व्यंग्य : राजेंद्र शर्मा
ये विपक्ष वाले किस दुनिया में जी रहे हैं। इन्हें क्या लगता है कि इनके यह शोर मचाने से कि खाने-पीने की चीजों पर अंगरेजी राज के जाने के बाद से कोई टैक्स नहीं लगा था, मोदी जी निम्मो ताई से कहकर चावल, आटे, दही, लस्सी वगैरह पर लगी जीएसटी हटवा देंगे या कम से कम अस्पताल के कमरे या शवदाहगृह वाली जीएसटी तो कम करा ही देंगे! हर्गिज नहीं। खाने-पीने की चीजों पर अंगरेजी राज वाले टैक्स की वापसी का शोर विपक्ष वाले चाहे जितना मचा लें, मोदी जी ऐसे शोर से डरने वालों में से नहीं हैं। छप्पन इंच की छाती सिर्फ दिखाने के लिए नहीं, कड़े फैसले लेने के लिए है।
जब छप्पन इंच से प्यार किया है, तो कड़े फैसलों से डरना क्या? पहले नोटबंदी, फिर कश्मीर बंदी, फिर कोरोना वाली देशबंदी, फिर कृषि कानून और अब…! हम तो कहेंगे कि आटे, चावल वगैरह पर, रुपये पर पांच पैसे की जीएसटी या अस्पताल के कमरे या शवदाहगृह की सेवाओं पर जीएसटी तो, उस लेवल का कड़ा कदम है भी नहीं। मोदी जी को कोई सचमुच का कड़ा कदम सोचना पड़ेगा। वह भी जल्दी ही। पब्लिक की झेलने की प्रैक्टिस बनी रहनी चाहिए। वक्त-वक्त पर कड़े फैसले होते रहने चाहिए। प्रैक्टिस छूट जाए, तो पब्लिक की आदत बिगड़ जाती है और मामूली कदम पर भी कड़ा-कड़ा का शोर मचाने लगती है।
पर इस नयी वाली जीएसटी से कोई यह न समझे कि मोदी जी पब्लिक की जेब काटकर अपनी सरकार की तिजोरी भरना चाहते हैं। दुनिया के सबसे लोकप्रिय नेता के बारे में ऐसा सोचना भी गुनाह है। मोदी जी की ऐसी नीयत हर्गिज नहीं है। बल्कि मोदी जी की निगाह, जीएसटी के पैसे पर तो है ही नहीं। हां! निम्मो ताई की बात ही सही होगी कि उन लोगों की निगाह तो करों की चोरी पर है। आटे, चावल के छोटे पैकेट पर टैक्स नहीं था, तो जीएसटी की बहुत चोरी हो रही थी। अब सब पर टैक्स लग गया यानी बिना टैक्स की सलामी के निकलने का यानी चोरी का रास्ता ही बंद हो गया।
यह लॉजिक अगर आसानी से समझ में नहीं भी आए, तब भी विरोधियों को यह कहकर कम से कम मोदी जी की सरकार की नीयत पर सवाल नहीं उठाना चाहिए कि वह पब्लिक की जेब काटकर, अपनी तिजोरी भर रही है। रुपये में पांच पैसे, और सरकार की तिजोरी—कुछ भी! पांच पैसे से तो अडानी जी की मुंबई हवाई अड्डे की खरीद का भी परता नहीं पड़ेगा। सोचने की बात है कि बिल गेट्स को हटाकर, अडानी जी को दुनिया के चौथे सबसे अमीर के आसन पर बैठाने वाले, क्या इंडियन पब्लिक की जेब की चिल्लर पर नजर रखेंगे?
