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गुरूवार, फ़रवरी 6, 2025
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भारत के श्रम कोडों के परिप्रेक्ष्य से वैश्विक अधिकार सूचकांक 2022 पर विचार

मजदूरों के अधिकारों की गारंटी के मामले में भारत सबसे निचले पायदान पर

ग्लोबल राइट्स इंडेक्स (वैश्विक अधिकार सूचकांक) 2022 (इंटरनेशनल ट्रेड यूनियन कनफेडरेशन-आईटीयूसी द्वारा प्रकाशित) में उन देशों का जिक्र किया गया है जो मजदूरों के लिए सबसे खराब हैं। इसमें इन देशों कोएक से पांच दर्जे की श्रेणियों में बांटा गया है। दर्जा 01 (जहां अधिकारों का छिटपुट उल्लंघन होता है) से लेकर दर्जा 05 या अधिक (जहां कानून का शासन पूरी तरह ध्वस्त होने की वजह से अधिकारों की गारंटी ना हो)। इस मानक में भारत 05 में दर्जे में आता है जहां मजदूरों के अधिकारों की कोई गारंटी नहीं है।

अब, भारत में 04 नए श्रम कोड लाए जा रहे हैं जो मौजूदा 29 श्रम कानूनों की जगह लेते हुए क्रोनी (सत्ता पोषित) पूंजीवाद को और मजदूर विरोधी शासन व्यवस्था को मजबूत करेंगे। सूचकांक यह भी इंगित करता है कि दुनिया भर में यहां अधिकारों का सबसे ज्यादा उल्लंघन किया जाता है। अब जहां यह सूचकांक भारत में ऐसे ही कुछ अधिकारों की उल्लंघन की तरफ इशारा करता है। असल में, अधिकारों के उल्लंघन तो यहां नियम बन चुका है और इन्हें श्रम कोड लाकर कानूनी जामा पहनाया जा रहा है।

हड़ताल के अधिकार को अपराध बनाना

सूचकांक में पता लगा कि 184 देशों में से 129 देशों में हड़ताल के अधिकार पर रोक/निषेध है।भारत में नए इंडस्ट्रियल रिलेशन (I.R.) कोड के आने के साथ ऐसी रोक/निषेध को संस्थागत बना दिया गया है। कोड अनिवार्य बनाता है कि किसी भी हड़ताल से 14 दिन पहले इसका नोटिस दिया जाएगा, जिसके बाद समझौते की प्रक्रिया शुरू करना अनिवार्य हो जाएगा। लेकिन, यह कोड समझौते की प्रक्रिया के दौरान हड़ताल करने पर रोक लगाता है। इसलिए लंबे इंतजार और इसके साथ जुड़े हालात के चलते इस अधिकार पर भारी प्रतिबंध लगाकर इसे निष्प्रभावी बना दिया गया है। गैर कानूनी हड़ताल ऊपर कोड भारी जुर्माने, जेल और ट्रेड यूनियनों के पंजीकरण को खत्म करने जैसे दंडों का प्रावधान थोपता है।

सामूहिक सौदेबाजी को कमजोर करना

सूचकांक के अनुसार सभी देशों में से 79 प्रतिशत देश सामूहिक सौदेबाजी के अधिकार का उल्लंघन करते हैं। दरअसल, भारत में इंडस्ट्रियल रिलेशन (Central) रिकॉग्निशन आफ नेगोशिएटिंग यूनियन या नेगोशिएटिंग काउंसिल एंड एडजुडिकेशन ऑफ डिस्प्यूट्स ऑफ ट्रेड यूनियन रूल्स 2021 का नियम 03, जहां नेगोशिएटिंग (समझौता वार्ता करने वाली) यूनियन या काउंसिल और नियोक्ता के बीच विचार-विमर्श के लिए कई मामलों का उल्लेख है, वहीं वह महत्वपूर्ण मामलों का जिक्र नहीं करता है। जैसे किसी भी व्यक्ति के रोजगार या बेरोजगारी का मसला, मजदूरों का स्थायीकरण, काम का ओवरटाइम और अन्य जरूरी मसले, नियम 05 और 06 भी, प्रबंधन द्वारा प्रायोजित यूनियनों को औपचारिक और कानूनी रूप देता है, जो अब तक गैरकानूनी थीं। वो प्रबंधन को वेरिफिकेशन ऑफिसर नियुक्त करने से लेकर वोटर लिस्ट तैयार करने और वेरिफिकेशन का तरीका तय करने का अधिकार भी देता है। यह ट्रेड यूनियनों के मामलों में दखलंदाजी के अलावा कुछ नहीं है, और यह उनकी संगठन की स्वतंत्रता पर रोक लगाना है।

