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रविवार, नवम्बर 16, 2025
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बिहार में रिकॉर्ड 64.66% मतदान: बदलाव की बयार या ‘कल्याणकारी भय’ का खेल?

— बिहार का बंपर वोट: जब मत काटना, वोट बढ़ाने की रणनीति बन जाए

बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण में 18 जिलों की 121 सीटों पर 64.66% का ऐतिहासिक मतदान दर्ज हुआ है, जिसने पिछले सभी चुनावों के रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं। यह मतदान न केवल 2020 के पहले चरण से 8% अधिक है, बल्कि यह एक राजनीतिक पहेली भी पेश करता है: क्या यह रिकॉर्ड तोड़ टर्नआउट सत्ता के खिलाफ़ बदलाव की खुली घोषणा है, या फिर यह एक नई राजनीतिक गणित का परिणाम है?

वरिष्ठ पत्रकार और डेटा विश्लेषक इस उच्च मतदान के पीछे कई परतें देखते हैं, लेकिन दो कारक स्पष्ट रूप से उभरते हैं: एसआईआर (स्पेशल इंटेंसिव रिवीज़न) और महिला मतदाताओं का निर्णायक वोट बैंक।

एसआईआर का डर और ‘आधिकारिक उपस्थिति’

मतदाता सूची से लगभग 6% (47 लाख) मतदाताओं के नाम हटाए जाने की एसआईआर प्रक्रिया, जिसे ‘मृत, डिस्प्लेस और नॉन-एग्जिस्टिंग’ वोटर्स का छँटनी कहा गया, ने एक अनपेक्षित प्रभाव पैदा किया। जैसा कि विश्लेषकों का मानना है, इस प्रक्रिया ने मतदाताओं में एक ‘डर’ पैदा कर दिया।

सामाजिक कार्यकर्ता रूपेश के अनुसार, लोगों में अपनी आधिकारिक मौजूदगी साबित करने की उत्सुकता बढ़ी। वहीं डॉ. रंजन पांडे इस डर को कल्याणकारी योजनाओं से जोड़ते हैं: “अगर हमने वोट नहीं दिया तो कल्याणकारी योजनाओं से हमारा भुगतान कट जाएगा।” यह डर सिर्फ मुस्लिम समुदाय तक सीमित नहीं, बल्कि अति पिछड़ों में भी है, जो सरकार की योजनाओं के प्रमुख लाभार्थी हैं।

यह एक तीखी विडंबना है: मतदाताओं के नाम काटने की प्रशासनिक प्रक्रिया ने शेष बचे मतदाताओं को बूथ तक लाने में मदद की। यदि यह विश्लेषण सही है, तो यह लोकतंत्र में ‘मतदान’ को ‘नागरिक अधिकार’ से अधिक ‘कल्याणकारी योजना जारी रखने की शर्त’ में बदल देता है।

महिला वोट बैंक: नीतीश का अटूट कवच?

उच्च मतदान के ब्रेकअप में महिला मतदाताओं की हिस्सेदारी सबसे निर्णायक साबित होगी। डॉ. रंजन पांडे और कन्हैया भैल्लारी दोनों ही इस बात पर सहमत हैं कि महिला वोट बैंक बिहार में अन्य उत्तर भारतीय राज्यों की तुलना में सबसे मज़बूती से नीतीश कुमार से जुड़ा हुआ है।

जीविका (Jeevika), शराबबंदी, और लड़कियों के लिए साइकिल योजनाएँ—ये सब नीतीश कुमार की वो रणनीतियाँ रही हैं, जिन्होंने महिलाओं के बीच एक सशक्त ‘प्रो-इनकम्बेंसी’ (सत्ता समर्थक लहर) का निर्माण किया है। महिलाओं के खाते में सरकार द्वारा दिए गए दस हज़ार रुपए का ज़िक्र बताता है कि व्यक्तिगत आर्थिक लाभ मतदान व्यवहार का एक प्रमुख प्रेरक बन गया है।

यदि महिला वोटरों की भागीदारी बंपर रही है, तो यह एंटी-इनकम्बेंसी (सत्ता विरोधी लहर) के संभावित प्रभाव को कम कर सकती है, और नीतीश के लिए एक अभेद्य कवच का काम कर सकती है।

परिवर्तन का संकेत या प्रवासी मजबूरी?

परंपरागत रूप से, उच्च मतदान को ‘टर्नआउट फॉर चेंज’ यानी बदलाव की संभावना माना जाता है। सामाजिक कार्यकर्ता रूपेश भी ज़मीन पर युवाओं में बदलाव की चाहत देखते हैं। मगर राजनीतिक सक्रियता को प्रवासी मतदाताओं के धान की कटाई या छठ पर्व के समय अपने पैतृक घर पर रुकने की मजबूरी से भी जोड़ा जा रहा है।

राजनीतिक दलों की सक्रियता की बात करें तो, बीजेपी का अख़बारों में विज्ञापन और आरजेडी का डोर-टू-डोर कैंपेन, दोनों ने मतदाताओं को सक्रिय किया। लेकिन इस पूरे विश्लेषण का सार यही है कि बिहार में ‘बदलाव’ का संकेत अस्पष्ट है।

क्या यह उत्साह एंटी-इनकम्बेंसी (बदलाव की चाहत) की वजह से है, या एसआईआर प्रेरित भय (योजनाएं न कट जाएं) की वजह से? परिणाम जो भी हो, यह रिकॉर्ड मतदान बिहार की राजनीति में जाति, कल्याणकारी लाभ और आधिकारिक डर के जटिल मिश्रण को उजागर करता है।

“बिहार में रिकॉर्ड मतदान, बदलाव का संकेत हो न हो; पर यह ज़रूर साबित करता है कि जब ‘कल्याणकारी भय’ हो, तो वोट डालना ‘अधिकार’ नहीं, ‘सरकारी मजबूरी’ बन जाता है।”
(प्रदीप शुक्ल: पब्लिक फोरम ब्यूरो, बिहार)

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