छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले में 1970 के दशक के 5 वर्ष पहले 1965 में भारत एल्युमिनियम कंपनी लिमिटेड (बालको) की आधार शिला रखी गई। कंपनी को चलाने के लिए बड़े पैमाने में देश के कोने कोने से लोगो की भर्ती हुई। उनके रहने के लिए आवासीय परिसर तैयार किया गया। हॉस्पिटल बने, स्कूल खुले इस तरह एक नगर खड़ा हुआ जिसका नामकरण कंपनी के नाम पर ही हुआ, बालको नगर। बालको मतलब भारत एल्युमिनियम कंपनी, देश के हर जगह से लोग आए।
कोई बंगाल से आया, कोई गुजरात से, तो कोई महाराष्ट्र से। कोई उत्तर भारत से आया। इस प्रकार देश के कोने-कोने से लोग यहां पर आए। उन सब की अपनी अपनी संस्कृति थी, तीज त्योहार थे। जिनको मनाने का सिलसिला शुरू हुआ। बंगाली समाज ने दुर्गा पूजा की शुरुआत की, तो दक्षिण भारतीयों ने भगवान अयप्पा पूजा की, उत्तर भारतियों ने सूर्य उपासना के पर्व की शुरुआत की।
मंदिर बने, गुरुद्वारा बने, मस्जिद बने। इस तरह बालको एक मिनी भारत बना। इन सबको एकता के सूत्र में बांधने के लिए भगवान राम की लीला की शुरुआत हुई। क्वार की नवरात्रि में पूरे दस दिन तक चलने वाली राम लीला के दौरान मेला लगता है। जिसमे सभी धर्म के लोग क्या हिंदू, क्या मुस्लिम, सभी अपनी दुकानें लगाते है। दस दिन तक सबका व्यवसाय चलता है।
आज आधी सदी बीत गई। जो कर्मचारी बालको की शुरुआत मे यहा आए थे उनमें से अधिकांश रिटायर्ड होने के बाद यहां से चले गए। लेकिन उनके द्वारा शुरू की गई संस्कृति आज भी चल रही है परंतु वो रोनक नही जो पुरानी पीढ़ी के समय हुआ करती थी। ये दस दिन तक चलने वाली रामलीला चार दिन में सिमटा दी गई। मेला खत्म हो गया। जहां गरीब तबका दुकान लगाता था वहा बड़े अफसरों के वाहनों के लिए पार्किंग स्थल बन गए। ये सब बदलाव इस बार दिखा।
बंगाली समाज के अधिकांश बालको से बाहर चले गए उनके दुर्गा पंडाल में जहा भी लगी रहती थी। अब दोपहर को भीड़ खत्म हो गई। इसी तरह दक्षिण भारतीयों के भी लोग रिटायर्ड होने बाद बाहर चले गए। उनके तीज त्योहारों में भी असर पड़ा। बचे उतर भारतीय तो इनका एक बड़ा तबका अभी यही हैं। मजदूरी के लिए उत्तर भारतीयों का आना अभी भी जारी है। ये तबका मजदूरी भी करता है और छोटा मोटा व्यवसाय भी करता है।
लिहाजा ये वर्ग ही बालको में दिखता है जो अपनी संस्कृति को थामे हुए है। रही बात छत्तीसगढ़ी संस्कृति की तो वो आस पास के ग्रामों में परंपरा गत रूप से अपने स्तर पर मनाई जाती है। लेकिन बालको जब सरकार के हाथो में था तो छत्तीसगढ़ की संस्कृति को पहचान देने के लिए बालको के स्थापना दिवस (27 नवंबर) पर छत्तीसगढ़ लोककला के तीन दिन तक रंगारंग छत्तीसगढ़ी कार्यक्रम आयोजित होते थे। जिसे निजी हाथों में जाने के बाद कुछ वर्ष तक तो ले देके चला, फिर बाद में इसे बंद कर दिया।
इसका भी कोई खास विरोध नहीं हुआ और इस बार बालको पर काबिज वेदांता कंपनी ने रामलीला पर भी अंकुश लगा दिया। इसका भी जैसा विरोध होना चाहिए था नही हुआ, हल्का सा विरोध जरूर हुआ। रामलीला भी अब मात्र चार दिन की रह गई। मतलब यह कि बालको में पुराने लोगो ने जिस कार्य, व्यवहार और सद्भावना संस्कृति की स्थापना किया, जिस भव्यता के साथ शुरुआत की थी, अब वह सिमटती जा रही है और भावी पीढ़ी इसे मूक दर्शक बनकर बस निहार रही है। कहीं बालको की ये पुरानी परंपराएं और उत्सव केवल इतिहास बन कर न रह जाए।
-अरविंद पांडे
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