श्रम सुरक्षा से बाहर और उसे अवरुद्ध करना

सूचकांक में कहा गया है कि जो देश मजदूरों को श्रम सुरक्षा से निष्कासित करते हैं उनकी संख्या 2014 में 58 प्रतिशत के मुकाबले 2022 में 77 प्रतिशत हो गई है। श्रम कोड लागू करके भारत सरकार ने मजदूरों को श्रम कानूनों के दायरे से बाहर किए जाने की प्रक्रिया को औपचारिक और कानूनी बना दिया है। यह सब कवरेज की सीमा को बढ़ाने तथा बढ़ते ठेकाकरण और एक नया तरीका जिसे “फिक्स्ड टर्म एंप्लॉयमेंट” कहते हैं, जैसे कई रूपों का इस्तेमाल कर किया है। जाहिर है कि असंगठित मजदूरों की विशाल बहुसंख्या की सुरक्षा अब भी सिर्फ बहकावे की बातें हैं, जैसा कि असंगठित मजदूर सामाजिक सुरक्षा कानून 2008 में है।

मजदूरों को न्याय पाने में रुकावटें

ग्लोबल राइट्स सूचकांक में कहा गया है कि “148 में से 97 देशों में, मजदूरों के पास या तो न्याय पाने का कोई रास्ता नहीं है या फिर बहुत कम रास्ते बचे हैं, और वे कानून और न्याय की प्रक्रियाओं से वंचित रहते हैं। अक्सर ट्रेड यूनियन नेताओं को गिरफ्तार कर लिया जाता है और उनको झूठे आरोपों में सजा दी जाती है। उनके मुकदमों में वैधानिक प्रक्रिया का उल्लंघन किया जाता है और उनके साथ भेदभाव किया जाता है।”

महत्वपूर्ण बात यह है कि श्रम को कोडों में “उद्योग” शब्द की बदलती परिभाषा में न्याय पाने की जद्दोजहद पर व्यापक प्रभाव पड़ेगा। क्योंकि परिभाषा के दायरे से बाहर कर दिए गए संस्थानों और उद्योगों की मजदूर अपने कानूनी अधिकारों से वंचित हो जाएंगे। ऐसे वर्जित संस्थानों में धार्मिक संस्थान, परोपकारी संस्थान, रक्षा संस्थान, और बाकी वो संस्थान शामिल हैं जिन्हें सरकार अपनी मर्जी से इस सूची में डाल सकती है।

इंडस्ट्रियल रिलेशन कोड अब न्यायिक व्यवस्था में भी बदलाव ला रहा है जिसमें किसी न्यायिक सदस्य की अनुपस्थिति में प्रशासनिक सदस्य ट्रिब्यूनल की अध्यक्षता कर केस की सुनवाई कर सकता है। ऐसे प्रशासनिक सदस्यों की नियुक्ति सरकार करती है और ये सदस्य सरकार के कार्यकारी इकाई के अंग होते हैं न कि न्यायिक व्यवस्था के। इसलिए, ये राजनीतिक नियुक्तियां होती हैं, जिनसे राज्य द्वारा किए गए किसी उल्लंघन के मामले में स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायिक कार्य करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती।

समझौता अधिकारी या इंडस्ट्रियल ट्रिब्यूनल के सामने किसी विवाद को उठाने में समय सीमा के कड़े नियमों को लाने का यह नतीजा होगा कि मजदूरों की न्याय तक पहुंच बहुत बुरी तरह से प्रभावित होगी। जिन्हें अक्सर ही कोर्ट तक पहुंचने में समय लग जाता है। इन को कोडों के लागू होने तक कम से कम इतना था कि भारतीय श्रम कानून विलंब के मामले में राहत को भले रोक देते थे लेकिन सीधा खारिज नहीं करते थे।

यूनियनों का पंजीकरण खत्म करना

चौंकाने वाला तथ्य यह है कि 2022 के सूचकांक में कहा गया है कि अप्रैल 2021 और मार्च 2022 के बीच अधिकारियों ने 148 में से 110 देशों में यूनियनों की पंजीकरण में रुकावट डाली, या पंजीकरण खत्म कर दिया, या मनमाने तरीके से यूनियनों को भंग कर दिया। अब भारत में भी ऐसी आईआर को हटाने के चलते, या उसके तहत नियमों के उल्लंघन के नाम पर यूनियनों के डी-रजिस्ट्रेशन को पूरी अनुमति दे दी गई है।उदाहरण के लिए, एक अवैध हड़ताल के आधार पर यूनियन के पंजीकरण को खत्म कर दिया जा सकता है। इन उल्लंघनो के संबंध में किसी तरह के मानदंड ना होने के चलते किसी भी तरह का बेतुका, असंगत और मनमाना नतीजा निकाला जा सकता है। मिसाल के लिए रजिस्ट्रार को यूनियन के नियमों में सामान्य से बदलाव की सूचना दी जाए तो भी यूनियन की पंजीकरण को रद्द किया जा सकता है। इसका सीधा मतलब यह है कि राज्य और कॉरर्पोरेट को यूनियनों के खिलाफ एक अधिकार दे दिया गया है जो उनके खिलाफ चुनौती बनकर खड़ी हुई हैं जी।

