न्यायपालिका की टिप्पणी पर देशभर में चिंता और आक्रोश!
“देश के गरीबों की पीड़ा का मजाक बंद करें!”
नई दिल्ली (पब्लिक फोरम)। सर्वोच्च न्यायालय के जस्टिस बी.आर. गवई ने गुरुवार को एक सुनवाई के दौरान गरीबों के लिए बनाए गए शेल्टरों की दयनीय हालत पर चिंता जताई, लेकिन उनकी एक टिप्पणी ने राजनीतिक और सामाजिक हलकों में तूफान ला दिया। जस्टिस गवई ने चुनावी वादों में “मुफ्त की रेवड़ियां” बांटने वाली नीतियों को लेकर कहा, “इससे परजीवियों का एक वर्ग पैदा हो रहा है।” यह बयान सुनते ही मीडिया और विपक्षी दलों के साथ-साथ आम जनता के बीच भी गहरी नाराजगी फैल गई है।
क्यों है यह बयान विवादास्पद?
भारत में इस वक्त 80 करोड़ से अधिक लोग मुफ्त राशन योजना पर निर्भर हैं। कोविड के बाद से बेरोजगारी दर 8% के आसपास बनी हुई है, और शहरी व ग्रामीण इलाकों में रोजगार के अवसर लगातार सिमट रहे हैं। ऐसे में, गरीबों को “परजीवी” कहना न केवल संवेदनहीन है, बल्कि उनकी मजबूरियों को नज़रअंदाज़ करने जैसा है।
काम नहीं करना चाहते” vs हकीकत: कौन सच कह रहा है?
जस्टिस गवई के मुताबिक, “काम नहीं करना चाहने वालों को मुख्यधारा में लाना होगा।” लेकिन आंकड़े एक अलग कहानी बयां करते हैं:-
– मनरेगा के बजट में 2023-24 में 33% की कटौती की गई, जिससे ग्रामीण रोजगार घटे।
– शहरी रोजगार गारंटी योजना को लागू करने की कोई ठोस योजना नहीं।
– 94% कामगार असंगठित क्षेत्र में हैं, जहां न्यूनतम मजदूरी तक नहीं मिलती।
केंद्रीय कमेटी, भाकपा (माले) लिबरेशन ने कहा, “सरकार ने कॉरपोरेट्स को 15 लाख करोड़ रुपए के कर्ज माफ किए, लेकिन गरीबों को जिंदा रहने के लिए दी जाने वाली राशन को ‘रेवड़ी’ कहा जा रहा है। यह दोहरा मापदंड है!”
जजों की भूमिका पर सवाल: कहां है ‘सेपरेशन ऑफ पावर’?
संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) और 23 (शोषण के खिलाफ अधिकार) के तहत सरकार का कर्तव्य है कि वह नागरिकों को रोजगार और सम्मानजनक जीवन दे। लेकिन, अदालतें अक्सर सरकार की नीतियों पर सवाल उठाने से बचती हैं। विडंबना यह है कि जब गरीबों के अधिकारों की बात आती है, तो “न्यायिक संयम” का सिद्धांत गायब हो जाता है।
‘रेवड़ी’ शब्द का सियासी इतिहास
2022 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विपक्षी दलों की जनकल्याण योजनाओं को “रेवड़ी कल्चर” कहकर निशाना बनाया था। उसी साल, एलएंडटी के चेयरमैन एस.एन. सुब्रह्मण्यन ने शिकायत की थी कि “ग्रामीणों को मुफ्त सुविधाएं मिल रही हैं, इसलिए वे शहरों में काम करने नहीं आ रहे।” ये बयान उस मानसिकता को दिखाते हैं, जो गरीबी को ‘आलस्य’ समझती है, न कि व्यवस्था की विफलता।
जनता का सवाल: कब होगी हकीकत की बात?
एक रिक्शा चालक अशोक यादव (32) ने कहा, “मैं 12 घंटे काम करता हूं, फिर भी दो वक्त की रोटी नसीब नहीं। क्या यही है ‘परजीवी’ होना?” ऐसे ही लाखों लोगों के लिए सरकारी योजनाएं जीवनरेखा हैं, न कि ‘मुफ्तवाद’।
आगे की राह: संवैधानिक जिम्मेदारी याद रखनी होगी!
विशेषज्ञ मानते हैं कि अदालतों को चाहिए कि वे सरकार से पूछें:-
– रोजगार सृजन के लिए क्या कदम उठाए गए?
– क्यों नहीं लागू हो रहा शहरी रोजगार गारंटी कानून?
– गरीबों के प्रति संवेदनहीन बयानों पर कैसे रोक लगेगी?
गरीबी किसी ‘आदत’ या ‘आलस्य’ का नतीजा नहीं, बल्कि नीतिगत विफलताओं की देन है। जब तक रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य में निवेश नहीं बढ़ेगा, तब तक “रेवड़ियों” की बहस बेमानी रहेगी। जनता को उम्मीद है कि संवैधानिक संस्थाएं गरीबों की पीड़ा को समझेंगी, न कि उन पर लेबल चस्पा करेंगी।
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