कोरबा (पब्लिक फोरम)। छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले में कोयला खदानों के लिए अपनी जमीन और आजीविका गंवाने वाले भू-विस्थापित परिवार एक बार फिर अपने हक की लड़ाई के लिए सड़कों पर उतरने को तैयार हैं। छत्तीसगढ़ किसान सभा और भू-विस्थापित रोजगार एकता संघ के नेतृत्व में हजारों प्रभावित ग्रामीणों ने 22 अप्रैल को साउथ ईस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड (एसईसीएल) की कुसमुंडा और गेवरा मेगा प्रोजेक्ट खदानों को पूरी तरह बंद करने का ऐलान किया है। रोजगार, पुनर्वास, मुआवजा और खमहरिया की जमीन वापसी सहित अपनी मांगों को लेकर भू-विस्थापितों ने हड़ताल को ऐतिहासिक बनाने का संकल्प लिया है। यह आंदोलन न केवल उनकी पीड़ा और संघर्ष को उजागर करता है, बल्कि विकास के नाम पर हुए अन्याय की गहरी कहानी भी बयां करता है।
दशकों पुराना दर्द, अनसुनी मांगें
कोरबा, जो भारत का प्रमुख कोयला उत्पादक जिला है, अपनी चमकती खदानों के पीछे भू-विस्थापितों की अनगिनत दुखद कहानियां छिपाए हुए है। 1978 से 2004 के बीच एसईसीएल ने कुसमुंडा, गेवरा और दीपका क्षेत्रों में हजारों हेक्टेयर जमीन अधिग्रहित की। इन जमीनों पर पीढ़ियों से खेती करने वाले आदिवासी और किसान परिवारों को विकास के नाम पर विस्थापित कर दिया गया। वादा किया गया था कि उन्हें रोजगार, पुनर्वास और उचित मुआवजा दिया जाएगा, लेकिन दशकों बाद भी सैकड़ों परिवार बुनियादी सुविधाओं, रोजगार और अपने हक से वंचित हैं।
किसान सभा के संयुक्त सचिव प्रशांत झा ने गहरे दुख के साथ कहा, “विकास के नाम पर हमारी जमीन छीनी गई, हमारे सपने तोड़े गए। आज भी भू-विस्थापित परिवार रोजगार और पुनर्वास के लिए दर-दर भटक रहे हैं। सरकार और कॉरपोरेट की नीतियां गरीबों की आजीविका छीन रही हैं, जबकि कुछ लोग मालामाल हो रहे हैं। अब हमारे पास संघर्ष के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा।”
हड़ताल की प्रमुख मांगें
भू-विस्थापितों ने अपनी मांगों को स्पष्ट करते हुए सरकार और एसईसीएल प्रबंधन को कड़ा संदेश दिया है। उनकी मांगें न केवल उनकी बुनियादी जरूरतों को दर्शाती हैं, बल्कि उनके अधिकारों और सम्मान की पुकार भी हैं:
1. रोजगार का हक: 1978 से 2004 तक जिनकी जमीन अधिग्रहित की गई, प्रत्येक खातेदार को तत्काल स्थायी रोजगार दिया जाए। लंबित रोजगार प्रकरणों का जल्द निराकरण हो।
2. पुनर्वास की गारंटी: सभी भू-विस्थापित परिवारों को पुनर्वास गांवों में बसाया जाए और वहां बिजली, पानी, स्कूल, अस्पताल जैसी मूलभूत सुविधाएं मुहैया कराई जाएं।
3. खमहरिया की जमीन वापसी: खमहरिया गांव की जमीन, जहां किसान पीढ़ियों से खेती कर रहे हैं, को जबरन छीनने की प्रक्रिया रोकी जाए और जमीन किसानों को वापस की जाए।
4. मुआवजे में पारदर्शिता: नए-पुराने घरों के नाम पर परिसंपत्तियों के मूल्यांकन में कटौती बंद हो और पूर्ण मुआवजा दिया जाए।
5. आउटसोर्सिंग में प्राथमिकता: एसईसीएल के आउटसोर्सिंग कार्यों में भू-विस्थापित परिवारों के बेरोजगार युवाओं को 100% रोजगार दिया जाए।
6. कृषि भूमि की बहाली: कोरबा के सुराकछार बस्ती में फसल क्षति का मुआवजा दिया जाए और भू-धंसान प्रभावित जमीन को समतल कर खेती के योग्य बनाया जाए।
जमीन छिनने का दर्द: एक मानवीय त्रासदी
