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65 साल बाद भी जीवंत और प्रासंगिक हैं बाबा साहब

1956 में – 6 दिसंबर को – नहीं रहे थे बाबा साहब डॉ भीमराव अम्बेडकर। मगर कमाल का ही है उनका व्यक्तित्व और कृतित्व, जिसके चलते वे आज साढ़े छः दशक बाद भी न सिर्फ जीवंत और प्रासंगिक है, बल्कि एजेंडा निर्धारित कर कर रहे हैं। उन्हें विशेष रूप से याद करने के अनेक कारण हैं, यहां उनमें से कुछ एक पर नजर डालना उचित होगा। लेकिन शुरुआत एक कैविएट से और वह यह कि हिंदुस्तान की आज़ादी के आंदोलन के सबसे बड़े नेताओं में से एक डा. बाबासाहेब अम्बेडकर के व्यक्तित्व को छाँट-तराशकर उन्हे केवल दलितों के नेता के तौर पर स्थापित करना उनकी समकालीन सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था की एक बड़ी साजिश थी, इसे आज भी जारी रखा जा रहा है। और यह “चतुराई” सिर्फ उनके जन्मना विरोधी ही नहीं कर रहे, उनके स्वयंभू ठेकेदार बने कथित अनुयायी भी कर रहे हैं।

ताजा इतिहास में बाबासाहेब की राजनैतिक और सामाजिक यात्रा की तुलना केवल महात्मा गांधी से की जा सकती है, जिन्होंने राजनीतिक प्रश्नों के साथ-साथ सामाजिक प्रश्नों को भी अपने विचार के अनुरूप उठाया और लिया। भगतसिंह जरूर अपनी विचारधारा के बल पर उनके कद से प्रतियोगिता कर सकते थे, लेकिन 23 साल की उम्र में हो गयी उनकी शहादत ने उन्हे ज्यादा समय नहीं दिया।

बाबा साहब (उन्हें यह संबोधन उनके एक मार्क्सवादी सहयोगी कामरेड आर बी मोरे ने दिया था) के द्वारा दिये गए नारे — अध्ययन करो, संगठित हो और संघर्ष करो — से बड़ा नारा, वर्गीय और जातीय आधारों पर बंटे समाज वाले देश के शोषितों को जगाने वाला और अपने अधिकारों के लिये संघर्ष करने के लिये प्रेरित करने वाला, और कोई नहीं है। शोषित कोई भी हो सकता है, फिर वह सामाजिक रूप से दलित और अस्पृश्य हो, आर्थिक रूप से दलित मजदूर हो या फिर दोनों ही रूपों में दलित स्थिति को प्राप्त महिला हो। भारतीय समाज में उपस्थित इन तीनों ही प्रकार के शोषितों के लिये उन्होने अपनी हर हैसियत में न केवल संघर्ष किया, बल्कि उन्हे अधिकार भी दिये।

1942 से 1946 के बीच वाइसराय कौंसिल के सदस्य रहने के दौरान उन्होने न केवल हिंदुस्तान के श्रमिकों के लिये सबसे पहले 8 घंटे काम का कानून बनवाने में सबसे अहम भूमिका निभाई, बल्कि महिला श्रमिकों के हितों के लिये भी कई कानून बनाये, जो बाद में आज़ादी के बाद बने श्रमिकों के लिये बनाये गये कानूनों के लिये आधार बने। महिलाओं के लिये समान काम के लिये समान वेतन का कानून इस देश में बाबासाहेब की देन है, जो कानूनी रूप से अमेरिकी महिलाओं को आज भी प्राप्त नहीं है।

भारतीय रिज़र्व बैंक की परिकल्पना भी बाबा साहेब अंबेडकर की ही थी, जिसने दुनियां भर में आई मंदियों के दौर में भारतीय नागरिकों के पैसे और देश की अर्थव्यवस्था की रक्षा की।

