतिशय मुफ्त सुविधाएं राज्यों को कर्ज के दलदल में धकेल सकती हैं। ज़रूरत है संवेदनशील और दीर्घकालिक सोच की, जहां गरीब को त्वरित राहत मिले, पर देश का भविष्य भी सुरक्षित रहे।
महात्मा गांधी ने कहा था- “लोगों को मछली देने के बजाय मछली पकड़ना सिखाओ।”
आज यही बात हमारे नीति-निर्माण पर लागू होती है। सवाल ये है कि हम मुफ्त की थैली चुनेंगे या आत्मनिर्भर विकास की राह? जवाब हमें ही देना है, ताकि आगामी पीढ़ियों के लिए हम एक मजबूत और विकसित भारत छोड़कर जाएं, न कि कर्ज में डूबा हुआ देश।
– दिलेश उईके
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