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सोमवार, सितम्बर 29, 2025
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करूर का क्रंदन: भीड़, सियासत और मीडिया के पाखंड में गुम हुईं 40 जिंदगियां

तमिलनाडु (पब्लिक फोरम)। अभिनेता से नेता बने विजय की राजनीतिक रैली में मची भगदड़ ने 40 जिंदगियों को मौत की नींद सुला दिया। यह सिर्फ एक हादसा नहीं, बल्कि उस खतरनाक कॉकटेल का नतीजा है, जहां प्रशंसकों का अंधा जुनून, राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं और प्रशासनिक लापरवाही एक साथ मिल जाती हैं। बिखरे हुए जूते-चप्पल, कुचली हुई पानी की बोतलें और हवा में तैरती चीखें उस भयावह मंजर की गवाही दे रही हैं, जिसने जश्न को मातम में बदल दिया।
यह त्रासदी हमारी व्यवस्था के उस नग्न सच को भी उजागर करती है, जहां इंसान की कीमत भीड़ में खो जाती है और संवेदनाएं सियासी नफा-नुकसान के तराजू पर तौली जाती हैं।

मौत का मंजर: जब उम्मीदें पैरों तले कुचली गईं
शनिवार की शाम करूर में अभिनेता विजय की पार्टी ‘तमिलगा वेत्री कझगम’ (TVK) की रैली में हजारों की भीड़ अपने ‘थलपति’ की एक झलक पाने को बेताब थी। आयोजकों ने 10,000 लोगों की अनुमति ली थी, लेकिन मैदान में 50,000 से ज्यादा लोग जमा हो गए। सात घंटे की लंबी देरी के बाद जब विजय मंच पर पहुंचे, तो भीड़ का जुनून बेकाबू हो गया। इसी आपाधापी और धक्का-मुक्की में कई लोग नीचे गिर गए और फिर उठ नहीं सके। मरने वालों में 17 महिलाएं और 9 बच्चे भी शामिल थे, जिनकी सांसें अपने ही आदर्श की दीवानगी में घुट गईं।

एक प्रत्यक्षदर्शी ने कांपती आवाज में बताया, “लोग एक-दूसरे पर चढ़कर आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे थे। कई लोग सड़क किनारे नाले में जा गिरे और भीड़ उन्हें रौंदते हुए निकल गई।” अस्पताल के बाहर का मंजर दिल दहला देने वाला था, जहां परिजन अपने खोए हुए लोगों की तलाश में बिलख रहे थे। एक महिला, जिसने अपने पति को इस भगदड़ में खो दिया, रोते हुए बस इतना ही कह सकी, “मैंने उन्हें आने से मना किया था, पर वो नहीं माने।”

इस भयावह हादसे ने गंभीर प्रशासनिक और राजनीतिक सवाल खड़े कर दिए हैं। जब उम्मीद से पांच गुना ज्यादा भीड़ जुटने का अंदेशा था, तो सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम क्यों नहीं किए गए? एक संकरी जगह पर इतने बड़े आयोजन की अनुमति कैसे दी गई? पुलिस ने TVK के पदाधिकारियों के खिलाफ मामला तो दर्ज कर लिया है, लेकिन यह सवाल जस का तस है कि इस लापरवाही के लिए असल जवाबदेह कौन है?

इस भयावह हादसे ने गंभीर प्रशासनिक और राजनीतिक सवाल खड़े कर दिए हैं। जब उम्मीद से पांच गुना ज्यादा भीड़ जुटने का अंदेशा था, तो सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम क्यों नहीं किए गए? एक संकरी जगह पर इतने बड़े आयोजन की अनुमति कैसे दी गई? पुलिस ने TVK के पदाधिकारियों के खिलाफ मामला तो दर्ज कर लिया है, लेकिन यह सवाल जस का तस है कि इस लापरवाही के लिए असल जवाबदेह कौन है?

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने मृतकों के परिवारों के लिए 10-10 लाख रुपये और घायलों के लिए 1-1 लाख रुपये के मुआवजे का ऐलान किया है।वहीं, अभिनेता विजय ने भी अपनी पार्टी की ओर से मृतकों के परिजनों को 20-20 लाख और घायलों को 2-2 लाख रुपये की आर्थिक सहायता देने की घोषणा की है। इन सबके बीच, आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी शुरू हो चुका है। विपक्षी दल AIADMK ने पुलिस और प्रशासन को भगदड़ के लिए दोषी ठहराया है, जबकि सत्ताधारी DMK ने विजय की गिरफ्तारी की मांग की है। विजय की पार्टी TVK ने घटना की निष्पक्ष जांच के लिए मद्रास हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है और सीबीआई जांच की मांग की है।

मीडिया की चुप्पी और चुनिंदा संवेदनाएं

इस पूरी त्रासदी में राष्ट्रीय मीडिया के एक बड़े हिस्से की भूमिका भी सवालों के घेरे में है। यह एक कड़वी सच्चाई है कि अगर यही हादसा उत्तर भारत के किसी राज्य में हुआ होता, तो न्यूज चैनलों पर ‘ब्रेकिंग न्यूज’ की सुनामी आ जाती। स्टूडियो में तीखी बहसें होतीं और सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया जाता। लेकिन करूर की इन 40 मौतों को मीडिया की सुर्खियों में वो जगह नहीं मिली, जिसकी यह मानवीय त्रासदी हकदार थी।

यह दोहरापन उस गहरी खाई को दिखाता है, जो ‘हिंदी पट्टी’ और ‘दक्षिण भारत’ के बीच न सिर्फ भौगोलिक, बल्कि भावनात्मक और सूचनात्मक स्तर पर भी मौजूद है। जब तक मीडिया अपनी इस क्षेत्रीय पक्षपात की मानसिकता से ऊपर नहीं उठेगा, तब तक देश के एक हिस्से का दर्द दूसरे हिस्से के लिए महज एक छोटी-सी खबर बनकर रह जाएगा।

समाज के लिए सबक: जुनून या प्रदूषण?

करूर की भगदड़ सिर्फ भीड़ प्रबंधन की विफलता का मामला नहीं है, बल्कि यह हमारे समाज के लिए एक आईना भी है। यह हमें सोचने पर मजबूर करती है कि किसी व्यक्ति, चाहे वह फिल्मी सितारा हो या राजनेता, के प्रति अंधभक्ति और जुनून किस हद तक खतरनाक हो सकता है। यह हादसा एक चेतावनी है कि जब तक हम अपने विवेक को जिंदा रखकर भीड़ का हिस्सा बनने या न बनने का फैसला नहीं करेंगे, तब तक ऐसी त्रासदियां होती रहेंगी।

सरकार और प्रशासन को यह सुनिश्चित करना होगा कि भविष्य में ऐसे आयोजनों के लिए सख्त नियम बनाए जाएं और उनका कड़ाई से पालन हो। वहीं, मीडिया को भी अपनी जिम्मेदारी समझते हुए सनसनी फैलाने के बजाय समाज को जागरूक करने का काम करना होगा। सबसे बड़ा सवाल हम सबके लिए है – क्या हम एक जागरूक नागरिक बनना चाहते हैं या सिर्फ एक बेकाबू भीड़ का हिस्सा बनकर रह जाना चाहते हैं? करूर में मारे गए 40 बेगुनाहों की चीखें हमसे यही सवाल पूछ रही हैं।
(प्रदीप शुक्ल, लखनऊ से)

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