(जहांगीरपुरी मामले में बादल सरोज की प्रतिक्रिया)
हमें तो ब्रेख्त के सवाल का जवाब नजर आया
नई दिल्ली में बृन्दा करात के जहाँगीरपुरी हस्तक्षेप की तस्वीर और वीडियोज के वायरल होने के बाद देश की जनता के विराट बहुमत की प्रतिक्रिया आश्वस्ति, भरोसे और उम्मीद की थी। एक गलत शख्स द्वारा लोकप्रिय किये गए सही मुहावरे — यस वी कैन — “हाँ, हम कर सकते हैं” के अहसास की थी। बुलडोजर के सामने खड़े होने के ये थोड़े से पल चमत्कारिक थे — अनेक ग्रंथों, भाषणों, अभियानों के जरिये पैदा करने वाले उत्साह से भी ज्यादा जोश और अंगरेजी में जिसे ‘डिटरमिनेशन’ कहते है, वह पैदा करने वाले थे। ज्यादातर लोगों ने इन्हें इसी तरह लिया।
हालाँकि कुछ संतप्त आत्मायें इसमें “अरे ऐसी क्या ख़ास बात है ?” या “अरे ये तो अलाने की रिट याचिका पर फलाने वकील की पैरवी पर हुआ फैसला था, ढिमकाने को उसे लागू करना ही था” मार्का विलाप करती भी दिखीं। इनमें से जिन्हें हम निजी रूप से जानते हैं, वे इतने “बहादुर” हैं कि …. खैर छोड़िये।अपवादों पर इत्ता भी क्या सोचना?
बहरहाल हमें इन तस्वीरों और वीडियोज और उनमे कामरेड बृंदा के साथ और उनके आसपास की तस्वीरों को देखकर जर्मन फासीवाद के खिलाफ कविता, व्यंग, नाटक रचने और इसी के साथ उससे लड़ने-भिड़ने वाले भी कालजयी रचनाकार बर्तोल्त ब्रेख्त और हमारे अपने सफदर हाशमी की याद आयी। क्यों?
इसलिए कि बृंदा जिस पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में हैं, वह जानी ही जाती है इस तरह के सीना तानकर किये जाने वाले हस्तक्षेपों और कार्यवाहियों के लिए, जिसका गर्व करने लायक उदाहरण उन्होंने कल करके दिखाया।
इसे उनकी पार्टी माकपा – जो आधी सदी से हमारी पार्टी भी है – में एकेजी एप्रोच या फिनोमिना के रूप में जाना जाता है। यह नामकरण जिन एकेजी के नाम पर हुआ है, वे ए के गोपालन भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन के असाधारण नेता थे। 1952 में पहली लोकसभा में विपक्ष के नेता थे। आजन्म — 1977 में दैहिक रूप से जाने तक — लगातार लोकसभा में जीत कर आते रहे। माकपा के संस्थापक 9 सदस्यीय पोलिट ब्यूरो के नवरत्नों में से एक थे। दिल्ली के गोल मार्केट पर बना माकपा मुख्यालय उन्ही के नाम पर – एकेजी भवन – है। ये बताना तो भूल ही गए कि एकेजी हमारी अखिल भारतीय किसान सभा के अध्यक्ष थे।
एकेजी की खासियत यह थी कि वे अखबार में या किसी और तरीके से देश के किसी भी हिस्से में जनता पर दमन की खबर पा लेते थे, तो सीधे पहली ट्रेन या बस से उस इलाके के लिए निकल लेते थे और बिना इसकी परवाह किये कि उस इलाके या जिले में माकपा है भी कि नहीं, सीधे जाकर मोर्चा खोल लेते थे। एकेजी की अपनी एक पहचान थी, सांसद के नाते भी एक हैसियत थी। नतीजा यह निकलता था कि उनके पहुँचने की खबर मिलते ही आनन-फानन में हजारों की भीड़ जुट जाती थी। शुरू में एकेजी टूटी-फूटी हिंदी में बोलते थे – फिर, जहां पार्टी नहीं होती थी वहां, भीड़ में से ही कोई अनुवादक खड़ा हो जाता था और एकेजी डेढ़ घंटा तक बोलते थे।
दो-तिहाई से ज्यादा मामलों में वह सभा ही आंदोलन और जलूस बन जाती थी। एक तिहाई मामलों में जहां मसला तत्काल नहीं सुलझता था, वहां एकेजी वहीँ, उसी ठौर पर आलती-पालथी मारकर भूख हड़ताल पर बैठ जाते थे। अगले दिन संसद और तीसरे दिन देश हिल जाता था। या तो समस्या सुलझ जाती थी या फिर ऐसा जबरदस्त तूफ़ान खड़ा होता था कि सूबे की सरकार का तख़्त डोल जाता था। ऐसा अनेक बार हुआ।
