back to top
शनिवार, अप्रैल 19, 2025
होमझारखंडरोज केरकेट्टा: आदिवासी साहित्य और झारखंडी आंदोलन की सशक्त आवाज़ अब खामोश

रोज केरकेट्टा: आदिवासी साहित्य और झारखंडी आंदोलन की सशक्त आवाज़ अब खामोश

रांची (पब्लिक फोरम)। झारखंड की माटी की सशक्त बेटी, खड़िया और हिंदी साहित्य की प्रखर लेखिका, शिक्षाविद्, और आदिवासी अधिकारों की योद्धा डॉ. रोज केरकेट्टा अब हमारे बीच नहीं रहीं। 17 अप्रैल 2025 को सुबह 11 बजे रांची के बरियातू स्थित उनके आवास पर उन्होंने अंतिम सांस ली। 84 वर्षीय रोज दी, जैसा कि उन्हें प्यार से बुलाया जाता था, लंबे समय से अस्वस्थ थीं। उनके निधन से झारखंड ही नहीं, बल्कि पूरे देश में साहित्य, संस्कृति और आदिवासी समाज में शोक की लहर दौड़ गई है।

एक प्रेरक जीवन यात्रा
रोज केरकेट्टा का जन्म 5 दिसंबर 1940 को सिमडेगा (झारखंड) के कसिरा सुंदरा टोली गांव में खड़िया आदिवासी समुदाय में हुआ था। उनकी लेखनी में आदिवासी जीवन की संवेदनाएं, सामाजिक न्याय और स्त्री विमर्श का गहरा समावेश था। उन्होंने हिंदी साहित्य में एम.ए. और रांची विश्वविद्यालय से ‘खड़िया लोक कथाओं का साहित्यिक और सांस्कृतिक अध्ययन’ विषय पर पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। रोज दी ने न केवल खड़िया भाषा को संरक्षित करने की दिशा में ऐतिहासिक कार्य किया, बल्कि हिंदी साहित्य में भी अपनी अनूठी छाप छोड़ी।

उनका लेखन केवल शब्दों तक सीमित नहीं था; यह जल, जंगल, जमीन और आदिवासी अस्मिता की लड़ाई का दस्तावेज था। उनकी रचनाओं में झारखंडी समाज की पीड़ा, संघर्ष और आकांक्षाएं जीवंत हो उठती थीं। ‘पगहा जोरी-जोरी रे घाटो’ जैसा उनका कहानी संग्रह हिंदी साहित्य में आदिवासी जीवन की सघनता और प्रामाणिकता को दर्शाता है, जिसे आलोचकों ने ‘ट्राइबल इथोज’ की संज्ञा दी।

झारखंडी आंदोलन की बौद्धिक अगुआ
रोज केरकेट्टा झारखंड आंदोलन की एक मुखर और बौद्धिक योद्धा थीं। उन्होंने आदिवासी समाज की अस्मिता, संस्कृति और अधिकारों के लिए न केवल अपनी लेखनी से, बल्कि सड़कों पर उतरकर भी संघर्ष किया। खड़िया भाषा को झारखंड की प्रमुख भाषाओं में स्थापित करने के लिए उन्होंने अनथक प्रयास किए। सामाजिक कार्यकर्ता रतन तिर्की के शब्दों में, “रोज दी ने झारखंडी भाषा-साहित्य को स्थापित करने के लिए जो मेहनत की, वह अतुलनीय है।”

उन्होंने महिलाओं और आदिवासी समाज में भेदभाव के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद की। उनकी लेखनी में नारीवाद का एक अनूठा रूप दिखता है, जो पुरुषों के खिलाफ नहीं, बल्कि व्यवस्था के अन्याय के खिलाफ खड़ा था। प्रख्यात आलोचक वीर भारत तलवार ने उनकी कहानियों को “आदिवासी जीवन की संपूर्णता और प्रतिरोध का राजनीतिक स्वर” बताया

साहित्यिक योगदान: खड़िया और हिंदी का संगम
रोज केरकेट्टा ने खड़िया और हिंदी दोनों भाषाओं में दर्जनों पुस्तकें लिखीं, जो आदिवासी संस्कृति और साहित्य के संरक्षण का अनमोल खजाना हैं। उनकी प्रमुख रचनाओं में शामिल हैं:
– खड़िया लोक कथाओं का साहित्यिक और सांस्कृतिक अध्ययन: यह शोध ग्रंथ खड़िया समुदाय के मौखिक साहित्य और संस्कृति पर प्रामाणिक कार्य है।

– पगहा जोरी-जोरी रे घाटो: हिंदी कहानी संग्रह, जिसे 2012 में अयोध्या प्रसाद खत्री स्मृति सम्मान से नवाज़ा गया।

– प्रेमचंदाअ लुङकोय: प्रेमचंद की कहानियों का खड़िया भाषा में अनूठा अनुवाद।

– स्त्री महागाथा की महज एक पंक्ति: निबंध संग्रह, जिसमें आदिवासी और स्त्री सवालों पर गहन चिंतन है।

– खड़िया पुरखा कथाएं: खड़िया लोक कथाओं का संग्रह, जो समुदाय की विरासत को संजोता है।

उन्होंने कई वर्षों तक झारखंडी महिलाओं की त्रैमासिक पत्रिका ‘आधी दुनिया’ का संपादन भी किया, जो महिलाओं के मुद्दों को उठाने का एक सशक्त मंच था।

सम्मान और स्मृतियां
रोज केरकेट्टा को उनके साहित्यिक और सामाजिक योगदान के लिए कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया गया, जिनमें प्रभावती सम्मान, रानी दुर्गावती सम्मान और अयोध्या प्रसाद खत्री स्मृति सम्मान शामिल हैं। उनकी रचनाएं और विचार न केवल झारखंड, बल्कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी गूंजे। वे बर्लिन में आदिवासी दशक वर्ष के उद्घाटन समारोह (1994) और वर्ल्ड सोशल फोरम जैसे वैश्विक मंचों पर अपनी बात रख चुकी थीं।

एक अपूरणीय क्षति
रोज केरकेट्टा के निधन पर झारखंड के साहित्यकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और आम लोगों ने गहरा शोक व्यक्त किया है। प्रसिद्ध साहित्यकार रणेंद्र ने कहा, “रोज दी से मैंने बहुत कुछ सीखा। उनकी लेखनी में आदिवासी जीवन की सच्चाई थी।” वहीं, रंगकर्मी महादेव टोप्पो ने उनके प्रेमचंद के खड़िया अनुवाद को झारखंडी साहित्य में मील का पत्थर बताया।

सोशल मीडिया पर भी लोग उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे हैं। एक यूज़र ने लिखा, “जल-जंगल-जमीन और आदिवासी अधिकारों की सशक्त आवाज़ अब खामोश हो गई, लेकिन उनकी रचनाएं हमें हमेशा प्रेरित करती रहेंगी। अंतिम जोहार, रोज दी।”

विरासत जो जीवित रहेगी
रोज केरकेट्टा का जाना न केवल झारखंडी साहित्य और आदिवासी समाज के लिए, बल्कि पूरे देश के लिए एक अपूरणीय क्षति है। उनकी लेखनी, उनके विचार और उनका संघर्ष भावी पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बने रहेंगे। उनकी रचनाएं हमें याद दिलाती हैं कि साहित्य केवल कहानियां नहीं, बल्कि समाज को बदलने का एक शक्तिशाली हथियार भी है। रोज दी, आपकी आवाज़ हमेशा हमारे दिलों में गूंजती रहेगी। अंतिम जोहार!

RELATED ARTICLES

Most Popular

Recent Comments