कोरबा (पब्लिक फोरम)। केंद्र में एनडीए सरकार और राज्य में भाजपा सरकार लगातार क्लीन एवं नेचुरल एनर्जी को बढ़ावा देने के बड़े दावे कर रही है। रेलवे को ‘ग्रीन एनर्जी’ की ओर अग्रसर बताकर इसे उपलब्धि के रूप में प्रचारित किया जाता है। लेकिन जमीन पर स्थिति इससे बिल्कुल अलग है। कोरबा रेलवे स्टेशन इसका ताज़ा उदाहरण है, जहां सोलर पैनल तो लगाए गए हैं, पर उनकी हालत ‘ग्रीन एनर्जी’ योजना की सच्चाई खुद बयां कर रही है।
स्टेशन की छत पर लगी पैनलों की लंबी कतारें कोल डस्ट की मोटी परतों से ढकी पड़ी हैं। महीनों से सफाई न होने के कारण धूल, राख और प्रदूषण ने इन्हें लगभग निष्क्रिय कर दिया है। कई पैनल झुके हुए, असंतुलित और आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त भी हैं। ऐसी स्थिति में यह सवाल वाजिब है कि ये पैनल वास्तव में प्रतिदिन कितनी बिजली पैदा कर पाते होंगे।
क्षेत्र में आम स्थिति: सौर ऊर्जा सिर्फ कागज़ों में ‘ग्रीन’
कोरबा स्टेशन की यह तस्वीर अकेली नहीं है। पूरे क्षेत्र में अधिकांश रेलवे स्टेशनों पर सोलर पैनलों की देखरेख की स्थिति ऐसी ही है। यहां रेलवे का मुख्य फोकस कोयला ढुलाई पर बना रहता है, जिससे सबसे अधिक राजस्व आता है। लेकिन यात्रियों की सुविधा, स्टेशन की स्वच्छता, वायु गुणवत्ता और सौर ऊर्जा उत्पादन जैसे बुनियादी मुद्दे लगातार उपेक्षित हैं।

कोल डस्ट की मार: उत्पादन क्षमता 40–60% तक घटती
‘पावर कैपिटल’ कहलाने वाले कोरबा क्षेत्र में कोल डस्ट का प्रभाव हर जगह दिखता है। विशेषज्ञों के अनुसार सोलर पैनल यदि एक माह तक साफ न किए जाएं, तो उनका उत्पादन 50% तक घट जाता है। कोरबा में महीनों से सफाई नहीं होने से यह कमी 40–60% तक पहुंच जाती है। ऐसे में स्टेशन द्वारा ‘ग्रीन एनर्जी’ पैदा करने का दावा अधिकतर कागज़ी ही रह जाता है।
योजना थी- स्टेशन अपनी बिजली स्वयं बनाए…
रेल मंत्रालय की योजना के अनुसार इन सोलर पैनलों से स्टेशन परिसर, प्लेटफॉर्म, प्रशासनिक कार्यालयों और सिग्नलिंग सिस्टम को ऊर्जा उपलब्ध कराई जानी थी। लेकिन जब पैनल ही धूल, जंग और झुकाव से प्रभावित हों, तो उत्पादन का आंकड़ा नाम मात्र रह जाना स्वाभाविक है।
स्थानीय लोगों की शिकायत: “रेलवे को सिर्फ कोयला चाहिए, यात्री नहीं”
स्थानीय नागरिकों का कहना है कि स्टेशन की उपेक्षा रेलवे की प्राथमिकताओं को स्पष्ट रूप से दिखाती है। लोगों के अनुसार:
“रेलवे को केवल कोयला ढुलाई से मतलब है। यात्रियों, उनकी सुविधा और स्वास्थ्य से नहीं। स्टेशन, प्लेटफॉर्म और सोलर पैनल सब कोल डस्ट में ढंके पड़े हैं।”
खर्च करोड़ों में, देखरेख शून्य- किसकी जवाबदेही?
सोलर प्लांट स्थापना पर लाखों–करोड़ों रुपये खर्च हुए हैं। लेकिन रखरखाव की कमी से यह निवेश बेअसर साबित हो रहा है। सरकारी धन का सही उपयोग हो भी रहा है या नहीं—यह सवाल लगातार सामने आ रहा है।
सौर ऊर्जा योजना धूल में दबी- क्या समाधान है?
कागजों में कोरबा स्टेशन ‘सौर ऊर्जा संचालित’ दिख सकता है, लेकिन वास्तविकता में यह योजना उपेक्षा और धूल मिट्टी के बीच फंसी ‘ग्रीन एनर्जी’ की विफल कहानी बनकर रह गई है। विशेषज्ञों और स्थानीय नागरिकों के अनुसार स्थिति सुधारने के लिए आवश्यक कदम निम्नलिखित हैं- सोलर पैनलों की नियमित सफाई और निगरानी। कोल डस्ट नियंत्रण के प्रभावी उपाय। मेंटेनेंस रिपोर्ट को सार्वजनिक करने की पारदर्शिता। यात्री सुविधाओं को प्राथमिकता। जब तक इन कदमों पर अमल नहीं होता, तब तक ‘क्लीन एनर्जी’ का सपना भाषणों में चमकेगा- रेलवे स्टेशन की छतों पर नहीं।





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