‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म को लेकर देश में माहौल गरमा गया है। गर्माये भी क्यों न। कश्मीर पंडितों के दर्द पर बनी फिल्म को भाजपा राजनीतिक रूप से बेचने में जो लग गई है। खुद प्रधानमंत्री फिल्म का प्रमोशन करने के लिए आगे आये हैं। बाकायदा भाजपा शासित उत्तर प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, त्रिपुरा, गोवा और हरियाणा में फिल्म को टैक्स फ्री कर दिया गया है।
फिल्म को लेकर फिल्म के प्रशंसकों और विरोधियों के अपने-अपने तर्क -वितर्क हैं। देश में मंथन करने की जरूरत इस बात की है कि आखिरकार जिस तरह से खुद सरकारें फिल्मों के प्रमोशन के लिए आगे आई हैं। जिस तरह से फिल्म में एक विशेष धर्म के अलावा जेएनयू और लाल झंडे को लेकर नफरत का माहौल बनाया गया है। जिस तरह से फिल्म को देखकर दर्शक न केवल ग़मज़दा दिखाई दे रहे हैं बल्कि उनमें गुस्से के अलावा नफ़रत की भावना भी देखी जा रही है। उसके परिणाम क्या सामने आएंगे ?
अक्सर देखा जाता है कि उन फिल्मों को टैक्स फ्री किया जाता है जो फिल्में समाज को शांति, सौहार्द्र, भाईचारा बढ़ाने और नफरत मिटाने का संदेश देती हैं। ऐसा कोई संदेश तो फिल्म में दिखाई नहीं देता है। फिल्म में कश्मीरी पंडितों के साथ कत्लेआम और खुलेआम मस्जिद से कश्मीर पंडितों के लिए कश्मीर छोड़ने या फिर जान गंवाने की चेतावनी जारी कर कश्मीरी पंडितों के साथ हुए अत्याचार को दर्शाया गया है। फिल्म में जिस तरह से जेएनयू कैंपस, लाल झंडे को देश के दुश्मन रूप में दिखाया गया है। क्या इनसे जुड़े लोग इस माहौल के खिलाफ मुखर नहीं होंगे ? 2016 में जेएनयू में लगे नारों को जम्मू-कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के पलायन/नरसंहार से जोड़ने का क्या मतलब है?
फिल्म में जिस तरह से न्याय का इंतज़ार दिखाया गया है। फिल्म में पुष्कर नाथ पंडित की भूमिका निभा रहे अनुपम खेर के मुंह से यह बात कहलवाना कि न्याय तब होगा जब अपनी मातृभूमि छोड़ चुके कश्मीरी पंडित दोबारा अपनी सरजमीं पर वापस होंगे। फिल्म आज की राजनीति का हिस्सा लगती है। क्या कश्मीरी पंडितों के लिए आवाज़ उठाते हुए जान देने वाले सैकड़ों मुस्लिम भी नहीं थे ? जिन्हें आतंकियों ने मौत के घाट उतार दिया था। जिस तरह से फिल्म में छात्र संघ चुनाव के दौरान कृष्णा के 10 मिनट से ज्यादा चले लंबे भाषण में कश्मीर की महत्ता को बताया जाता है। कश्मीर को ज्ञानियों यानी पंडितों की ज़मीन बताया जाता है, जिस तरह से नाजियों द्वारा यहूदियों के कत्लेआम की तुलना मुसलमानों द्वारा कश्मीरी पंडितों के कत्लेआम से की गई है।
कश्मीरी पंडितों को जबरन मुसलमान बनाने की बात की गई है। ऐसा महसूस होता है कि जैसे आज की तारीख में यह कोई सोशल मीडिया की प्रचार सामग्री हो। जिस तरह से आतंकियों के हाथों कश्मीरियों का नरसंहार दिखाया गया है, जिस तरह से पुष्कर नाथ की बहू को उनके बेटे के सामने निर्वस्त्र करने और आरी मशीन से काट दिए जाने के दृश्य फिल्माए गये हैं। एक साथ 24 स्त्री-पुरुष-बच्चे को बारी-बारी से गोली मारते दिखाया गया है, निश्चित रूप से किसी का भी खून खोल उठेगा।
फिल्म में जिस तरह से फिल्म में कश्मीरी पंडितों के दर्द को उभारा गया है तो लगता है कि जैसे उनके दर्द को राजनीतिक रूप से बेचने के लिए तैयार किया गया हो। मस्जिद और धार्मिक नारे का उपयोग, कम्युनिस्टों और जेएनयू छात्रों के खिलाफ नफरत, मुस्लिम नेतृत्व को नकारना किसी राजनीति का मकसद लगता है। यदि फिल्म में कश्मीरी पंडितों से हमदर्दी या उन्हें सहयोग करने वालों का भी जिक्र किया जाता तो एक अच्छा सामाजिक संदेश जाता।
ऐसे में मंथन करने की जरूरत इस बात की है कि देश में बन रहा यह नफरत का माहौल देश और समाज को कहां ले जाएगा ? इस फिल्म से बनाये जा रहे माहौेल के परिणाम क्या आएंगे ? क्या इस फिल्म के माध्यम से एक विशेष पार्टी के वोटबैंक को संगठित करने का प्रयास नहीं किया गया है ? क्या इस फिल्म के खुद सरकार के बढ़ावे के बाद अब आजादी के बाद हुए दंगों पर फ़िल्में बननी शुरू नहीं हो जाएंगी ?
क्या 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए सिख दंगों पर फिल्म नहीं बनेगी ? क्या 1989 में बिहार भागलपुर दंगे पर फिल्म नहीं बनेगी ? गुजरात के गोधरा में हुए दंगे पर फिल्म नहीं बनेगी ? 2013 में हुए मुज़फ़्फ़रनगर दंगे पर फिल्म नहीं बनेगी ? कल्पना कीजिये जिस तरह से भाजपा ने द कश्मीर फाइल्स फिल्म का प्रमोशन किया है।
यदि ऐसे ही देश में हुए कत्लेआम और दंगों पर फिल्म बनकर सरकारें और राजनीतिक दल उनके प्रमोशन में लग जाएं तो देश और समाज का क्या होगा ? क्या कत्लेआम और दंगों के समय से ज्यादा दूषित माहौल अब नहीं हो जाएगा ?
आलेख : चरण सिंह राजपूत
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