हां!, मोदी जी को पब्लिक को रेबड़ियां बांटा जाना पसंद नहीं है। सिर्फ नापसंद ही नहीं, अब तो मोदी जी को रेबड़ियां बांटने से नफरत सी हो गयी है। बेशक, उन्हें दूसरों के रेबड़ियां बांटने से नफरत है। लेकिन, अब यानी पिछली बार वाले ऐसेंबली चुनाव के बाद से तो उनका मन खुद रेबड़ियां बांटने से भी ऊब गया है। वैसे सच्ची बात ये है कि पब्लिक को रेबड़ियां बांटना मोदी जी को कभी भी पसंद नहीं था। पर सत्तर साल से चली आती रेबड़ी बांटने के कल्चर को भी मोदी जी एकाएक कैसे बदल देते। आखिर, पुरानी कल्चर वाली पार्टी से हैं। आठ साल उन्होंने रेबड़ियां बांटकर भी देख लिया। पर अब और नहीं।
पब्लिक को रेबड़ियां अब और नहीं। आखिरकार, पब्लिक को डायबटीज से भी तो बचाना जरूरी है। पब्लिक कहां कोई हैल्थ एडवाइज सुनती है, वह तो रेबड़ी से ही पेट भरने पर तुल जाती है। सो जनहित में रेबड़ियां बांटना बंद होना ही चाहिए। जाहिर है कि जब मोदी जी खुद पब्लिक को रेबड़ियां नहीं बांटेंगे, तो दूसरों को रेबड़ियां भला क्यों बांटने देंगे?
अब प्लीज ‘हम दो हमारे दो’ के रिश्ते को, रेबड़ियां बांटने के मामले से मिलाने की गलती कोई नहीं करे। अनुपात भी तो कोई चीज होती है। कहां कंकड़ और कहां पहाड़। हर बांटी जाने वाली चीज रेबड़ी नहीं होती है। कहां पांच किलो अनाज का पीएम की तस्वीर वाला थैला और कहां हवाई अड्डे से लेकर खान और जंगल तक, अदृश्य पैकिंग में!
लेकिन, दही-छाछ वगैरह पर जीएसटी को, रेबड़ी बांटने से मोदी जी की नफरत से हर्गिज नहीं जोड़ा जाए। बेशक यह ऊपर-ऊपर से देखने में उल्टी रेबड़ी का मामला लग सकता है यानी पब्लिक को रेबड़ी देने के बजाए, उसके भिखारी के कटोरे में से चिल्लर चुराने का मामला। पर वास्तव में इसका रेबड़ी-विरोध तो क्या, रेबड़ी से भी कोई संबंध नहीं है। सच पूछिए तो इसका रुपये-पैसे तक से कोई संबंध नहीं है। राम राज्य लाने वाले, ऐसी तुच्छ चिंताओं से फैसले नहीं लेते हैं। बाकी बहुत सी चीजों की तरह, इसका भी संबंध आज़ादी के अमृत काल से है। आज़ादी का अमृत काल आ रहा है, इसीलिए खाने-पीने की चीजों पर अंगरेजी राज वाला टैक्स वापस लाया जा रहा है। और यह तो शुरूआत है। आगे-आगे देखिए, वापस आता है क्या-क्या?
और प्लीज इतने भोलेपन की एक्टिंग बंद करें कि आज़ादी के अमृत काल में, टुकड़ों-टुकड़ों में अंगरेजी राज की वापसी का लॉजिक ही समझ से परे है। बात एकदम सिंपल है। भारतीय परंपरा में, जीवन को चार अवस्थाओं या आश्रमों में बांटकर देखा जाता है। हर अवस्था के पच्चीस साल। बाल्यावस्था, गृहस्थ तथा वानप्रस्थ आश्रम के 75 साल पूरे होने के बाद, एक संन्यास ही बचता है। अब संन्यास कहो तो, मार्गदर्शक मंडल कहो तो, अमृतकाल कहो तो, मतलब एक ही है–रिटायरमेंट और वह भी अग्निवीर वाला यानी बिना पेंशन का। आज़ादी का अमृतकाल नाम राष्ट्रभक्तों ने बहुत सोच-समझकर दिया है। देश जैसे-जैसे आज़ादी के अमृतकाल में डूबता जाएगा यानी आज़ादी को अग्निवीर बनाया जायेगा, वैसे-वैसे अंगरेजी राज वापस आएगा।
(व्यंग्य स्तंभ के लेखक वरिष्ठ पत्रकार और ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)
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