लखनऊ (पब्लिक फोरम)। उत्तर प्रदेश में सामाजिक समरसता को बढ़ावा देने और दशकों से चली आ रही जातिगत भेदभाव की गहरी जड़ों को खत्म करने की दिशा में योगी आदित्यनाथ सरकार ने एक ऐतिहासिक और साहसिक कदम उठाया है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक महत्वपूर्ण आदेश का पालन करते हुए, राज्य सरकार ने पुलिस रिकॉर्ड, सरकारी दस्तावेजों और सार्वजनिक स्थानों पर किसी भी व्यक्ति की जाति के उल्लेख पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया है। इसके साथ ही, प्रदेश में किसी भी तरह की जाति आधारित रैलियों और सम्मेलनों के आयोजन पर भी रोक लगा दी गई है।
यह निर्णय उस समय आया है जब राज्य में पंचायत चुनावों की सरगर्मियां तेज हैं और आगामी विधानसभा चुनावों की रणनीतियां बननी शुरू हो गई हैं।माना जा रहा है कि इस फैसले का उत्तर प्रदेश की जाति-आधारित राजनीति पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा।
क्या है सरकार का नया आदेश?
कार्यवाहक मुख्य सचिव दीपक कुमार द्वारा जारी किए गए विस्तृत दिशा-निर्देशों के अनुसार, अब पुलिस एफआईआर, गिरफ्तारी मेमो, वारंट या किसी भी अन्य सरकारी दस्तावेज में किसी व्यक्ति के नाम के साथ उसकी जाति का उल्लेख नहीं किया जाएगा। पहचान के लिए अब आरोपी के माता-पिता दोनों का नाम दर्ज करना अनिवार्य होगा। यह कदम लैंगिक समानता को भी बढ़ावा देगा, जैसा कि हाईकोर्ट ने अपने आदेश में सुझाव दिया था।
इसके अलावा, थानों के नोटिस बोर्ड, पुलिस वाहनों और अन्य सार्वजनिक स्थानों पर लगे जाति-आधारित प्रतीकों, नारों या साइनबोर्ड को तत्काल हटाने का निर्देश दिया गया है। सरकार ने यह भी स्पष्ट किया है कि सोशल मीडिया पर भी जाति का महिमामंडन करने वाली या नफरत फैलाने वाली सामग्री पर आईटी एक्ट के तहत सख्त कार्रवाई की जाएगी।
हालांकि, अनुसूचित जाति/जनजाति (SC/ST) अत्याचार निवारण अधिनियम से संबंधित मामलों में कानूनी आवश्यकता के कारण जाति का उल्लेख करने की छूट दी गई है। इन नए नियमों को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए पुलिस नियमावली और मानक संचालन प्रक्रिया (SOP) में भी आवश्यक संशोधन किए जाएंगे।
हाईकोर्ट का वह ऐतिहासिक फैसला
इस पूरे मामले की जड़ इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति विनोद दिवाकर की एकलपीठ द्वारा 16 सितंबर, 2025 को सुनाया गया एक ऐतिहासिक फैसला है। प्रवीण छेत्री नामक व्यक्ति द्वारा दायर एक याचिका पर सुनवाई करते हुए, जिसमें पुलिस द्वारा एफआईआर में उसकी जाति का उल्लेख करने पर आपत्ति जताई गई थी, कोर्ट ने इसे संवैधानिक नैतिकता के विरुद्ध बताया था।
अदालत ने अपने 28 पेज के आदेश में स्पष्ट रूप से कहा कि पुलिस दस्तावेजों में जाति का उल्लेख करना समाज को विभाजित करने वाला कदम है और आधुनिक समय में पहचान के लिए तकनीकी साधन उपलब्ध हैं। कोर्ट ने जाति के महिमामंडन को “राष्ट्र-विरोधी” तक करार दिया और कहा कि 2047 तक भारत को एक विकसित राष्ट्र बनाने के लक्ष्य में जाति का उन्मूलन एक केंद्रीय एजेंडा होना चाहिए।
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