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बुधवार, नवम्बर 26, 2025
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27 नवंबर: बालको का स्थापना दिवस, गौरवशाली इतिहास और निजीकरण की पीड़ा

“कभी राष्ट्रीय गौरव रहे बालको के 27 नवंबर को याद आती है वह विरासत, जो अब सिर्फ यादों में सिमट गई है”

कोरबा (पब्लिक फोरम)। 27 नवंबर को भारत अल्युमिनियम कंपनी लिमिटेड (बालको) का स्थापना दिवस है। लेकिन इस बार यह दिन सिर्फ एक तारीख भर नहीं, बल्कि एक भावनात्मक अपील लेकर आया है। बालको बचाओ संयुक्त संघर्ष समिति ने लोगों से आग्रह किया है कि वे इस दिन को अवश्य मनाएं, क्योंकि अब वेदांता समूह इसे नहीं मनाता। समिति का कहना है कि देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के प्रति आभार व्यक्त करने का यह दिन है, जिन्होंने मध्य भारत की धरती पर यह शानदार अल्युमिनियम कारखाना स्थापित करवाया था।

नेहरू का सपना और छत्तीसगढ़ की माटी का नाता

बालको की स्थापना स्वतंत्र भारत के औद्योगिक विकास के सपने का हिस्सा थी। पंडित नेहरू की दूरदर्शी सोच ने छत्तीसगढ़ (तत्कालीन मध्य प्रदेश) के कोरबा क्षेत्र को चुना, जहां प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता थी। यह कारखाना सिर्फ एक उद्योग नहीं, बल्कि स्थानीय समुदाय के लिए रोजगार, सम्मान और विकास का प्रतीक बन गया था।

हजारों परिवारों की आजीविका इससे जुड़ी थी। बालको ने क्षेत्र की तस्वीर बदल दी थी – सड़कें बनीं, स्कूल खुले, अस्पताल आए और एक पूरा शहर विकसित हुआ। यह सार्वजनिक क्षेत्र का वह उपक्रम था जिस पर पूरे देश को गर्व था।

निजीकरण: एक दिया श्रद्धांजलि का भी

लेकिन 2001 में बालको का निजीकरण कर इसे वेदांता समूह को सौंप दिया गया। यह फैसला तब से विवादों में रहा है। स्थानीय कर्मचारियों, मजदूर संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि निजीकरण के बाद कंपनी का चरित्र बदल गया। जो कारखाना कभी सामाजिक जिम्मेदारी और राष्ट्रीय हित का प्रतीक था, वह अब सिर्फ मुनाफे का केंद्र बन गया है।

बालको बचाओ संयुक्त संघर्ष समिति की अपील में कहा गया है कि “निजीकरण की श्रद्धांजलि” के रूप में भी एक दिया जलाया जाए। यह कटाक्ष उस व्यवस्था पर है जिसने एक जनहितकारी उद्योग को कॉर्पोरेट हाथों में सौंप दिया।

वेदांता को अब जरूरत नहीं?

समिति का यह कहना कि “अब वेदांता को इसकी (स्थापना दिवस की) जरूरत भी नहीं है” एक गहरी पीड़ा को दर्शाता है। स्थानीय लोगों की शिकायत है कि निजीकरण के बाद वेदांता ने धीरे-धीरे बालको की पुरानी पहचान को मिटा दिया है। स्थापना दिवस जैसे आयोजन, जो कभी धूमधाम से मनाए जाते थे और स्थानीय समुदाय को जोड़ते थे, अब इतिहास बन गए हैं।

कर्मचारियों और पूर्व कर्मचारियों का कहना है कि सार्वजनिक क्षेत्र में बालको एक परिवार की तरह था, जहां हर व्यक्ति का सम्मान था। लेकिन अब स्थिति बदल गई है।

भावनात्मक अपील का संदेश

बालको बचाओ संयुक्त संघर्ष समिति की यह अपील सिर्फ एक राजनीतिक बयान नहीं, बल्कि उन हजारों लोगों की आवाज है जो बालको को अपना मानते हैं। यह अपील दो तरह के दीये जलाने की बात करती है – एक आभार का और एक श्रद्धांजलि का।

आभार का दीया उस दूरदर्शी नेतृत्व के लिए, जिसने देश के औद्योगिक विकास की नींव रखी। और श्रद्धांजलि का दीया उस व्यवस्था के लिए, जिसने एक राष्ट्रीय संपत्ति को निजी हाथों में सौंप दिया।

सवाल जो अनुत्तरित हैं

क्या निजीकरण सही था? क्या स्थानीय समुदाय को इससे वास्तव में लाभ हुआ? क्या राष्ट्रीय हित को मुनाफे से ऊपर रखा जाना चाहिए था? ये सवाल आज भी प्रासंगिक हैं।

बालको का स्थापना दिवस सिर्फ एक तारीख नहीं, बल्कि एक याद दिलाने का दिन है – उस विरासत का, उस सपने का जो छत्तीसगढ़ की माटी में रोपा गया था। चाहे वेदांता इसे मनाए या न मनाए, लेकिन स्थानीय लोगों के दिलों में बालको की पुरानी पहचान आज भी जीवित है।

27 नवंबर – एक तारीख, दो भावनाएं: “स्थापना का गौरव और निजीकरण की पीड़ा।”

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