कोरबा के भू-विस्थापित परिवारों की कहानी केवल आंकड़ों तक सीमित नहीं है; यह उनके टूटे सपनों, बिखरे परिवारों और खोई पहचान की कहानी है। गेवरा के शंकर कंवर ने आंसुओं के साथ कहा, “हमारी जमीन हमारी मां थी। उसे छीनकर हमें बेसहारा कर दिया गया। न रोजगार मिला, न घर। हम अपने हक के लिए आखिरी सांस तक लड़ेंगे।” दीपका के पवन यादव ने भी गुस्से में कहा, “विकास किसके लिए? हम तो आज भी भूख और बेरोजगारी से जूझ रहे हैं।”
किसान सभा के नेता दीपक साहू और जय कौशिक ने बताया कि खमहरिया के किसानों की जमीन को प्रशासन और प्रबंधन के दबाव में जबरन छीना जा रहा है। “यह जमीन हमारी आजीविका का आधार है। इसे छीनना हमारे अस्तित्व को मिटाने जैसा है,” साहू ने कहा। भू-विस्थापित रोजगार एकता संघ के दामोदर श्याम और रेशम यादव ने भी प्रबंधन की उदासीनता पर सवाल उठाए। “1978 से वादे किए जा रहे हैं, लेकिन आज तक सैकड़ों परिवारों को न रोजगार मिला, न पुनर्वास। अब हम चुप नहीं रहेंगे,” श्याम ने कहा।
हड़ताल की तैयारी: गांव-गांव में एकजुटता
22 अप्रैल की हड़ताल को ऐतिहासिक बनाने के लिए भू-विस्थापित गांव-गांव में बैठकें कर रहे हैं। दामोदर श्याम, रेशम यादव, सुमेंद्र सिंह कंवर, जय कौशिक, पवन यादव, रघुनंदन, कृष्ण कुमार, होरीलाल, डूमन, उमेश, उत्तम, गणेश, मुनीराम और चंद्र शेखर जैसे नेताओं के साथ हजारों ग्रामीण इस आंदोलन में शामिल हो रहे हैं। इन बैठकों में न केवल मांगों पर चर्चा हो रही है, बल्कि एकजुटता और संघर्ष की भावना को भी मजबूत किया जा रहा है।
हड़ताल के दौरान कुसमुंडा और गेवरा खदानों में कोयला उत्पादन और परिवहन पूरी तरह ठप करने की योजना है। यह कोल इंडिया के लिए बड़ा झटका हो सकता है, क्योंकि ये खदानें देश के कोयला उत्पादन का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। लेकिन भू-विस्थापितों का कहना है कि जब तक उनकी मांगें पूरी नहीं होतीं, वे पीछे नहीं हटेंगे।
विकास का अर्धसत्य: कोरबा की सच्चाई
कोरबा का उदाहरण विकास के उस अर्धसत्य को उजागर करता है, जहां एक तरफ कोयला खदानें और बिजली संयंत्र देश की प्रगति का प्रतीक हैं, वहीं दूसरी तरफ विस्थापित परिवार गरीबी, उपेक्षा और अन्याय का शिकार हैं। 2018 के जिला सांख्यिकी विभाग के आंकड़ों के अनुसार, कोरबा में लकड़ी, सूती वस्त्र और चमड़ा जैसे स्थानीय उद्यम बंद हो चुके हैं, जिससे वैकल्पिक रोजगार के अवसर खत्म हो गए हैं।
इंटरनेशनल फोरम फॉर एनवायरनमेंट, सस्टेनेबिलिटी एंड टेक्नोलॉजी (आईफॉरेस्ट) के एक अध्ययन के अनुसार, कोरबा में 41% लोग गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं, और 32% से अधिक आबादी स्वास्थ्य, शिक्षा और बुनियादी सुविधाओं से वंचित है। यह आंकड़े उन नीतियों की विफलता को दर्शाते हैं, जो विकास के नाम पर गरीबों को और गरीब बना रही हैं।
भू-विस्थापितों का यह आंदोलन न केवल कोरबा, बल्कि पूरे देश में विकास और विस्थापन के सवाल को फिर से उठा रहा है। क्या सरकार और एसईसीएल उनकी मांगों को गंभीरता से लेंगे, या यह संघर्ष और तेज होगा? 22 अप्रैल की हड़ताल इस सवाल का जवाब दे सकती है। लेकिन एक बात साफ है—कोरबा के भू-विस्थापित अब चुप नहीं रहेंगे। उनकी आवाज, उनका दर्द और उनका संघर्ष अब हर उस व्यक्ति तक पहुंचेगा, जो न्याय और मानवता में विश्वास रखता है।
छत्तीसगढ़ किसान सभा और भू-विस्थापित रोजगार एकता संघ से जुड़ने या अपनी कहानी साझा करने के लिए, स्थानीय कार्यालयों से संपर्क करें।
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