इतनी बार हुआ कि कई बार तो कामरेड एकेजी की उम्र और स्वास्थ्य को देखते हुए पार्टी को एकेजी से कहना पड़ा कि “अब आप आमरण अनशन पर नहीं बैठेंगे।” मगर एकेजी, एकेजी थे – वे कहाँ मांनने वाले थे! ऐसा कितनी बार हुआ, इसकी जानकारी जुटानी होगी।
मगर उनके और बृंदा जी के कालखंड में एक बड़ा फर्क है, वह समय लोकतंत्र के शैशव काल का समय था — यह समय फासिज्म के यौवन का समय है।
बहरहाल
ब्रेख्त और सफदर क्यूँ याद आये? ब्रेख्त इसलिए कि उन्होंने अपनी एक छोटी सी कविता में एक सवाल पूछा था। उन्होंने लिखा था :
“वे नहीं कहेंगे
कि वह समय अन्धकार का था
वे पूछेंगे
कि उस समय के कवि चुप क्यों थे।”
ब्रेख्त के आशय को समझकर यहां कवि के साथ मध्यमवर्गी बुद्धिजीवियों, लेखकों, पत्रकारों, प्रोफेसरों, विद्वानों को भी जोड़ लीजिये।
यह तस्वीर इस मायने में ब्रेख्त के सवाल का जवाब है कि इसमें हमे राजीव कुंवर मोर्चे पर अलगई धजा में डटे दिख रहे हैं।
सफ़दर की याद इसलिए कि वह मोर्चे पर साथियों को बचाने के लिए अपनी जान पर खेल गए थे। दि अल्टीमेट करेज!!
ध्यान से देखिये उनके तेवर : वे अपनी नेता के चौकस कमांडो भी है। दोनों हाथ फैले हुए है कामरेड बृंदा की हिफाजत में — वहीं चेहरे पर एक आंदोलनकारी का स्वाभाविक गुस्सा है। जहांगीरपुरी के इस बुलडोजर रोको आंदोलन की कई तस्वीरें देखीं। राजीव जी के चेहरे पर किसी फोटो में जुल्मी के खिलाफ घृणा और आक्रोश का भाव है, तो किसी में नारे लगाते हुए जो चमक आती है, वह चस्पा है।
कौन हैं राजीव कुंवर?
वे दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी के लोकप्रिय प्रोफेसर हैं। उनके संगठन डूटा के जुझारू नेता हैं — मगर उस वक़्त वे अपने बेहतर जीवन स्तर, योग्यता से हासिल सुविधाजनक घर के आराम और सारी सहूलियतों को छोड़ उस जहांगीरपुरी में बुलडोजर के सामने निडर और निर्भीक होकर तैनात है, जिस जहांगीरपुरी में उनका कोई रिश्तेदार या परिचित नहीं रहता। वे ब्रेख्त के सवाल का जवाब दे रहे हैं कि नहीं ब्रेख्त, इस समय के कवि और बुद्धिजीवी भी चुप्प नहीं हैं।
राजीव सर अकेले नहीं थे। उनके साथ नौजवानो के संगठन जनवादी नौजवान सभा (डीवायएफआई) में काम करते हुए एम फिल करके सात समंदर पार पीएचडी करने जा रही कृति भी थीं। यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले एसएफआई के नेता वर्की भी थे। पार्टी की स्थानीय समिति के सचिव विपिन के अलावा युवा एक्टिविस्ट संजय, सुभाष, प्रमोद भी थे। *वी आर प्राउड ऑफ़ यू* राजीव सर एंड ऑल अदर्स!!
बृंदा जी और राजीव कुंवर और इन सब ने बता दिया है कि न मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवी डरा है, न विद्यार्थी और युवा चुका है। देश अभी ज़िंदा है।
और “भाईयों और बैनों” का नकसुरा उच्चारण करने वाले, कार्पोरेटी गटर गैस से भरे गुब्बारों को समझ लेना चाहिए कि जब तक यह देश ज़िंदा है — इसके लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और संविधान पर और जैसा कि राजीव सर ने लिखा है “नागरिक के संवैधानिक अधिकार पर बुलडोजर चलाने की राजनीति कामयाब नहीं होने दी जाएगी ; क्योंकि आज निशाने पर मुसलमान हैं, कल आदिवासी थे, कभी दलित और गरीब, तो कभी कोई और होगा!” इसलिए हम लड़ेंगे साथी, क्योंकि लड़ने का कोई विकल्प नहीं होता।
-बादल सरोज
(लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अ.भा. किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)
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