नई दिल्ली (पब्लिक फोरम)। दिल्ली और आसपास के इलाकों में हाल के दिनों में मजदूर-गरीब बस्तियों पर हो रही बुलडोजर की कार्रवाई और प्रवासी मजदूरों के खिलाफ बढ़ते दमन ने एक गंभीर सामाजिक संकट को जन्म दे दिया है। एक तरफ जहां उनके सिर से छत छीनी जा रही है, वहीं दूसरी ओर भाषा और धर्म के आधार पर उन्हें निशाना बनाया जा रहा है, जिससे उनके अस्तित्व और नागरिक अधिकारों पर ही सवाल खड़े हो गए हैं। इन घटनाओं के विरोध में कई मजदूर संगठन और नागरिक समाज लामबंद हो रहे हैं।
पिछले कुछ महीनों में दिल्ली-एनसीआर के विभिन्न इलाकों, जैसे जंगपुरा के मद्रासी कैंप, निजामुद्दीन, बटला हाउस और ओखला में बड़े पैमाने पर झुग्गियों को तोड़ा गया है। इस कार्रवाई से हजारों परिवार, जिनमें दिहाड़ी मजदूर, रिक्शा चालक, घरेलू सहायिका और छोटे-मोटे काम करने वाले शामिल हैं, बेघर हो गए हैं। ये लोग दशकों से इन बस्तियों में रह रहे थे और शहर के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते आए हैं। सरकार की इस कार्रवाई को “अतिक्रमण हटाओ” अभियान का नाम दिया जा रहा है, लेकिन प्रभावित लोगों का कहना है कि उन्हें बिना किसी पूर्व सूचना या पुनर्वास के उजाड़ा जा रहा है।
चिंता की बात यह भी है कि यह कार्रवाई ऐसे समय में हो रही है जब भाजपा ने “जहां झुग्गी, वहीं मकान” जैसी योजनाओं का वादा किया था। इन वादों के बावजूद जमीनी हकीकत बिल्कुल अलग है, जिससे सरकार की मंशा पर सवाल उठ रहे हैं।
भाषा और धर्म के आधार पर उत्पीड़न और डिटेंशन सेंटर
मामला सिर्फ झुग्गियों को उजाड़ने तक ही सीमित नहीं है। दिल्ली-एनसीआर में, खासकर गुड़गांव-मानेसर औद्योगिक क्षेत्र में, बांग्ला और असमिया भाषी प्रवासी मजदूरों को निशाना बनाए जाने की खबरें सामने आई हैं। इन मजदूरों के साथ मारपीट और गाली-गलौज से शुरू हुआ यह सिलसिला अब उन्हें “अवैध अप्रवासी” बताकर डिटेंशन सेंटरों (हिरासत केंद्रों) में बंद करने तक पहुंच गया है।
हाल ही में, गुरुग्राम में अवैध अप्रवासियों की पहचान के लिए चार डिटेंशन सेंटर स्थापित किए गए हैं। इन केंद्रों में संदिग्ध लोगों को रखकर उनके दस्तावेजों की जांच की जा रही है। हालांकि प्रशासन का कहना है कि यह कार्रवाई केंद्रीय गृह मंत्रालय के निर्देशों के तहत हो रही है, लेकिन इस प्रक्रिया की कानूनी वैधता और पारदर्शिता पर गंभीर सवाल उठाए जा रहे हैं। कई लोगों को सादे कपड़ों में आए लोगों द्वारा बिना किसी उचित पहचान या कानूनी प्रक्रिया के उठाया गया और आधार कार्ड, वोटर आईडी जैसे दस्तावेजों को भी अपर्याप्त माना गया।
मजदूर संगठनों और नागरिक समाज का विरोध
इन घटनाओं के खिलाफ मजदूर संगठनों और नागरिक अधिकार समूहों ने आवाज उठानी शुरू कर दी है। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन के महासचिव, कॉमरेड दीपांकर भट्टाचार्य के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल ने हाल ही में गुड़गांव के डिटेंशन सेंटरों और उजाड़ी गई मजदूर बस्तियों का दौरा किया। इस दौरे में ऐक्टू (ऑल इंडिया सेंट्रल काउंसिल ऑफ ट्रेड यूनियंस), ऐपवा (ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव वीमेंस एसोसिएशन), आइसा (ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन) और आइलाज के कार्यकर्ता भी शामिल थे। प्रतिनिधिमंडल ने पाया कि इन कार्रवाइयों के कारण मजदूरों में डर का माहौल है और कई लोग अपने घर-गांव लौटने पर मजबूर हो रहे हैं।
ऑल इंडिया सेंट्रल काउंसिल ऑफ ट्रेड यूनियंस (ऐक्टू) ने सरकार की इन “जन-विरोधी” नीतियों की कड़ी निंदा की है।ऐक्टू का कहना है कि एक तरफ श्रम कानूनों को कमजोर कर मजदूरों का शोषण किया जा रहा है और दूसरी तरफ उनके घरों को उजाड़कर उन्हें बेसहारा किया जा रहा है। संगठन ने इन हमलों के खिलाफ संघर्ष को तेज करने का आह्वान किया है।
दोहरी मार झेलते प्रवासी मजदूर
ये प्रवासी मजदूर दोहरी मार झेल रहे हैं। शहरों में जहां उनके घर और रोजगार पर संकट है, वहीं उनके गृह राज्यों में नागरिकता साबित करने की प्रक्रियाओं के चलते मतदाता सूची से उनका नाम काटे जाने का खतरा भी मंडरा रहा है। बिहार में चल रही विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) प्रक्रिया में आधार और राशन कार्ड जैसे दस्तावेजों को स्वीकार न करने के चुनाव आयोग के फैसले की आलोचना हो रही है, क्योंकि इससे लाखों गरीबों और हाशिए पर रहने वाले समुदायों के मताधिकार से वंचित होने की आशंका है।
यह स्थिति न केवल इन मजदूरों के मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन है, बल्कि यह देश के सामाजिक और आर्थिक ताने-बाने के लिए भी एक गंभीर चुनौती है। विकास के नाम पर सबसे कमजोर तबके को उजाड़ना और भाषा-धर्म के आधार पर नागरिकों में भेद करना एक खतरनाक प्रवृत्ति है, जिसके खिलाफ एक मजबूत और एकजुट आवाज की जरूरत है।
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