अभिव्यक्ति की आजादी और एक जगह जमा होने के अधिकार पर हमला

एक बार फिर सूचकांक बताता है कि उन देशों की संख्या में जबरदस्त इजाफा देखा गया है जहां अभिव्यक्ति और एक जगह जमा होने के अधिकार पर प्रतिबंध लगाया जा रहा है। (2014 में यह संख्या 26 प्रतिशत थी जबकि 2022 में यह संख्या बढ़कर 41 प्रतिशत हो गई) भारत में विरोध की आजादी को सुप्रीम कोर्ट द्वारा मौलिक अधिकार माना गया है। इसके लिए भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए-सी) के तहत अभिव्यक्ति की आजादी, किसी जगह पर एक साथ जमा होने, कोई संगठन या यूनियन बनाने की आजादी को आधार बनाया गया है। लेकिन हालिया वर्षों में दिल्ली और कई राज्य राजधानियों में हमने इस आजादी पर प्रतिबंध देखा है। मिसाल के तौर पर, कर्नाटक हाई कोर्ट के आदेश को देखें तो, बेंगलुरु शहर में होने वाले सारे प्रदर्शन सिर्फ फ्रीडम पार्क नाम के एक पार्क में ही हो सकते हैं।इसका मतलब यह हुआ कि प्रदर्शनकारियों को जनता की नजरों से छुपा कर नजरबंद कर दिया गया है। यही हालात दिल्ली और मुंबई की भी है। इसलिए एक तरफ तो मजदूरों का अपनी शिकायत के निवारण का सार्वजनिक अधिकार छीन लिया गया है, वहीं दूसरी तरफ नौकरी की बढ़ती असुरक्षा, सामाजिक सुरक्षा में कमी, और दोनों को ही लेबर कोडों द्वारा बढ़ाना और कानूनी जामा पहनाना, और भी अधिक खतरनाक स्थिति बना देता है।

मजदूरों पर हिंसक हमले और ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं की हत्यायें

सूचकांक में कहा गया है कि 148 देशों में से 69 देशों में मजदूरों की गिरफ्तारी/नजरबंदी, 50 देशों में उन पर हिंसा और 13 देशों में उनकी हत्या के मामले बढ़े हैं। भारत में भी कानून को हथियारबंद किया जा रहा है ताकि उन लोगों का दमन किया जा सके जो अपने संवैधानिक और कानूनी अधिकारों का शांतिपूर्वक इस्तेमाल करना चाहते हैं और यह बढ़ता ही जा रहा है। जिसे पूरे देश में देखा जा सकता है। समाज में शोषण की विभिन्न व्यवस्थाओं, जिनमें संस्थागत जातिवाद, सांप्रदायिकता, पितृसत्ता आदि शामिल हैं, को चुनौती देने वालों को भी सरकारी दमन झेलना पड़ता है। वर्ग संघर्ष के संदर्भ में, मजदूरों और यूनियन नेताओं पर हमले भी आम बात हो गए हैं।

ये कोड कॉरपोरेट लूट और मजदूर वर्ग के अधिकारों के दमन की प्रति असली प्रतिबद्धता भी जाहिर करते हैं। उल्लंघन के मामले में मजदूरों पर बढ़ती सजा के मुकाबले उल्लंघनो पर प्रबंधन पर घटती सजा और उनके अपराधों की अनिवार्य माफी से यह बात और साफ नजर आती है। जाहिर है, कि कार्यान्वयन की एजेंसियां, जैसे इंस्पेक्टरों को अब इंस्पेक्टर-कम-फैसिलिटेटर बना दिया गया है। अब उनकी अनिवार्य ड्यूटी यह हो गई है कि वो कानून के उल्लंघन पर सजा सुनिश्चित करने के बजाय प्रबंधन को अनुपालन का पूरा मौका दें। इस संदर्भ में सिर्फ यही अपेक्षा की जा सकती है कि मजदूरों के अधिकारों की संघर्ष को राज्य की फौलादी ताकत का सामना करना पड़ेगा और मजदूर वर्ग को आने वाली चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए पूरी ताकत और प्रतिबद्धता के साथ उठ खड़ा होना होगा।

आलेख : अवनि चौकसी

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