देश में आज चार मंदिर माने जाते है। एक संसद जिसे लोकतंत्र का मंदिर कहा जाता है और अदालत जिसे लोकतंत्र का मंदिर माना जाता है, इनके अलावा कल कारखाने जो श्रम का मंदिर कहलाते हैं। इसके बाद धर्म का मंदिर जहा अनुष्ठान पूजा अर्चना होती है।
इन चारो मंदिरों में चार मंदिर संसद, कल कारखाने, औेर अदालत ये ऐसे मंदिर हैं जिसे आम लोगों का जीवन निर्भर रहता है। इनमें सबसे मुश्किल हालात का सामना श्रम के मंदिर के लिए जमीन देने वाले लोग कर रहे हैं, जिन्हें सरकार ने भू विस्थापित कहा है।
ये नाम सरकार ने ही दिया है, इन्होंने अपने मन से नही रखा। हां संगठन जरूर बनाया। अपनी लड़ाई लड़ने के लिए, जो हर कोई बना सकता है। फिर ये तो बना ही सकते है। क्योंकि इन्होंने राष्ट्र के विकास के लिए अपने पुरखों की जमीन दी है। बदले में सरकार ने उन्हें उधार की जमीन में बसाया। उधार इसलिए कहा जा रहा है कि इस जमीन पर मालिकाना हक तत्काल नही मिलता।

मिलता है तो पट्टा। और जिन्हे विस्थापन की श्रेणी में रखा जाता है ऐसे लोग जिन्होंने अपनी जमीन खदानों के लिए दी। संयंत्रों के लिए दी। जिनसे आज पूरा देश चमक रहा है लेकिन इनकी जिंदगी में चमक नही, कोई उजाला नहीं है। ये आज भी अपने हक की लड़ाई लड़ रहे है। जिनमे अधिकांश आदिवासी हैं। इनकी जमीनों में खदान, संयंत्र खड़े होने के साथ इनकी आलीशान कॉलोनियां भी बनी जिनमे अफसरों का परिवार निवास करते हैं। जिनके बच्चे इन्ही कालोनियों में रह कर पढ़ाई कर विदेश यात्रा करते हैं। और भू विस्थापित और उनके बच्चे संघर्ष करते हैं।
आधिकारी अपनी जमीनों में बनी शानदार कॉलोनियों को देखते हैं, जो दूधिया रोशनी में डूबी रहती और खूब सूरत लगती है, लेकिन ये भू विस्थापित जब अपनी मांगों के लिए संघर्ष करते हैं, तब इन पर कानून के उल्लघंन करने की नाम पर कार्रवाई हो जाती है। बस यहीं से विवाद की स्थिति खड़ी हो जाती है। माना कि इन्होंने उलंघन किया, लेकिन क्यों किया इसकी तह तक तो जाइए साहब। आखिर किस वजह से इन्हें कानून का उल्लघंन करने मजबूर होना पड़ा और उस जगह के कानून उलंघन की बात हो रही है जहां कानून का, नियम कानून को परे रख कर कार्य किए जाते हैं।

कोरबा में दो घटनाएं ऐसी हुई इसमें भूविस्थापितो पर अपराध दर्ज करने की करवाई प्रमुखता से शामिल है। सवाल यह उठता है की इन्हे न्याय कहां मिलेगा? लोकतंत्र के मंदिर संसद में, जहां जमीन अधिग्रहण कानून बनता है? जहां औद्योगिक संयत्र खड़ा करने की योजनाएं बनती हैं? या अदालत, जहा इंसाफ मिलता है?
ये दो मंदिर ऐसे है जमीन देने वाले भू विस्थापितो के लिए कुछ हो सकता है किंतु वर्तमान स्थिति यह कहती है की अब सब कुछ बदल गया है इन मंदिरों में अब कुछ नहीं होता मामले लटके रहते हैं, तारीख पर तारीख केवल तब्दीलियां चलते रहती हैं और देश के विकास के नाम पर जमीन देने वालों की पुनर्वास, बसाहट, मुआवजा, नौकरी आदि बुनियादी नागरिक अधिकार की लड़ाई लड़ते लड़ते तीसरी पीढ़ी आ जाती है और लड़ाई खत्म नहीं होती। (आलेख : अरविंद पांडे)

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