लेकिन उनका सबसे अधिक योगदान इस देश की महिलाओं के अधिकारों के लिये उनका संघर्ष था। भारत के इस पहले कानून मंत्री ने महिलाओं के हक़ों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की वजह से अपने पद से इस्तीफा तक दे दिया था जब लोकसभा में हिंदू कोड बिल के खिलाफ तमाम जनसंघी और तत्कालीन राष्ट्रपति सहित तथाकथित प्रगतिशील कांग्रेस के नेता भी खडे हो गये थे। यहां यह बात ध्यान देने की है कि इस बिल के सदन में पेश करने के पूर्व संविधान सभा ने देश में नागरिकों के बीच धर्म, जाति व लिंग के आधार पर भेदभाव न करने की संविधान की मूल प्रस्तावना को स्वीकार कर लिया था। इसके बावजूद महिलाओं को अधिकार देने वाले इस विधेयक का कड़ा विरोध और इसके खिलाफ जनसंघ के द्वारा कमेटी का गठन भी आरएसएस के द्वारा कर लिया गया था। इससे क्षुब्ध डा. अंबेडकर ने 1951 में कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था। बाद में उनके इस बिल के सभी पक्षों को नेहरू सरकार ने अलग-अलग कानून बनाकर कुछ हद तक लागू किया। हालांकि इसमें उन्हें 10 साल लग गए। निर्वाचित सदनों में अभी इसे होना शेष है।

अंबेडकर के प्रति इस देश की महिलाओं को इसलिये भी ऋणी रहना चाहिये कि उनकी अगुआई में आज़ादी के बाद महिलाओं को कानूनन कई अधिकार दिये। इनमें सबसे प्रमुख था वोट देने का अधिकार। दुनियां भर में सोवियत संघ और चीन के अलावा उस वक्त बहुत कम देश ऐसे थे, जिनमें आजादी के साथ महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिला हुआ था।

अंबेडकर का दृढता पूर्वक यह मानना था कि इस देश को एक प्रगतिशील और वैज्ञानिक चेतना से संपन्न देश बनाने में मनुवाद सबसे बडा अडंगा है। मनुवादी परंपराएं संघर्ष से ही खत्म होंगी, लेकिन जहां पर भी मौका मिले वहां पर, शोषितों को कानूनन अधिकार देने से भी ये परंपरायें कमजोर होंगी। उनका यह भी मानना था कि इन परंपराओं की सबसे बड़ी वाहक महिलायें हैं, जो खुद इसकी बेड़ियों भी जकड़ी हुयी हैं। इसलिये वे महिलाओं की शिक्षा के सबसे बडे झंडाबरदार थे। कोलंबिया यूनिवर्सिटी में उनके एक शोध पत्र का आधार भी यही था।

डा अंबेडकर ने केवल अपने बोलने और लिखने में ही महिलाओं के हकों की बात नहीं की, बल्कि उनके हर आंदोलन में महिलाओं ने बड़ी संख्या में हिस्सेदारी की। 20 जुलाई 1940 को नागपुर में अखिल भारतीय शोषित पीड़ित महिलाओं के सम्मेलन को संबोधित करते हुये उन्होने महिलाओं के संगठन के महत्व पर बहुत जोर दिया। उनके नेतृत्व में हुये कई आंदोलनों में न केवल दलित और आदिवासी महिलाओं ने, बल्कि सवर्ण महिलाओं ने भी बड़ी संख्या में हिस्सेदारी की।

डा अंबेडकर का स्पष्ट मानना था कि आंज़ादी के बाद भारतीय संमाज जाति आधारित गैरबराबरी वाला समाज नहीं होना चाहिये। इसलिये उन्होने शिक्षा, अंतर्जातीय विवाह और सामूहिक भोज के तरीके अपनाने पर जोर दिया, जिससे पितृसत्ता और मनुवादी परंपराओं की जकड़न टूटती। महाड सत्याग्रह के बाद उन्होने मनुस्मृति का दहन किया था, जिसमें करीब 50 महिलाओं ने भाग लिया था।

