स्वतंत्रता के 75 वें वर्ष को जब प्रधानमंत्री मोदी और उनके समूचे प्रचार-तंत्र ने ‘अमृत वर्ष’ घोषित किया था, तब कम से कम यह किसी ने नहीं सोचा होगा कि इस सुंदर नाम की ओट में से, सांप्रदायिक विष की वर्षा का वर्ष निकलेगा और विष की वर्षा भी ऐसी-वैसी नहीं, धुंआधार वर्षा, जिससे सारे पनाले ओवरफ्लो कर रहे हैं और एकाएक बाढ़ के हालात बन गए लगते हैं.
यह शायद आडवाणी की रथयात्रा के दौर के बाद पहली ही बार है, जब अयोध्या में भव्य मंदिर के निर्माण की चर्चा को पीछे धकेलकर, मथुरा और वाराणसी या काशी, दोनों के मंदिर-मस्जिद विवाद परस्पर होड़ लेकर सामने आ रहे हैं। इस सिलसिले में इसकी याद दिलाना भी अप्रासांगिक नहीं होगा कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा अयोध्या मंदिर-मस्जिद विवाद पर अपने फैसले से, आखिरकार विवादित जगह पर एक भव्य राम मंदिर के निर्माण का रास्ता खोले जाने के फौरन बाद, वर्तमान मोदी सरकार के वैचारिक-सांगठनिक गुरु, आरएसएस के मुखिया भागवत ने बाकायदा इसका एलान किया था कि अन्य विवादित मंदिरों के मुद्दे में संघ परिवार की दिलचस्पी नहीं थी और वह देश के विकास पर अपना ध्यान लगाने जा रहा था। लेकिन, इसके चंद महीनों में ही, काशी तथा मथुरा, दोनों के मस्जिद-मंदिर विवादों को सांप्रदायिक गोलबंदी के हथियार के रूप में उस मुकाम पर पहुंचाया जा चुका है, जहां अयोध्या प्रकरण की पुनरावृत्ति अचानक ही बहुत वास्तविक संभावना दिखाई देने लगी है। और यह सब तब है, जबकि तथाकथित अमृत वर्ष में अब भी मोटे तौर पर तीन महीने बाकी हैं।
वास्तव में कथित अमृत वर्ष में हम इन विवादों के सिलसिले का गौर करने वाला विस्तार भी देख रहे हैं। इसी दौरान, अगर एक ओर ताजमहल के नीचे शिव मंदिर निकलने के आम प्रचार तथा वहां हिंदू कर्मकांड करने की कोशिशों से लेकर खासतौर पर कानूनी कवायदें तक शुरू हो गयी हैं, तो दूसरी ओर कुतुब मीनार में विष्णु स्तंभ से लेकर जैन मंदिरों तक को खोजा जा चुका है। उधर मप्र. में धार में भोजशाला का झगड़ा फिर से उछाला जा रहा है। कथित अमृतकाल में ही यह सिलसिला बढ़ते-बढ़ते कहां तक जाकर रुकेगा, इसका कोई सटीक अनुमान भी अभी नहीं लगाया जा सकता है।
बेशक, अयोध्या के बाद काशी और मथुरा विवादों की बारी आ चुकी होने का इशारा तो इस साल के शुरू में यानी इस कथित अमृत वर्ष के दौरान हुए विधानसभाई चुनावों और खासतौर पर उत्तर प्रदेश के चुनाव के लिए, प्रचार के दौरान ही मिल चुका था। काशी में इसका साधन बना था, काशी कॉरीडोर के उदघाटन का भव्य और सैकड़ों कैमरों से कवर किया गया, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर ही केंद्रित दो-दिनी सरकारी धार्मिक कार्यक्रम।
मोदी-योगी राज के हिंदूपन को चुनाव की पृष्ठभूमि में गाढ़े रंग से रेखांकित करने वाला यह आयोजन हालांकि ‘काशी की बारी’ को पारंपरिक ज्ञानवापी मस्जिद-विश्वनाथ मंदिर विवाद से अलग पटरी पर ले जाने की कोशिश करता नजर आता था, फिर भी जानकारों ने तभी आगाह कर दिया था कि काशी कॉरीडोर का यह ‘निर्माण’, इस महत्वाकांक्षी धार्मिक परियोजना के रास्ते में आने वाले सैकड़ों छोटे-छोटे मंदिरों समेत बेशुमार पुराने निर्माणों को ही ध्वस्त नहीं करेगा, बल्कि मंदिर-मस्जिद विवाद की आंच को भी तेज करने का ही काम करेगा। और ठीक ऐसा ही हो रहा है। इससे भिन्न मथुरा में शाही ईदगाह मस्जिद-जन्मस्थान मंदिर विवाद को चुनाव प्रचार के दौरान सीधे उत्तर प्रदेश के उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने यह इशारा कर के उछाला था कि अब मथुरा की ही बारी आनी है। और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इशारों में इसका अनुमोदन कर दिया था कि मथुरा की बारी नहीं आए, यह क्या संभव है।
