“बालको विवाद: जब छत्तीसगढ़ के श्रमिक अधिकार कॉरपोरेट मुनाफे की बलि चढ़े”
“कॉरपोरेट राज बनाम श्रमिक सम्मान: छत्तीसगढ़ के हृदय में जलता बालको”
कल उद्योग श्रम मंदिर था, आज पूंजी का किला है
छत्तीसगढ़ – वही धरती जहां कभी उद्योग “विकास” का प्रतीक था, आज वही उद्योग श्रमिकों की अस्मिता का कब्रिस्तान बन गया है। बालको (BALCO) — जिसे हमारे पूर्वजों ने अपने पसीने, हाड़-मांस और सपनों से बनाया था — आज वेदांता की तिजोरी में बंद है, और श्रमिक अपने ही आंगन में परदेसी बना दिए गए हैं।
जिस संयंत्र ने कोरबा की मिट्टी में रोज़गार बोया था, आज वही संयंत्र उस मिट्टी के बेटे-बेटियों के हक पर बुलडोज़र चला रहा है। यह केवल औद्योगिक टकराव नहीं, यह छत्तीसगढ़ की आत्मा पर प्रहार है।
वेदांता का तर्क: ‘लाभ’ सर्वोपरि; श्रमिक का दर्द अदृश्य
वेदांता प्रबंधन का एक ही दर्शन है — मुनाफा ही धर्म है। स्थायी कर्मचारी? महंगे हैं। संविदा मजदूर? सस्ते और आज्ञाकारी। यही नीति आज छत्तीसगढ़ के हर औद्योगिक नगर में फैलती जा रही है — रायगढ़ से लेकर बालको तक।
🔺हर रोज़, एक मजदूर नौकरी खोता है।
🔺हर दिन एक परिवार सुरक्षा से वंचित होता है।
🔺और हर घंटे किसी श्रमिक की आवाज़ “अनुशासनहीनता” के नाम पर दबा दी जाती है।
पर पूछिए – इस “अनुशासन” की परिभाषा किसने तय की? कंपनी ने, या संविधान ने?
निजीकरण की आंधी में लोकतंत्र की रीढ़ टूटी
बालको का निजीकरण केवल आर्थिक सौदा नहीं था, यह एक राजनीतिक अपराध था – जिसने यह साबित कर दिया कि सत्ता, पूंजी के सामने तो नतमस्तक हो सकती है, लेकिन श्रमिक-जनता के सामने कभी नहीं झुकेगी।
2001 में 51% हिस्सेदारी बेचते वक्त कहा गया था – “स्टरलाइट/वेदांता प्रबंधन आएगा, दक्षता बढ़ेगी, श्रमिक खुशहाल होंगे।” पर आज 2025 में तस्वीर यह है – श्रमिकों की यूनियनें निष्क्रिय हैं, वेतन असमान हैं, और संविदा कर्मी आधुनिक दासता का चेहरा बन चुके हैं।
यह केवल वेदांता का नहीं, बल्कि उस नीति-व्यवस्था का अपराध है, जिसने पूंजी को नागरिक से बड़ा बना दिया।
बालको बचाओ आंदोलन – यह केवल धरना नहीं, घोषणा है
30 अक्टूबर 2025 का ऐतिहासिक संयुक्त धरना सिर्फ एक विरोध नहीं था – यह स्वाभिमान की पुनर्प्राप्ति का संकल्प है। यह वह क्षण है जब श्रमिकों ने तय किया है कि “अब चुप रहना अपराध होगा।”
“बालको बचाओ संयुक्त संघर्ष समिति” आज केवल वेतन की नहीं, 62 साल की सेवाकाल की लड़ाई नहीं, स्थानीय रोजगार की गारंटी की लड़ाई नहीं, सेवानिवृत कर्मचारियों के पेंशन और अंतिम भुगतान की राशि की मांग नहीं, बालको में उनकी चिकित्सा सुविधा और आवास अधिकार का आंदोलन ही नहीं, बल्कि एक वैचारिक क्रांति की बात कर रही है – जहाँ मजदूर कंपनी के लिए “संसाधन” नहीं, बल्कि “सहभागी” हों।
“जब श्रमिकों की मेहनत से मालिक का मुनाफा मजबूत बने, तो उनके आंसुओं से सहानुभूति और सौहार्दपूर्ण वातावरण में एक संवेदनशील मानवीय नीति भी बने – यही न्याय है।”
