व्यंग्य : राजेंद्र शर्मा
भाई विरोधियों की यह बात बिल्कुल भी सही नहीं है। जब से हिंडनबर्ग वालों ने अडानी जी की रिपोर्ट निकाली है, तब से जांच-जांच का शोर तो मचा ही रहे हैं, अब तो हर बात में बेचारे अडानी जी को बीच में ले आते हैं.
बताइए, अब मोदी जी का संसद में यह पूछना भी गुनाह हो गया कि कांग्रेसियों को अगर नेहरू जी के नाम की इतनी ही फिक्र है, तो नेहरू सरनेम रखने में इन्हें क्यों शर्म आती है– रख लें नेहरू सरनेम! भाई लोग तभी से पीछे पड़े हैं कि मोदी जी को भी तो अडानी की इतनी ही फिक्र है। फिर इन्हें ही अडानी सरनेम रखने में क्या शर्म आती है, लगा लें नरेंद्र दामोदार दास बाद अडानी सरनेम!
अमृतकाल में मोदी जी ने भी कम से कम सरनेम की आजादी तो दिला ही दी है। वाकई किसी की फिक्र करते हो और बंदे का सरनेम रखने में शर्मिंदगी महसूस नहीं करते हो, तो उसका सरनेम रख कर दिखाओ। ये 2014 से पहले वाला पुराना सरनेम से गुलाम भारत थोड़े ही है कि बेटे को बाप का ही सरनेम लगाना होगा। फिरोज गांधी की बीबी, बेटों, बेटों के बेटों, वगैरह सब का एक ही सरनेम — गांधी। और उस पर तुर्रा ये कि इन्हें नेहरू के नाम पर भी नाज है, शर्मिंदगी का तो सवाल ही कहां उठता है!
विरोधियों के यही लक्षण रहे, तो भारत का विश्व गुरु बनना मुश्किल है। अडानी जी-मोदी जी ने मिलकर बेहिसाब कमाई में भारत को विश्व गुरु बना ही दिया था और धक्का दे-देकर, अडानी जी को दुनिया के दूसरे सबसे अमीर का तमगा भी दिला दिया था, पर इन एंटीनेशनलों की नजर लग गयी। हिंडनबर्ग ने साजिश रची और विरोधियों ने देश में शोर मचाना शुरू कर दिया और अडानी जी का रॉकेट जितनी तेजी से ऊपर चढ़ा था, उससे कई गुना तेजी से नीचे आ गया।
शेयर बाजार, स्टेट बैंक, एलआइसी, सब को लपेटता हुआ नीचे आया, सो ऊपर से। मोदी जी को भी कहना पड़ा कि भैये आप तो अब इतना एहसान करना कि अगले चुनाव तक, मेरे साथ एक तस्वीर में दिखाई मत देना — न मंच पर और न सैल्फी-वैल्फी में।
और अब जब मोदी जी इकॉनामी-विकानामी के इहलोकवादी मैदान में पश्चिम वालों को उलझा छोडक़र, संस्कृति और सभ्यता के मैदान में भारत को विश्व गुरु के आसन पर बैठाने की जुगत बैठा रहे हैं, तो भाई लोग उसमें भी टांग अड़ा रहे हैं। शेक्सपियर को विश्व नाटककार माना जाता है या नहीं? इसी विश्व नाटककार ने कहा था कि नाम में क्या रखा है? गुलाब तो गुलाब है, चाहे जिस नाम से पुकारो! पर 2014 में मोदी जी के गद्दी संभालते ही, इस विश्व नाटककार यानी विश्व गुरु की बात को गलत साबित करने पर काम शुरू हो गया।
शहरों के, कस्बों के, मोहल्लों के, संस्थाओं के, यहां तक कि सरकारी संस्थाओं के तथा मंत्रालयों तक के नाम बदलकर भी चुनाव जीतकर दिखा दिया और मोदी जी ने साबित कर दिया कि शेक्सपियर सही नहीं था — नाम में बहुत कुछ रखा है। और मुगल गार्डन का नाम अमृत उद्यान करना तो एकदम ही विश्व गुरु वाला मास्टरस्ट्रोक था।
पर मोदी जी शेक्सपियर को गलत साबित करने पर ही कहां रुकने वाले थे। असली विश्व गुरु के लिए दूसरों के खंडन के अलावा अपने पक्ष का मंडन भी तो जरूरी है। तभी तो मोदी जी देश और दुनिया को यह समझाने की कोशिश कर रहे थे कि नाम में हो न हो, सरनेम में बहुत कुछ रखा है। राहुल, गांधी सरनेम छोडक़र, नेहरू सरनेम लगा लें, फिर हम और सारे अर्णव गोस्वामी मिलकर, 1947 से 1964 तक का जवाब ले लेंगे! पर विपक्षी हैं कि नेहरू से जवाब ही नहीं लेने दे रहे हैं; फिर मोदी जी भारत को विश्व गुरु बनवाएं भी, तो बनवाएं कैसे?
Recent Comments