बहरहाल, अब हम काशी और मथुरा, दोनों में कमोबेश अयोध्या प्रकरण की ही पुनरावृत्ति देख रहे हैं। काशी में इसकी शुरूआत श्रृंगार गौरी की अबाध पूजा के अधिकार के कानूनी दावे की प्रक्रिया के साथ हुई थी। पिछली सदी के आखिरी दशक में, बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद, सुरक्षा कारणों से ज्ञानवापी मस्जिद की बगल में स्थित श्रृंगार गौरी तक पहुंच पर पाबंदियां लगा दी गयी थीं और अंतत: उससे जुड़े कर्मकांड को साल में एक खास दिन तक सीमित कर दिया गया था।
इन पाबंदियों को खत्म कराने की मांग से शुरू हुए कानूनी वाद को, जल्द ही ज्ञानवापी मस्जिद के कुछ हिस्सों तक पहुंच की मांग की ओर मोड़ दिया गया। दीवानी अदालत ने दो वकीलों को कोर्ट कमिश्नर नियुक्त करते हुए, संबंधित क्षेत्र का सर्वे तथा वीडियोग्राफी कराने के आदेश भी जारी कर दिए। जैसी की आशंका थी, जल्द ही इस सर्वे को फिशिंग एक्सपिडीशन में बदल दिया गया और मस्जिद के अंदर जाकर सर्वे करने की मांग उठा दी गयी। मस्जिद पक्ष की ओर से कोर्ट-कमिश्नरों की निष्पक्षता पर उठाए गए सवालों को भी अनसुना ही कर दिया गया, जबकि ये आपत्तियां उस समय सच साबित हो गयीं, जब एक कोर्ट कमिश्नर ने, इस काम में लगाए गए अपने एक निजी फोटोग्राफर के माध्यम से, सर्वे की कथित ‘खोजों’ की तस्वीरों व जानकारियों को लीक कर दिया, जिसके बाद खुद दीवानी अदालत को उसे हटाकर, दूसरे कोर्ट कमिश्नर को सर्वे की जिम्मेदारी सौंपनी पड़ी। मस्जिद पक्ष के विरोध के बावजूद, अदालत ने न सिर्फ मस्जिद के चप्पे-चप्पे की वीडियोग्राफी/ सर्वे के आदेश दे दिए बल्कि सर्वे में बाधा डालने वालों को जेल भेजने तक के आदेश दे दिए।
नतीजा यह कि औपचारिक रूप से अदालत के सामने मोहरबंद लिफाफे में सर्वे की रिपोर्ट पेश किए जाने से पहले ही, सर्वे की जानकारियां सभी संभव-असंभव दावों के साथ सार्वजनिक हो चुकी थीं। उनमें मस्जिद के वजूखाने में मिला एक टूटे फव्वारे का हिस्सा खास है, जिसके शिवलिंग होने के दावे किए जा रहे हैं। इस सब का नतीजा यह है कि ज्ञानवापी मस्जिद के नीचे मंदिर के अवशेष मिलने के प्रचार तथा दावों में भारी तेजी आयी है और मस्जिद के खिलाफ स्वर उग्र से उग्र होते जा रहे हैं। बेशक, सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप कर, पहले सिविल अदालत के तथाकथित शिवलिंग मिलने के दावे के आधार पर, ज्ञानवापी मस्जिद में भी एक तरह से अयोध्या की बाबरी मस्जिद की ही तर्ज पर, नमाजियों के लिए प्रवेश निषिद्घ करने के फैसले को रुकवाया और अंतत: इस मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए, पूरे मामले की सुनवाई सिविल अदालत के हाथों से लेकर, जिला स्तर के अनुभवी न्यायिक अधिकारी को सौंपने का आदेश दिया है।
लेकिन, अचरज नहीं होगा कि यह सिर्फ मुसीबत को किसी तरह से टालने का नहीं, बल्कि अयोध्या प्रकरण की तरह विवाद को और तेज कराने का ही रास्ता साबित हो। आखिरकार, आरएसएस-भाजपा के अनेक नेताओं समेत, पूरा संघ कुनबा तो इसके प्रचार में जोर-शोर से जुट ही चुका है कि ज्ञानवापी मस्जिद के नीचे, मंदिर के अवशेष मौजूद हैं। सुप्रीम कोर्ट में कथित हिंदू पक्ष की ओर से यह दावा भी किया गया था कि ज्ञानवापी मस्जिद चूंकि औरंगजेब ने मंदिर की जमीन पर अवैध तरीके से कब्जा कर के बनवायी थी, मस्जिद ही अवैध तथा इसलिए गैर-मस्जिद है और इस ढांचे को मंदिर की जमीन से हटाया जाना चाहिए! यही तर्क है, जिस पर चलकर बाबरी मस्जिद का ध्वंस किया गया था।
