ब्राह्मणवादी मानसिकता: सिर्फ एक जाति का विषय नहीं, समाज की गहरी जड़ें!
भारत में जातिगत भेदभाव और ब्राह्मणवाद की चर्चा अकसर होती है। लेकिन क्या सच में ब्राह्मणवाद केवल ब्राह्मण जाति तक सीमित है? क्या हमारे समाज की हर जाति में एक ‘ब्राह्मणवादी सोच’ नहीं व्याप्त है? विचार करने पर पता चलता है कि यह मानसिकता किसी एक जाति तक सीमित नहीं, बल्कि एक संकीर्ण सोच है जो खुद को श्रेष्ठ मानने और दूसरों को कमतर समझने की प्रवृत्ति से जुड़ी है।
कई समाज सुधारकों ने इस मानसिकता पर चोट की है। डॉ. भीमराव अंबेडकर का नाम इस संदर्भ में प्रमुखता से लिया जाता है। उन्होंने जातिवादी व्यवस्थाओं के विरोध में आवाज़ उठाई और पिछड़ी जातियों को संगठित होने का आह्वान किया। उनका उद्देश्य केवल ब्राह्मण जाति का विरोध नहीं था, बल्कि उस संकीर्ण ब्राह्मणवादी मानसिकता का विरोध था जो समाज में गहरी जड़ें जमा चुकी है। अंबेडकर मानते थे कि जब तक पिछड़ी जातियों के अंदर का यह ब्राह्मणवाद समाप्त नहीं होगा, तब तक इस मानसिकता का खात्मा संभव नहीं है।
सच्चाई से सामना: जातिगत संकीर्णता से कैसे बाहर आएं?
समाज में विभिन्न जातियों के लोगों में सज्जन और दुर्जन दोनों मिलते हैं। ऐसा नहीं कि ब्राह्मण जाति में ही बुराइयां हैं या अन्य जातियां इससे अछूती हैं। बल्कि हर जाति के भीतर ही अपने को श्रेष्ठ मानने और दूसरों को नीचा समझने की प्रवृत्ति देखने को मिलती है। इस मानसिकता से बाहर निकलना ही ब्राह्मणवाद को जड़ से मिटाने की दिशा में पहला कदम है।
कुछ लोग यह मानते हैं कि ब्राह्मणवाद का खात्मा केवल ब्राह्मणों के विरोध से हो सकता है, लेकिन यह सोच अधूरी है। पिछड़ी जातियों के लोगों में भी ब्राह्मणवादी सोच का असर साफ झलकता है। ऐसे में अगर आंदोलन केवल विरोध तक सीमित रहा तो यह सच्चे सामाजिक सुधार के मार्ग से भटक सकता है और समाज में वास्तविक परिवर्तन नहीं ला पाएगा।
क्या पिछड़ी जातियों में भी है ‘ब्राह्मणवादी सोच’?
कई बार यह देखा गया है कि पिछड़ी जातियों के बीच भी श्रेष्ठता की भावना पाई जाती है। ऐसे में समाज में समानता और स्वतंत्रता का आंदोलन अगर प्रभावी बनाना है तो सबसे पहले इन जातियों को अपने भीतर के ब्राह्मणवादी विचारों को समाप्त करना होगा। अन्यथा, आंदोलन सिर्फ एक जाति के विरोध में सीमित होकर रह जाएगा और समाज में सुधार का मूल उद्देश्य अधूरा रह जाएगा।
संकीर्णता के खिलाफ एकजुटता की आवश्यकता
अगर हमें एक शोषणमुक्त और समान समाज का निर्माण करना है तो संकीर्णता को त्यागना होगा। हर जाति में पांडित्य और बुद्धिमता के गुण मिल सकते हैं और संकीर्ण सोच भी। इसलिए हर वर्ग और जाति को अपने भीतर की श्रेष्ठता की भावना से लड़ना होगा।
डॉ. अंबेडकर की सोच का सही मूल्यांकन इसी में है कि हम सभी मिलकर समाज को बेहतर बनाने की दिशा में कदम उठाएं। केवल जातिगत संकीर्णता से ऊपर उठकर ही हम एक प्रगतिशील समाज की स्थापना कर सकते हैं।
– श्यामलाल साहू
(लेखक एक सामाजिक कार्यकर्ता एवं वामपंथी लीडर हैं)
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