अभी पिछले एक हफ्ते दो-तीन वैवाहिक समारोह में जाने का मौका मिला.सभी जगहों पर लेखकों और संस्कृतिकर्मियों के साथ-साथ लाल-पीली-नीली और जिधर दम…उधर हम वाली विचारधारा को मानने वाले पत्रकारों से मुलाकात हुई. कुछेक अच्छे पत्रकारों से भी मिलना हुआ।
अब वह जमाना नहीं रहा जब पत्रकार आपस में मिलते थे तो खबरों और खबरों की भाषा पर बात किया करते थे. इस अखबार ने खबर में लीड ले ली है. उस अखबार ने खबर को दबा दिया है. फलांने रिपोर्टर की स्टोरी जबरदस्त थीं…क्या गजब की संपादकीय थीं…आदि-आदि।
अब ऐसा नहीं है. अब पत्रकार आपस में मिलते हैं तो सबसे पहले यहीं पूछते हैं-सरकार में इंजन कौन है? इंजन का ड्राइव्हर कौन है? कंडक्टर कौन है ? सरकार कैसी चल रही है? चल भी रही है या नहीं ? अगर चल रही है तो किसकी चल रही है?
कोई जुगाड़ है क्या ?
विज्ञापन कम हो गया है।
बदलते वक्त के साथ-साथ पत्रकारों की भूमिका थोड़ी बदल गई है. अब जो किसी अखबार का मालिक है वह भी अधिमान्य और वरिष्ठ पत्रकार है और जो वरिष्ठ पत्रकार है उसी को पूरा हक है कि वह पत्रकारिता पर ज्ञान बांटे. अब संपादक नाम की कोई संस्था बची नहीं… इसलिए किसी तरह का कोई ज्ञान आपके काम का है तो उसे ग्रहण कर लेने में कोई बुराई नहीं है. मैं कभी-कभी ज्ञान ग्रहण कर लेता हूं. कभी-कभी ज्यादा पकाओ मत…कहकर किनारा कर लेता हूं. वरिष्ठ जब गरिष्ठ हो जाते हैं तो उन्हें झेलना दर्द की सकरी गलियों से गुजरने जैसा होता है।
खैर, पत्रकार भी करें तो करें क्या? सैलरी कम है. कई बार तो मिलती ही नहीं। इसलिए अखबारों और चैनलों में काम करने वाले ज्यादातर पत्रकारों को जनसंपर्क और संवाद के अलावा होली-दीवाली मिलने पर मिलने वाले विज्ञापनों पर निर्भर रहना पड़ता है।
विज्ञापन लाओगे तो प्रतिशत मिलेगा।
प्रतिशत मिलेगा तो घर की गाड़ी चलेगी।
बहरहाल, वैवाहिक समारोहों में शेयर होल्डर यानी प्रतिशत पर जीवन यापन करने वाले पत्रकारों के अलावा संस्थान से तनख्वाह पाने वाले पत्रकारों के दुख-दर्द को करीब से जानने-समझने का मौका मिला।
मोटे तौर पर सभी पत्रकारों ने यह माना कि भूपेश बघेल की सरकार ज्यादा अच्छी चल रही थीं. बघेल की सरकार में पत्रकारों का जबरदस्त सम्मान था।
(व्यक्तिगत हमले करने वाले एक-दो पत्रकारों पर दर्ज किए गए प्रकरण को छोड़ दिया जाय तो किसी भी पत्रकार को उनसे शिकायत नहीं थीं।)
बतौर मुख्यमंत्री वे जब भी प्रेस कॉन्फ्रेंस करते थे सबको आमंत्रित करते थे।उनकी प्रेस कॉन्फ्रेंस में यह नहीं देखा जाता था कि कौन किस विचारधारा का है।
पत्रकारों का कहना था कि बघेल की सरकार में छोटे-बड़ें सभी तरह के पोर्टल और पत्र-पत्रिकाओं को सहायता मिल ही जाया करती थीं. बघेल के मुख्यमंत्री रहते ही पत्रकार सुरक्षा कानून का ड्राफ्ट तैयार हुआ था.मुख्यमंत्री के आसपास रहने वाले राजनीतिक और मीडिया सलाहकार भी पत्रकारों का खास ध्यान रखते थे. पत्रकार भूपेश बघेल के मीडिया मैनेंजमैंट की तारीफ करते हुए मिले. पत्रकारों ने कहा कि जब वे मुख्यमंत्री थे तब भी बड़ी सहजता से मीडियाकर्मियों का फोन उठा लिया करते थे. पत्रकारों के सुख-दुख में उनके घर जाकर शामिल होना उनकी खास विशेषता थीं. पत्रकारों ने बघेल सरकार में पदस्थ रहे दो जनसंपर्क आयुक्त तारण प्रकाश सिन्हा और दीपांशु काबरा के कामकाज को याद किया. पत्रकारों ने माना कि दोनों आयुक्तों ने बेहद विषम परिस्थितियों में जनसंपर्क विभाग का दायित्व संभाला और बखूबी संभाला. दोनों आयुक्तों ने पत्रकारों की जरूरतों और मान-सम्मान का विशेष ख्याल रखा।
पत्रकारों को भूपेश बघेल और उनकी सरकार के कामकाज की याद आने लगी है।
मतलब, कहीं न कहीं कुछ न कुछ गड़बड़ है।
समारोह में एक पत्रकार ने ही बताया कि बघेल को केवल पत्रकार ही नहीं…
किसान भी बड़ी शिद्दत से याद कर रहे हैं। पत्रकारों ने प्रदेश की बिगड़ती हुई कानून-व्यवस्था को लेकर भी चिंता जताई।
कुछ पत्रकारों ने तो इस बात पर भी आशंका जताई कि आगामी विधानसभा चुनाव के ठीक पहले बघेल किसी न किसी झूठे मामले में फंसा दिए जाएंगे।
(लेखक: राजकुमार सोनी, संपादक, अपना मोर्चा)
Recent Comments