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जाति जनगणना: सामाजिक न्याय की मांग या राजनीतिक खेल? माले महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य का बेबाक बयान!

नई दिल्ली (पब्लिक फोरम)। जाति जनगणना को लेकर देश में बहस तेज हो गई है। भाकपा (माले) के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने केंद्र की मोदी सरकार पर तीखा हमला बोला है। उन्होंने जाति जनगणना को सामाजिक न्याय की दिशा में ऐतिहासिक कदम बताते हुए सरकार की देरी और खोखली बयानबाजी पर सवाल उठाए। 2024 के लोकसभा चुनावों में इंडिया गठबंधन की प्रमुख मांग रही जाति जनगणना अब राष्ट्रीय चर्चा का केंद्र बन चुकी है। लेकिन क्या यह मांग वाकई सामाजिक समानता की ओर ले जाएगी, या यह सिर्फ राजनीतिक हथियार बनकर रह जाएगी? आइए, इस मुद्दे को गहराई से समझते हैं।

जाति जनगणना: क्यों है यह जरूरी?
जाति जनगणना का मुद्दा भारत के सामाजिक ढांचे में गहरे तक पैठ रखता है। दीपंकर भट्टाचार्य ने कहा, “जाति जनगणना सामाजिक न्याय का आधार है। यह न केवल समाज की वास्तविक तस्वीर सामने लाएगी, बल्कि पिछड़े और वंचित वर्गों के लिए नीतियां बनाने में भी मदद करेगी।” बिहार में 2023 में हुई जाति गणना इसका जीता-जागता उदाहरण है। इस सर्वेक्षण ने राज्य में जातिगत आंकड़ों को उजागर कर नीतिगत फैसलों को दिशा दी। लेकिन केंद्र सरकार ने इसे ‘राजनीति से प्रेरित’ करार देकर विवाद खड़ा कर दिया।

कॉमरेड भट्टाचार्य ने सरकार की इस टिप्पणी को ‘हास्यास्पद’ बताया। उन्होंने कहा, “जब बिहार जैसे राज्य सामाजिक समानता के लिए कदम उठा रहे हैं, तो केंद्र को उनका समर्थन करना चाहिए, न कि आलोचना।” उन्होंने यह भी जोड़ा कि आम जनगणना में चार साल की देरी पहले ही हो चुकी है, और अब जाति गणना को शामिल करने का फैसला भी देर से लिया गया। यह देरी उन लाखों लोगों के साथ अन्याय है, जो सामाजिक और आर्थिक समानता का इंतजार कर रहे हैं।

बिहार का उदाहरण: 65% आरक्षण नीति
बिहार ने न केवल जाति गणना करवाकर मिसाल कायम की, बल्कि इसके आधार पर 65 प्रतिशत आरक्षण नीति को भी विधानसभा में पारित किया। यह नीति पिछड़े और अति पिछड़े वर्गों के लिए शिक्षा और नौकरियों में अधिक अवसर सुनिश्चित करती है। लेकिन भट्टाचार्य ने चेतावनी दी कि केंद्र सरकार इस नीति के कार्यान्वयन में बाधा बन रही है। उन्होंने कहा, “खोखली बयानबाजी से काम नहीं चलेगा। सरकार को तुरंत कदम उठाकर इस नीति को लागू करना चाहिए।”

केंद्र सरकार पर सवाल
मोदी सरकार का रवैया इस मुद्दे पर शुरू से ही विवादास्पद रहा है। एक ओर सरकार ने आगामी जनगणना में जाति गणना को शामिल करने की घोषणा की, वहीं दूसरी ओर उसने विपक्षी दलों और जाति सर्वेक्षण करने वाले राज्यों को निशाना बनाया। भट्टाचार्य ने इसे ‘दोहरा रवैया’ करार दिया। उन्होंने पूछा, “अगर सरकार वाकई सामाजिक न्याय के लिए प्रतिबद्ध है, तो वह बिहार जैसे राज्यों के प्रयासों को क्यों कमजोर कर रही है?”

लोगों की भावनाएं और उम्मीदें
जाति जनगणना का सवाल केवल आंकड़ों का नहीं, बल्कि करोड़ों लोगों की उम्मीदों का है। देश के ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लाखों लोग, जो सदियों से सामाजिक और आर्थिक भेदभाव का शिकार रहे हैं, इस गणना को अपनी आवाज मानते हैं। बिहार के एक किसान ने कहा, “हमें नहीं पता कि गणना कैसे होती है, लेकिन अगर इससे हमारे बच्चों को बेहतर शिक्षा और नौकरी मिलेगी, तो यह हमारे लिए बहुत बड़ी बात है।”

क्या है चुनौती?
जाति जनगणना को लागू करना आसान नहीं है। विशेषज्ञों का कहना है कि इसके लिए व्यापक संसाधनों, पारदर्शी प्रक्रिया और राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है। साथ ही, यह भी सुनिश्चित करना होगा कि इस प्रक्रिया का दुरुपयोग राजनीतिक लाभ के लिए न हो। भट्टाचार्य ने इस बात पर जोर दिया कि जाति गणना को राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने के लिए एक स्पष्ट और निष्पक्ष नीति बनानी होगी।

जाति जनगणना का मुद्दा अब केवल राजनीतिक मंचों तक सीमित नहीं है। यह उन करोड़ों लोगों की आकांक्षाओं का प्रतीक बन चुका है, जो समाज में बराबरी का सपना देखते हैं। दीपंकर भट्टाचार्य का बयान इस बहस को और तेज करता है। उन्होंने कहा, “यह समय बयानों का नहीं, बल्कि ठोस कार्रवाई का है। केंद्र सरकार को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी।”

जाति जनगणना भारत के सामाजिक ढांचे को बदलने की क्षमता रखती है। यह न केवल आंकड़े जुटाएगी, बल्कि उन वंचित वर्गों को आवाज देगी, जो लंबे समय से हाशिए पर हैं। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि सरकार और विपक्ष मिलकर इस मुद्दे को राजनीति से ऊपर उठाएं। बिहार जैसे राज्यों ने रास्ता दिखाया है, अब केंद्र की बारी है कि वह इस दिशा में ठोस कदम उठाए।

क्या जाति जनगणना सामाजिक न्याय की दिशा में मील का पत्थर साबित होगी? यह समय और सरकार की नीतियां तय करेंगी। लेकिन एक बात साफ है – यह मुद्दा अब और अनदेखा नहीं किया जा सकता।

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