छत्तीसगढ़/बस्तर (पब्लिक फोरम)। छत्तीसगढ़ के घने जंगलों में चल रहा ‘ऑपरेशन कगार’ अब केवल माओवाद के खिलाफ जंग नहीं, बल्कि आदिवासियों की जमीन, जंगल और सम्मान पर सवाल बनकर उभर रहा है। गृह मंत्री अमित शाह ने मार्च 2026 तक भारत को ‘नक्सल-मुक्त’ बनाने का ऐलान किया है, लेकिन इस अभियान के तहत बस्तर में सैन्यीकरण, फर्जी मुठभेड़ों और आदिवासियों के शांतिपूर्ण विरोध को कुचलने की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। क्या यह वास्तव में माओवाद के खिलाफ युद्ध है, या खनिज समृद्ध बस्तर को कॉर्पोरेट्स के हवाले करने की साजिश? आइए, इस संवेदनशील मुद्दे को गहराई से समझें।
आदिवासियों का दर्द: जंगल छिन रहे, जिंदगी दांव पर!
पिछले एक साल में, खासकर जनवरी 2025 के बाद, ‘ऑपरेशन कगार’ के तहत सैकड़ों आदिवासी मारे जा चुके हैं। बस्तर के जंगलों में इजरायली ड्रोन, उन्नत हथियार और सैन्य शिविरों का जाल बिछाया जा रहा है। पांचवीं अनुसूची के तहत संरक्षित आदिवासी क्षेत्रों में ग्राम सभाओं की सहमति के बिना सैन्य शिविर स्थापित किए जा रहे हैं। यह न केवल संवैधानिक उल्लंघन है, बल्कि आदिवासियों की जमीन और संसाधनों पर अवैध कब्जे का सबूत भी है।
आदिवासी स्कूल, अस्पताल और बुनियादी सुविधाओं की मांग कर रहे हैं, लेकिन उनकी आवाज को दबाने के लिए छत्तीसगढ़ सरकार ने ‘मूलवासी बचाओ मंच’ जैसे संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया। बस्तर के प्रमुख आदिवासी नेता मनीष कुंजाम, जो तेंदू पत्ता बोनस में अनियमितताओं के खिलाफ लड़ रहे थे, को भी निशाना बनाया गया। यह साफ है कि सरकार आदिवासियों की आवाज को कुचलना चाहती है।
सैन्यीकरण का सच: विकास का वादा, लूट का इरादा!
सरकार का दावा है कि सैन्य शिविरों को ‘एकीकृत विकास केंद्रों’ में बदला जाएगा, जहां स्कूल, अस्पताल और राशन की सुविधाएं होंगी। लेकिन हकीकत यह है कि इन शिविरों का मकसद स्थायी सैन्य मौजूदगी सुनिश्चित करना है। बस्तर के खनिज समृद्ध जंगल कॉर्पोरेट्स की नजर में हैं, और सैन्यीकरण के जरिए आदिवासियों को उनकी जमीन से बेदखल किया जा रहा है।
‘आदिवासी संघर्ष मोर्चा’ ने इस नीति की कड़ी निंदा की है। उनका कहना है कि ‘नक्सल-मुक्त भारत’ के नाम पर आदिवासियों के खिलाफ युद्ध छेड़ा जा रहा है। मुठभेड़ों में केवल हत्याएं हो रही हैं, गिरफ्तारियां नहीं। मारे गए लोगों पर इनाम की राशि बांटकर हत्याओं को बढ़ावा दिया जा रहा है। यह नीति न केवल क्रूर है, बल्कि संवैधानिक कानूनों का खुला उल्लंघन भी है।
आदिवासियों की पुकार: न्याय, सम्मान और आजादी!
बस्तर के आदिवासी शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे हैं। वे अपनी जमीन, जंगल और संस्कृति बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। लेकिन उनकी आवाज को दबाने के लिए ‘छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम’ जैसे कठोर कानूनों का दुरुपयोग किया जा रहा है। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और आदिवासी नेताओं को झूठे मामलों में फंसाकर जेल में डाला जा रहा है।
‘आदिवासी संघर्ष मोर्चा’ ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से इस युद्ध को तत्काल रोकने और आदिवासियों के लिए लोकतांत्रिक माहौल सुनिश्चित करने की मांग की है। उन्होंने निर्दोष आदिवासियों और कार्यकर्ताओं की रिहाई की भी अपील की है।
अब आगे क्या है रास्ता?
‘ऑपरेशन कगार’ के नाम पर चल रही हिंसा और सैन्यीकरण की नीति ने बस्तर को युद्ध के मैदान में बदल दिया है। यह वक्त है कि सरकार आदिवासियों की आवाज सुने और उनकी बुनियादी जरूरतों को पूरा करे। सैन्य शिविरों की जगह स्कूल और अस्पताल बनाए जाएं। कॉर्पोरेट लूट के बजाय आदिवासियों के हक और सम्मान को प्राथमिकता दी जाए।
बस्तर के जंगल केवल खनिजों का खजाना ही नहीं, बल्कि लाखों आदिवासियों का पुरखौती आशियाना भी हैं। उनकी जिंदगी, संस्कृति और सम्मान की रक्षा करना हम सबकी जिम्मेदारी है। क्या सरकार इस दिशा में कदम उठाएगी, या बस्तर का खून-खराबा और बढ़ेगा? यह सवाल अब हर भारतीय के मन में गूंज रहा है।
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