इतिहास के पन्नों में कुछ तारीखें स्याह अक्षरों में दर्ज हो जाती हैं, जो न केवल अनगिनत परिवारों को कभी न भरने वाले जख्म दे जाती हैं, बल्कि मानवता के तथाकथित विकास की दौड़ में कॉर्पोरेट लालच के क्रूर चेहरे को भी बेनकाब करती हैं। ऐसी ही दो दिल दहला देने वाली घटनाएं हैं, जिन्होंने भारत की आत्मा को झकझोर कर रख दिया – 1984 की भोपाल गैस त्रासदी और 2009 का बालको चिमनी हादसा। ये दोनों महज दुर्घटनाएं नहीं थीं, बल्कि ये कॉर्पोरेट लापरवाही और मुनाफे की हवस में इंसानी जिंदगियों को रौंदने की दर्दनाक दास्तां हैं। इन त्रासदियों में हजारों लोगों की जानें गईं, लाखों जिंदगियां हमेशा के लिए अपाहिज हो गईं, लेकिन दशकों बाद भी न्याय एक ऐसा ख्वाब बना हुआ है, जिसका इंतजार पीड़ितों की कई पीढ़ियां कर रही हैं।
भोपाल गैस त्रासदी: जब हवा में घुल गया मौत का जहर
2 और 3 दिसंबर, 1984 की सर्द रात में मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के लोग बेखबर सो रहे थे, जब यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड (UCIL) के कीटनाशक संयंत्र से निकली जहरीली मिथाइल आइसोसाइनेट (MIC) गैस ने शहर को एक विशाल गैस चैंबर में तब्दील कर दिया। यह एक धीमा और दर्दनाक हमला था। हवा में घुले इस जहर ने सोते हुए लोगों का दम घोंट दिया, उनकी आंखों में जलन पैदा कर दी और फेफड़ों को जला दिया।
सुबह जब सूरज निकला, तो भोपाल की सड़कों पर मौत का तांडव पसरा था। हर तरफ लाशें थीं – इंसानों की, जानवरों की। जो बच गए थे, वे अंधी, अपाहिज और बीमार जिंदगियां जीने को मजबूर थे। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, इस त्रासदी में कुछ ही घंटों के भीतर 2,259 लोग मारे गए थे, हालांकि बाद में यह संख्या 3,787 बताई गई। गैर-सरकारी अनुमानों के अनुसार, मरने वालों की संख्या 16,000 से भी अधिक थी और लगभग 5.5 लाख से अधिक लोग सीधे तौर पर प्रभावित हुए थे।

इस त्रासदी की जड़ में यूनियन कार्बाइड का आपराधिक लालच था। कंपनी ने लागत में कटौती करने के लिए सुरक्षा मानकों को ताक पर रख दिया था। टैंक नंबर 610, जिससे गैस का रिसाव हुआ था, के सुरक्षा उपकरण या तो खराब थे या बंद कर दिए गए थे। कर्मचारियों को अंग्रेजी में दिए गए सुरक्षा मैनुअल समझ नहीं आते थे और पाइपों की सफाई करने वाले वेंट ने भी काम करना बंद कर दिया था। यह सब कुछ मुनाफे को अधिकतम करने की अंधी दौड़ में किया गया, जिसकी कीमत हजारों बेगुनाह लोगों ने अपनी जान देकर चुकाई।
बालको चिमनी हादसा: विकास के नाम पर मजदूरों की कब्रगाह
भोपाल त्रासदी के 25 साल बाद, 23 सितंबर 2009 को छत्तीसगढ़ के कोरबा में भारत एल्युमिनियम कंपनी लिमिटेड (बालको) के एक निर्माणाधीन बिजली संयंत्र में एक और भयावह हादसा हुआ। यहां 275 मीटर ऊंची बन रही एक चिमनी अचानक ताश के पत्तों की तरह ढह गई। उस वक्त तेज आंधी और बारिश से बचने के लिए 100 से ज्यादा मजदूर चिमनी के नीचे शरण लिए हुए थे। यह चिमनी उनके लिए मौत का सायबान साबित हुई। इस हादसे में 56 से ज्यादा मजदूरों की दर्दनाक मौत हो गई। सरकारी घोषणा में मृतक मजदूरों की संख्या मात्र 40 बताया गया, जिनमें से ज्यादातर बिहार और झारखंड के प्रवासी श्रमिक थे।
जांच में जो तथ्य सामने आए, वे दिल दहला देने वाले थे। पता चला कि चिमनी का निर्माण घटिया सामग्री से किया जा रहा था और इसका डिजाइन भी तकनीकी रूप से दोषपूर्ण था।यही नहीं, बालको और निर्माण में लगी अन्य कंपनियों ने नगर निगम और अन्य संबंधित विभागों से आवश्यक अनुमति तक नहीं ली थी। यह कॉर्पोरेट जगत की उस मानसिकता को दर्शाता है, जहां मजदूरों की सुरक्षा और सरकारी नियमों का पालन महज एक औपचारिकता है, जिसे मुनाफे के लिए आसानी से नजरअंदाज किया जा सकता है।