डा अंबेडकर ने भारतीय संविधान को सदन में प्रस्तुत करते समय यह कहा था कि आज के बाद से हम एक अंर्तविरोधों से भरे समाज में प्रवेश कर रहे हैं, जहां पर हमने राजनैतिक रूप से सभी नागरिकों को समानता दी है, लेकिन आज भी हमारा समाज, लैंगिक, सामाजिक, धार्मिक रूप से भयानक गैर-बराबरियों पर टिका हुआ है। ये गैर-बराबरियां जब तक जिंदा रहेंगी, तब तक इस राजनैतिक बराबरी का अस्तित्व भी खतरे में पड़ा रहेगा। इसलिये देश के संविधान की मूल आत्मा यानि देश के हर नागरिक के समान अधिकार की भावना की रक्षा करना है, तो जितनी जल्दी इन गैर-बराबरियों से छुटकारा मिले, उतना अच्छा होगा।

जाति के बारे में उनका दृष्टिकोण सर्वथा वैज्ञानिक था!! कुछ हजार वर्ष पुरानी जाति प्रणाली के वे पहले सुसंगत व्याख्याकार थे। उन्होंने जाति व्यवस्था का तब तक का सबसे उन्नत विश्लेषण किया था। वे अपने जमाने के बड़े नेताओं में अकेले थे, जिसने जाति व्यवस्था के ध्वंस – ऐनीहिलेशन – की बात की। उसके धार्मिक मूलाधार को चिन्हांकित कर उसके भी निर्मूलन पर जोर दिया।

वे कहते हैं : “एक आर्थिक संगठन के रूप में (भी) जातिप्रथा एक हानिकारक व्यवस्था है, क्योंकि इसमें व्यक्ति की स्वाभाविक शक्तियों का दमन होता है।” (ऐनीहिलेशन ऑफ़ कास्ट, 1936)

इसी में वे यह भी कहते हैं कि : “जाति एक ऐसा दैत्य है, जो आपके मार्ग में खड़ा है। जब तक आप इस दैत्य को नहीं मारोगे, आप न कोई राजनीतिक सुधार कर सकते हो, न आर्थिक सुधार।” जो अम्बेडकर जातियों के ध्वंस की बात करते हैं, उन पर “वर्ण-व्यवस्था को और आधार देते हुये वर्ण-विभाजन को बढ़ावा देने, वर्ग-संघर्ष को कमजोर करने, जातिगत चेतना को पैदा करने और मजबूत करने” का आरोप लगाना अम्बेडकर का कुपाठ ही नहीं, सरासर पूर्वाग्रह भी है।

फेबियन होने के बावजूद उन्होंने भारत में जाति और वर्ग के द्वैत की अद्वैतता को पहचाना, इनके अंतर्संबंधों की पड़ताल की और आर्थिक तथा सामाजिक दोनों मोर्चों पर लड़कर जीतने का आव्हान किया।

मजदूरों के अधिकार, भूमि के सामंती रिश्तों के उन्मूलन की उनके द्वारा सुझाई और उनके कार्यकाल में बनाई नीतियां इसी समझ का विस्तार थीं/हैं।

डॉ. आंबेडकर को डब्बे या खांचे में कैद करने की कोशिशें अन-अम्बेडकरी हैं। बुद्ध के शब्दों में मनुष्य हमेशा बदलाव की प्रक्रिया में रहता है, बाबा साब भी अपने अंदर बदलाव करते रहते थे। वे परिपक्व से और परिपक्व होने की सतत निरंतरता में रहे। कुछ मसलों को लेकर अम्बेडकर की मार्क्सवाद से असहमति थी, किन्तु वे मार्क्सवाद विरोधी नहीं थे। उन्होंने आधुनिक भारत को लेकर अनेक मंचों, आयोगों को लेकर जो नीतियां सुझाई हैं, वे कम्युनिस्ट नीतियों के बहुत नजदीक बैठती हैं।

जब तक एक भी तालाब, कुंआ, हैंडपंप महाड़ के चवदार तालाब की तरह अछूतो के लिए प्रतिबंधित है : बाबा साहब अम्बेडकर प्रासंगिक रहेंगे। जब तक हर फैक्ट्री की चिमनी और काम के ठीये पर लाल झण्डा फहराने के साथ ही गाँव के हर कुँए तालाब पर लाल झण्डा नहीं फहरेगा, भारत के समाज की मुक्ति सम्भव नहीं।
-बादल सरोज
(लेखक बादल सरोज पाक्षिक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)

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