कोरबा, छत्तीसगढ़ (पब्लिक फोरम)। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव के एक हालिया बयान ने भारतीय राजनीति में हलचल मचा दी है। बालाघाट में दिए गए उनके उस बयान, जिसमें उन्होंने कहा कि “लाल सलाम करने वालों को इस धरती पर जीने का हक नहीं है,” की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआई) की कोरबा जिला परिषद ने कड़े शब्दों में निंदा की है। सीपीआई ने इसे न केवल लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सीधा हमला बताया है, बल्कि भारतीय संविधान की मूल भावना के भी खिलाफ करार दिया है। यह घटनाक्रम ऐसे समय में सामने आया है जब देश में वैचारिक स्वतंत्रता और राजनीतिक सहिष्णुता पर बहस तेज हो गई है।
विचारधारा पर वार: क्या वैचारिक मतभेद अब ‘देशद्रोह’ है?
सीपीआई का मानना है कि मुख्यमंत्री का यह बयान दर्शाता है कि भाजपा शासित सरकारें विचारधारा से इतना डरती हैं कि अब वे वैचारिक मतभेद को भी ‘देशद्रोह’ और ‘आतंकवाद’ के दायरे में लाना चाहती हैं। पार्टी ने स्पष्ट किया है कि मुख्यमंत्री का यह वक्तव्य सिर्फ नक्सलवाद के खिलाफ नहीं था, जैसा कि वे दिखाने की कोशिश कर रहे हैं, बल्कि यह समूची वामपंथी विरासत, उसके प्रतीकों और जन आंदोलनों पर सीधा हमला है। इस बयान के जरिए लाखों किसानों, मजदूरों, छात्रों, लेखकों, कलाकारों और उन क्रांतिकारी शहीदों का अपमान किया गया है, जिन्होंने “लाल सलाम” के नाम पर संघर्ष और बलिदान किया है। यह बयान उन करोड़ों भारतीयों की भावनाएं आहत करता है जो समानता और न्याय के लिए संघर्ष करते आए हैं।
‘लाल सलाम’ का अर्थ: शोषण के विरुद्ध एक पुकार
अक्सर विवादों में रहने वाला “लाल सलाम” वास्तव में क्या है? सीपीआई के अनुसार, “लाल सलाम” कोई गाली या मात्र एक नारा नहीं है, बल्कि यह शोषण के विरुद्ध एक पुकार है। यह उस मजदूर की आहट है जिसने अपनी मेहनत से पूंजी का पहिया चलाया, और उस किसान की आवाज है जिसने अपनी मिट्टी को खून से सींचा। इस नारे की जड़ें 19वीं सदी के श्रमिक आंदोलनों में हैं, खासकर शिकागो के मजदूर आंदोलन में। 1886 में 1 मई को आठ घंटे काम के अधिकार के लिए सैकड़ों मजदूरों ने अपनी जानें दीं। उनका खून धरती पर गिरा और उसी लाल रंग को दुनिया भर के मेहनतकशों ने सम्मान की सलामी बना दिया – “लाल सलाम”।
भारत में भी यह नारा उन किसानों और मजदूरों की शहादत का प्रतीक रहा है जिन्होंने अंग्रेजी साम्राज्यवाद, जमींदारी प्रथा, सामंतवाद और फिर नवउदारवादी नीतियों के खिलाफ संघर्ष किया। तेलंगाना के किसानों का विद्रोह, तेभागा आंदोलन से लेकर सिंगूर और लौंहडीगुड़ा तक, और हालिया किसान आंदोलन – हर जगह “लाल सलाम” एक चेतना का प्रतीक रहा है, न कि किसी सशस्त्र हिंसा या आतंक का। यह उन संघर्षों की याद दिलाता है जिन्होंने भारत को एक समतावादी समाज बनाने का सपना देखा।
फासीवाद की पराकाष्ठा? मुख्यमंत्री के बयान पर गंभीर सवाल
एक संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति द्वारा सार्वजनिक मंच से यह कहना कि ‘लाल सलाम करने वालों को जीने का अधिकार नहीं है’, सीपीआई के अनुसार फासीवाद की पराकाष्ठा है। यह एक तरह से राजनीतिक हिंसा को वैध ठहराने का प्रयास है। यह सिर्फ विचारों का दमन नहीं, बल्कि उन लाखों नागरिकों को धमकी है जो समता, न्याय और बराबरी की राजनीति में विश्वास रखते हैं। यह बयान देश में बढ़ते असहिष्णुता के माहौल को भी दर्शाता है और लोकतांत्रिक मूल्यों पर गंभीर सवाल खड़े करता है।
सीपीआई ने मुख्यमंत्री से तत्काल सार्वजनिक माफी मांगने की मांग की है और केंद्र सरकार से आग्रह किया है कि वे इस बयान का संज्ञान लें। पार्टी का कहना है कि भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य है, जहां हर नागरिक को अपनी विचारधारा रखने और उसे व्यक्त करने का संवैधानिक अधिकार है।
सीपीआई की प्रमुख मांगें:
* मुख्यमंत्री मोहन यादव को अपना बयान वापस लेना चाहिए और सार्वजनिक रूप से माफी मांगनी चाहिए।
* राज्यपाल इस बयान का संज्ञान लेकर मुख्यमंत्री से स्पष्टीकरण मांगें।
* मानवाधिकार आयोग इस पूरे मामले की जांच करे कि क्या यह बयान संवैधानिक मर्यादाओं का उल्लंघन करता है।
* सभी जनतांत्रिक, प्रगतिशील और वामपंथी संगठनों से अपील है कि वे इस बयान का मिलकर विरोध करें और “लाल सलाम” को जन अधिकार के रूप में पुनः प्रतिष्ठित करें।
हमारा संकल्प: ‘लाल सलाम’ झुकेगा नहीं!
सीपीआई ने स्पष्ट किया है कि “लाल सलाम” का नारा दबेगा नहीं। उसे जितना रोका जाएगा, वह उतना ही गूंजेगा – खेतों, खदानों, कारखानों, विश्वविद्यालयों, झुग्गियों और संसद तक। यह नारा किसी पार्टी का नहीं, यह मेहनतकश अवाम की चेतना है। और जब तक शोषण है, यह नारा रहेगा। पार्टी का आरोप है कि मुख्यमंत्री का बयान यह दर्शाता है कि भाजपा सिर्फ अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों और मुसलमानों की नहीं, बल्कि वामपंथियों की भी दुश्मन है। वह हर उस विचारधारा से डरती है जो जनता को अधिकारों के लिए लड़ना सिखाती है।
सीपीआई ने अपने सभी कार्यकर्ताओं, सहयोगी संगठनों और नागरिक समाज से अपील की है कि वे सड़कों पर उतरें, सोशल मीडिया पर अभियान चलाएं और मुख्यमंत्री को बताएं कि – “लाल सलाम झुकेगा नहीं, झुकाने वालों को झुकना होगा।” यह संघर्ष केवल एक बयान के विरोध का नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों और वैचारिक स्वतंत्रता की रक्षा का भी है।
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