न्याय का अंतहीन इंतजार: एक साझा दर्द
दोनों ही त्रासदियों में पीड़ितों और उनके परिवारों का न्याय के लिए संघर्ष एक लंबा और दर्दनाक सफर रहा है। भोपाल गैस त्रासदी के मामले में, यूनियन कार्बाइड ने अपनी जिम्मेदारी से बचने की हर संभव कोशिश की। कंपनी के तत्कालीन सीईओ वॉरेन एंडरसन को गिरफ्तार तो किया गया, लेकिन कुछ ही घंटों में मामूली जुर्माने पर रिहा कर दिया गया और वह फिर कभी भारतीय कानून की पकड़ में नहीं आया।1989 में, भारत सरकार और यूनियन कार्बाइड के बीच एक समझौता हुआ, जिसके तहत कंपनी ने मात्र 470 मिलियन डॉलर (उस समय लगभग 715 करोड़ रुपये) का मुआवजा दिया।यह राशि पीड़ितों की संख्या और उनके नुकसान की भयावहता को देखते हुए बेहद कम थी। आज भी, भोपाल की कई बस्तियों में लोग उस जहरीली गैस के दुष्प्रभावों से पीड़ित हैं, बच्चे विकलांग पैदा हो रहे हैं और पर्यावरण प्रदूषित है। दशकों की कानूनी लड़ाई के बाद भी, पीड़ित परिवार आज भी उचित मुआवजे और न्याय के लिए भटक रहे हैं।मार्च 2023 में, सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार की उस याचिका को भी खारिज कर दिया, जिसमें पीड़ितों के लिए अतिरिक्त मुआवजे की मांग की गई थी।

बालको चिमनी हादसे में भी न्याय की प्रक्रिया बेहद धीमी रही है। हादसे के 15 साल बाद, फरवरी 2025 में जाकर बालको, चीनी कंपनी सेपको और अन्य संबंधित कंपनियों के शीर्ष अधिकारियों को आरोपी बनाया गया है। इतने सालों तक, पीड़ित परिवार न्याय की उम्मीद में दर-दर की ठोकरें खाते रहे। राज्य सरकार ने प्रत्येक मृतक के परिवार को एक लाख रुपये और बालको प्रबंधन ने पांच लाख रुपये के मुआवजे की घोषणा की थी। लेकिन क्या कुछ लाख रुपये उन जिंदगियों का मोल हो सकते हैं, जो कॉर्पोरेट लालच की भेंट चढ़ गईं?
कॉर्पोरेट लालच और व्यवस्था की विफलता
बालको और भोपाल, दोनों ही मामले इस कड़वी सच्चाई को उजागर करते हैं कि कैसे कॉर्पोरेट लालच के सामने इंसानी जिंदगियों की कोई कीमत नहीं रह जाती। इन दोनों ही मामलों में कंपनियों ने सुरक्षा नियमों की अनदेखी की, चेतावनियों को नजरअंदाज किया और जब हादसा हो गया, तो अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने की कोशिश की।
यह केवल कंपनियों की विफलता नहीं है, बल्कि हमारी व्यवस्था की भी विफलता है। भोपाल में, सरकार ने यूनियन कार्बाइड जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के सामने घुटने टेक दिए और एक अपमानजनक समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए। बालको के मामले में, 15 साल तक न्याय प्रक्रिया का धीमा चलना यह दर्शाता है कि कैसे शक्तिशाली कॉर्पोरेट घराने कानून को अपने हिसाब से मोड़ने की क्षमता रखते हैं।
कब तक बिकती रहेंगी जिंदगियां?
बालको से लेकर भोपाल तक, इन “मौत के कारखानों” ने हमें जो सबक सिखाए हैं, उन्हें भूलना एक और त्रासदी को न्योता देना होगा। ये घटनाएं हमें याद दिलाती हैं कि विकास की अंधी दौड़ में अगर मानवीय मूल्यों और सुरक्षा को प्राथमिकता नहीं दी गई, तो हम ऐसी और भी भयावह त्रासदियों के साक्षी बनेंगे।
आज जरूरत इस बात की है कि कॉर्पोरेट जवाबदेही को और सख्त बनाया जाए। कानूनों का कड़ाई से पालन सुनिश्चित किया जाए और उनका उल्लंघन करने वाली कंपनियों को कठोरतम दंड दिया जाए। न्याय प्रक्रिया को तेज और पारदर्शी बनाने की आवश्यकता है, ताकि पीड़ितों को दशकों तक इंतजार न करना पड़े।
जब तक हम कॉर्पोरेट लालच पर लगाम नहीं कसेंगे और अपनी औद्योगिक नीतियों के केंद्र में मानव जीवन की सुरक्षा को नहीं रखेंगे, तब तक भोपाल और बालको जैसी त्रासदियां होती रहेंगी और हजारों जिंदगियां यूं ही असमय काल के गाल में समाती रहेंगी। सवाल यह है कि हम और कितनी लाशों के ढेर पर अपने विकास का महल खड़ा करेंगे और कब तक न्याय यूं ही कोसों दूर खड़ा हमारा मुंह चिढ़ाता रहेगा?
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