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भगत सिंह के सपनों का भारत: अधूरी लड़ाई और आज की चुनौतियां

भिलाई (पब्लिक फोरम)। आज, जब देश शहीद-ए-आज़म भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की 94वीं शहादत दिवस और क्रांतिकारी कवि अवतार सिंह पाश की 37वीं शहादत दिवस मना रहा है, भिलाई के जुबली पार्क में एक ऐसी गोष्ठी हुई, जिसने न सिर्फ इन वीरों को याद किया, बल्कि उनके सपनों को आज के संदर्भ में जीवंत कर दिखाया। ऑल इंडिया सेंट्रल काउंसिल ऑफ ट्रेड यूनियंस (ऐक्टू) ने “भगत सिंह और हमारा समय” विषय पर इस खास आयोजन को सेक्टर-6 में आयोजित किया। यह गोष्ठी केवल एक सभा नहीं थी, बल्कि एक भावनात्मक और वैचारिक जागृति का मंच थी, जो हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हम वाकई भगत सिंह के सपनों के भारत की ओर बढ़ रहे हैं? 

माल्यार्पण और भावुक शुरुआत 
गोष्ठी की शुरुआत शहीद भगत सिंह की तस्वीर पर माल्यार्पण से हुई। उनके बलिदान को याद करते हुए सभी ने एक मिनट का मौन रखा। हवा में सन्नाटा था, लेकिन हर दिल में देशभक्ति और सम्मान की गूंज साफ सुनाई दे रही थी। इसके बाद भगत सिंह पर लिखी एक कविता का पाठ हुआ, जिसने माहौल को और भावुक बना दिया। ये पल न सिर्फ शहीदों के प्रति श्रद्धांजलि था, बल्कि उनकी सोच को फिर से जीने का संकल्प भी था। 

अधूरा है भगत सिंह का सपना 
वक्ताओं ने गोष्ठी में कहा कि भगत सिंह ने जिस भारत का सपना देखा था—जहां न शोषण हो, न सांप्रदायिक नफरत, न गरीबी और न ही साम्राज्यवादी दबदबा—वह आज भी अधूरा है। उन्होंने केंद्र की मोदी सरकार पर निशाना साधते हुए कहा कि आज संविधान, स्वतंत्रता संग्राम की विरासत और जनता के अधिकारों पर लगातार हमले हो रहे हैं। भगत सिंह के लेखों जैसे “मैं नास्तिक क्यों हूँ?”, “सांप्रदायिक दंगे और उसका इलाज”, “अछूत समस्या”, “हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी का घोषणा पत्र” और उनकी जेल डायरी पर चर्चा करते हुए वक्ताओं ने मौजूदा हालात से जोड़ा। उन्होंने बताया कि भगत सिंह ने सांप्रदायिकता को देश के लिए सबसे बड़ा खतरा माना था, और आज भी यह जहर समाज को बांट रहा है। 

साहस और विचारों की ताकत 
वक्ताओं ने भगत सिंह के साहस और वैचारिक स्पष्टता की मिसाल दी। उन्होंने कहा कि एक सदी पहले 23 साल की उम्र में फांसी को गले लगाने वाले भगत सिंह ने हमें आजादी तो दिलाई, लेकिन उनकी असली लड़ाई शोषण और अन्याय के खिलाफ थी। आज जब कॉरपोरेट लूट, फासीवादी हमले और सांप्रदायिक नफरत देश को कमजोर कर रहे हैं, भगत सिंह की वह ताकत हमें फिर से चाहिए। यह सुनकर हर श्रोता के मन में एक सवाल उठा—क्या हम उनके बलिदान के असली मायने समझ पाए हैं? 

संघ-भाजपा पर दोमुंहा रवैया 
गोष्ठी में संघ और भाजपा की नीतियों पर भी गहरी चोट की गई। वक्ताओं ने कहा कि एक तरफ ये संगठन भगत सिंह की लोकप्रियता का फायदा उठाने के लिए उनके नाम पर बड़े-बड़े आयोजन करते हैं, वहीं दूसरी तरफ उनके विचारों से उन्हें नफरत है। भगत सिंह ने धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद और समानता की बात की थी, जो संघ के विचारों से बिल्कुल उलट है। वक्ताओं ने इसे दोमुंहापन करार देते हुए कहा कि भगत सिंह के नाम का इस्तेमाल तो होता है, लेकिन उनकी सोच को दबाने की कोशिश की जाती है। यह सुनकर लगा कि शहीदों की विरासत को बचाने की जिम्मेदारी हम सबकी है। 

 इस गोष्ठी में कैलाश बनवासी, घनश्याम त्रिपाठी, श्यामलाल साहू, अवध बिहारी सिंह, आर.पी. गजेंद्र, दीनानाथ प्रसाद, बी.एम. सिंह, वासुकी प्रसाद, बृजेन्द्र तिवारी, आर.पी. चौधरी, लीलाधर, शिवकुमार प्रसाद, के.पी. सिंह, देवानंद चौहान जैसे लोग शामिल हुए। सेंटर ऑफ स्टील वर्कर्स (ऐक्टू) के महासचिव बृजेन्द्र तिवारी ने इस आयोजन को सफल बनाने में अहम भूमिका निभाई। 

एक संदेश, एक उम्मीद 
यह गोष्ठी सिर्फ चर्चा का मंच नहीं थी, बल्कि एक भावनात्मक अपील थी कि भगत सिंह के सपनों को पूरा करने के लिए हमें जागना होगा। उनके बलिदान की कीमत तब चुकती है, जब हम सांप्रदायिकता, शोषण और अन्याय के खिलाफ एकजुट हों। आज जब देश आर्थिक और सामाजिक चुनौतियों से जूझ रहा है, भगत सिंह की सोच हमें रास्ता दिखा सकती है। यह आयोजन हर उस इंसान के लिए एक प्रेरणा है, जो अपने देश को बेहतर बनाना चाहता है। 

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