मीडिया का मौन: बिके हुए माइक्रोफोन और सत्ताधारी सन्नाटा
आज का मीडिया वह आईना नहीं रहा जिसमें समाज अपने चेहरे देखता था। अब वह सिर्फ कॉरपोरेट के विज्ञापन का शोकेस बन चुका है। बालको के मजदूर सड़कों पर उतरते हैं, तो कैमरे मुड़ जाते हैं। रिपोर्टर आते हैं, मगर खबरें गायब हो जाती हैं।
क्योंकि वेदांता जैसे समूहों के विज्ञापन “अर्थव्यवस्था का ऑक्सीजन” कहे जाते हैं। और इस ऑक्सीजन पर साँस लेता है लोकतंत्र का गला घोंटता मीडिया।
जब पत्रकारिता सत्ता से सवाल पूछने के बजाय
कंपनी से प्रेस नोट उठाने लगे — तो समझिए, लोकतंत्र का चौथा स्तंभ अब कॉरपोरेट की दीवार का पोस्टर बन गया है।
प्रशासन की भूमिका: संतुलन के नाम पर शरणागति
कोरबा प्रशासन हर बार “कानून-व्यवस्था” का हवाला देता है, पर यह नहीं पूछता कि मजदूरों को सड़कों पर उतरने की नौबत क्यों आई?
🔸क्यों संविदा कर्मचारी सालों तक स्थायीकरण की आस में बूढ़े हो रहे हैं?
🔸 क्यों विस्थापित परिवारों को वादा किया रोजगार नहीं मिला?
राज्य सरकार की चुप्पी उतनी ही घातक है जितनी कंपनी की मनमानी। क्योंकि सत्ता अगर मौन है, तो वह निष्पक्ष नहीं — सहभागी है।
छत्तीसगढ़ का प्रश्न: किसके लिए विकास, किसके बल पर?
छत्तीसगढ़ को भारत का “ऊर्जा राज्य” कहा जाता है। पर यह ऊर्जा किसके बल पर चलती है? उन मजदूरों के पसीने पर, जिनके घर में आज अंधेरा है। उन आदिवासियों की ज़मीन पर, जिन्हें अब “अवैध कब्ज़ा” कहकर जेल भेजा जाता है।
🔸 कंपनियाँ मुनाफा गिनती हैं,
🔸 सरकार आँकड़े गिनती है,
🔸 पर जनता अपने मरे हुए सपने गिन रही है।
एक नई चेतना की जरूरत
अब वक्त है कि छत्तीसगढ़ अपने औद्योगिक चरित्र की पुनः व्याख्या करे। यदि उद्योग का अर्थ है श्रमिक के अधिकारों का क्षरण, तो वह विकास नहीं, आर्थिक साम्राज्यवाद है।
राज्य सरकार को तत्काल हस्तक्षेप करना चाहिए –
🔹 बालको विवाद की न्यायिक जांच हो,
🔹संविदा श्रमिकों का स्थायीकरण सुनिश्चित हो,
🔹पर्यावरण और विस्थापन पर सार्वजनिक रिपोर्ट जारी हो,
🔹 और मीडिया को कॉरपोरेट प्रभाव से मुक्त किया जाए।
यह संघर्ष भारत के भविष्य का आईना है
बालको का यह संघर्ष छत्तीसगढ़ की मिट्टी में गूंजता हुआ प्रश्न है – क्या इस देश में श्रमिक केवल उत्पादन की मशीन रहेंगे, या सम्मानित नागरिक भी माने जाएंगे?
यह लड़ाई किसी प्रबंधन या सरकार से नहीं, बल्कि उस सोच से है जो यह मानती है कि “आर्थिक प्रगति” के नाम पर मानव अधिकारों का सौदा किया जा सकता है।
“जो लड़ता है, वह हार भी सकता है – लेकिन जो लड़ता नहीं, वह पहले ही हार चुका होता है।”
आज बालको के मजदूर यह सिद्ध कर रहे हैं कि सत्ता झुक सकती है, श्रम नहीं।
“यह सम्पादकीय छत्तीसगढ़ के हर श्रमिक, किसान, विस्थापित और नागरिक के नाम है – जो अपने अधिकार की आवाज़ को लोकतंत्र की आख़िरी उम्मीद की तरह बचाए हुए हैं।”





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