इसी बीच मथुरा के शाही ईदगाह मस्जिद-जन्मस्थान मंदिर विवाद ने भी जिला अदालत के हालिया निर्णय के बाद अचानक बहुत तेजी पकड़ ली है। जिला अदालत ने, ईदगाह मस्जिद को इस जमीन से हटाने की ही प्रार्थना विचार योग्य मानकर स्वीकार कर ली है। यह इसके बावजूद है कि विश्व हिंदू परिषद और मस्जिद कमेटी के बीच, बाकायदा शासन के अनुमोदन से किए गए एक समझौते के जरिए, 1968 में ही इस विवाद का निपटारा किया जा चुका था। इस निपटारे में, ईदगाह की जमीन का एक बड़ा हिस्सा, श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संघ को मंदिर के निर्माण के लिए दिए गया था और दोनों पक्षों ने अदालतों में लंबित सारे मुकद्दमे वापस लेने का वादा किया था। विहिप के तत्कालीन अध्यक्ष, विष्णुहरि डालमिया खुद इस समझौते में शामिल थे। गौरतलब है कि जिला अदालत के ताजातरीन फैसले से पहले भी, मथुरा में निचली अदालत में मस्जिद हटाने की उक्त याचिका डाली गयी थी, लेकिन अदालत ने उसे इस आधार पर हाथ के हाथ खारिज कर दिया था कि 1991 के धार्मिक स्थल कानून के बाद, ऐसी किसी याचिका को विचार के लिए स्वीकार नहीं किया जा सकता है।
बाबरी मस्जिद विवाद की पृष्ठïभूमि मेंं बनाया गया उक्त कानून, अपवाद स्वरूप उक्त प्रकरण को छोडक़र, किसी भी धार्मिक स्थल की 1947 से पहले की स्थिति में किसी भी तरह का बदलाव करने पर रोक लगाता है और न सिर्फ इस तरह के बदलाव के लिए किसी भी नये दावे पर रोक लगाता है, बल्कि पहले से अदालतों के सामने विचाराधीन सारे दावों को भी इसी आधार पर निरस्त करता है। इतने स्पष्ट कानून के बावजूद, जो जाहिर है कि ठीक इसीलिए बनाया गया था कि बाबरी मस्जिद-रामजन्म भूमि विवाद जैसे किसी प्रकरण की पुनरावृत्ति देश को न झेलनी पड़े, मोदी राज में अमृत वर्ष के नाम पर देश को ठीक उसी सब की पुनरावृत्ति के रास्ते पर और बड़ी तेजी से धकेला जा रहा है।
यह कोई संयोग ही नहीं है कि 1991 के धार्मिक स्थल कानून के होते हुए भी, न सिर्फ संघ परिवार के विभिन्न बाजू इस कानून की धज्जियां उड़ाने की मुहिम में लगे हुए हैं, बल्कि मोदी-योगी की डबल इंजन सरकार, अपनी चुप्पी से इस मुहिम को सोचे-समझे तरीके से बढ़ावा दे रही है। और सुप्रीम कोर्ट तक का 1991 के कानून के होते हुए भी, अदालतों को ऐसे विवादों पर विचार करने से सीधे-सीधे रोकने से कतराना, परोक्ष रूप से देश को बाबरी मस्जिद-रामजन्म भूमि प्रकरण की खतरनाक पुनरावृत्ति की ओर ही धकेल रहा है।
याद रहे कि सुप्रीम कोर्ट ने न सिर्फ अदालतों को 1991 के कानून की धज्जियां उड़ाने से रोकने के लिए कोई तत्परता दिखाना मंजूर नहीं किया है, बल्कि ज्ञानवापी मस्जिद में सर्वे के दीवानी अदालत के फैसले के लिए चुनौती के माध्यम से, 1991 के कानून के खिलाफ जाकर धार्मिक स्थलों पर विवादों की सुनवाई पर जोर देकर अमान्य करने का मौका व प्रसंग सामने होते हुए भी, विवाद को वापस वाराणसी जिला अदालत में यह स्वीकार करने के बावजूद भेज दिया है कि अदालत को सबसे पहले तो इसी का फैसला करना है कि क्या 1991 के कानून के रहते हुए, ऐसे किसी वाद को सुनने योग्य माना जा सकता है?
यह नहीं भूलना चाहिए कि मथुरा की जिला अदालत, निचली अदालत के इसी कानून के आधार पर ईदगाह मस्जिद के खिलाफ मंदिर पक्ष के वाद को खारिज करने के फैसले को अमान्य करते हुए, मस्जिद के खिलाफ वाद की सुनवाई शुरू करने का एलान भी कर चुकी है। किसी ने सच कहा है कि जो इतिहास से सबक नहीं लेते हैं, उसे दोहराने के लिए अभिशप्त होते हैं। क्या हमें अमृतकाल के नाम पर नव्बे के दशक के शुरूआती सालों के जहरीले विध्वंस की ओर ही नहीं धकेला जा रहा है! क्या यह रास्ता कथित अमृत काल में भारत को ’हिंदू राज’ बना देने का ही रास्ता नहीं है, जिसे डा0 आंबेडकर ने भारत के लिए सबसे बड़ी आपदा बताया था।
आलेख: राजेंद्र शर्मा
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और ‘लोकलहर’ के संपादक हैं)
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