26/11 मुंबई आतंकी हमलों में कथित भूमिका के लिए भगोड़े पाकिस्तानी मूल के कनाडाई कारोबारी तहव्वुर राणा के भारत प्रत्यर्पण की खबरें इस वक्त मीडिया में प्रमुखता से छाई हुई हैं। अजमल कसाब के बाद, 26/11 मामले में मुकदमे का सामना करने वाला वह दूसरा सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति हो सकता है। स्वाभाविक रूप से, यह उम्मीद की जा रही है कि उसके प्रत्यर्पण से इस भयानक साजिश के पीछे के अन्य महत्वपूर्ण कड़ियों, आतंकी समूहों द्वारा निभाई गई भूमिका और पूरे ऑपरेशन को पाकिस्तानी प्रतिष्ठान से मिले समर्थन जैसे रहस्यों पर से और अधिक पर्दा उठ सकेगा।
हालाँकि, यह मान लेना जल्दबाजी होगी कि इस घटनाक्रम से 26/11 के नृशंस आतंकवादी हमलों की कहानी पूरी हो जाएगी। हमले के मास्टरमाइंड हाफिज सईद और उसके साथियों पर पाकिस्तान में मुकदमा चलेगा या उन्हें कभी भारत प्रत्यर्पित किया जाएगा, इस संभावना से हम अभी भी बहुत दूर हैं।
इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इस आतंकी हमले के मुख्य साजिशकर्ता माने जाने वाले तहव्वुर राणा के करीबी दोस्त डेविड कोलमैन हेडली का भारत में कभी मुकदमा होगा या नहीं, इस बारे में अब तक कोई स्पष्ट संकेत नहीं है। यह आज भी एक रहस्य बना हुआ है कि अमेरिकी सरकार ने हेडली के साथ क्या समझौता किया है, जिसके तहत उसे भारत प्रत्यर्पित न करने का वादा किया गया है।
यह देखते हुए कि इस हमले से संबंधित कई प्रासंगिक तथ्य धीरे-धीरे विस्मृति में चले गए हैं, यह याद दिलाना आवश्यक है कि 26/11 का हमला खूंखार आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी) का कृत्य था। पाकिस्तान स्थित इस आतंकी संगठन और पाकिस्तानी सुरक्षा प्रतिष्ठान के अधिकारियों द्वारा प्रशिक्षित दस सशस्त्र आतंकवादियों ने 26 नवंबर, 2008 को मुंबई में 12 स्थानों पर समन्वित आतंकवादी हमले किए थे।
इन हमलावरों में से एकमात्र जीवित पकड़ा गया अजमल कसाब था, जिसकी पहचान कुछ बहादुर पाकिस्तानी पत्रकारों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने पाकिस्तान के नागरिक के रूप में की थी, भले ही पाकिस्तानी शासक वर्ग ने इसे स्वीकार करने में आनाकानी की। अजमल कसाब को बाद में 2012 में पुणे की यरवदा जेल में फाँसी दी गई थी।
मौजूदा तहव्वुर राणा प्रत्यर्पण को सत्तारूढ़ दल द्वारा ‘बड़ी जीत’ के रूप में प्रचारित किया जाना कुछ हास्यास्पद प्रतीत होता है।
इस घटनाक्रम को लेकर सरकार के समर्थक काफी उत्साहित हैं। यह उत्साह शायद इसलिए है क्योंकि हाल के दिनों में मोदी सरकार को अमेरिका के राष्ट्रपति के रूप में ट्रंप के अनुमोदन के बाद अपने कथित ‘कायरतापूर्ण’ व्यवहार (जैसे ‘अवैध प्रवासियों’ को वापस भेजने के मुद्दे पर चुप्पी, नए टैरिफ युद्ध पर मौन प्रतिक्रिया) के लिए विपक्ष की कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ रहा था।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह प्रत्यर्पण पूर्ववर्ती कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के दौरान शुरू की गई कानूनी प्रक्रिया और उच्च स्तर पर किए गए अथक प्रयासों के बिना असंभव होता। यूपीए सरकार में तत्कालीन गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने प्रत्यर्पण पर टिप्पणी करते हुए जो कहा था, वह ध्यान देने योग्य है। उन्होंने इसे इस बात का प्रमाण बताया था कि “जब कूटनीति, कानून प्रवर्तन और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग ईमानदारी से और बिना किसी तरह की छाती ठोके किया जाता है, तो भारतीय राज्य क्या हासिल कर सकता है।” यह किसी दिखावे का मामला नहीं था।
संक्षेप में कहें तो मोदी सरकार इस प्रत्यर्पण पर जिस तरह प्रतिक्रिया दे रही है, उसमें दो बड़ी खामियां स्पष्ट हैं।
पहली है ‘चयनात्मक विस्मृति’ (Selective Amnesia)। यह पिछली यूपीए सरकार द्वारा इस मामले को संभालने के तरीके और दोषियों व मास्टरमाइंड को पकड़ने के लिए शुरू की गई कानूनी प्रक्रिया को नज़रअंदाज़ करना है।
तत्कालीन गृह सचिव श्री जी. के. पिल्लई, जिन्होंने तत्कालीन यूपीए सरकार की ओर से अमेरिका में मुंबई आतंकवादी हमले का मामला भी संभाला था, ने ‘द हिंदू’ को दिए एक साक्षात्कार में जो साझा किया था, उसे दोहराना महत्वपूर्ण है। उन्होंने खुलासा किया था कि आतंकी योजना के बारे में जानने के बावजूद, अमेरिका ने राणा के स्कूली दोस्त और मुख्य साजिशकर्ता डेविड कोलमैन हेडली को उसकी ‘भारत विरोधी गतिविधियां’ जारी रखने दीं; और 2009 में उसकी गिरफ्तारी के बाद, अमेरिकियों ने उसे ‘प्ली बारगेन’ (Plea Bargain) की पेशकश करके भारत में उसके प्रत्यर्पण को रोक दिया। उनके नेतृत्व में की गई जांच के अनुसार, पूरे ऑपरेशन में “तहव्वुर राणा एक छोटा खिलाड़ी था।”
दूसरी खामी इस तथाकथित ‘बड़ी जीत’ का श्रेय लेने और पिछली कांग्रेस सरकार पर कालिख पोतने के अदूरदर्शी प्रयास में निहित है। इस हड़बड़ी में, भाजपा सरकार न तो मामले की गहरी बारीकियों के बारे में बताने को तैयार है और न ही दोषियों को सजा दिलाने में अमेरिकी सरकार की स्पष्ट अरुचि और उन्हें बचाने के ‘बुरे इरादे’ वाले रवैये पर बात करने को इच्छुक है। आज यह विश्वास करना काफी मुश्किल होगा कि आतंकवाद से लड़ने और पीड़ितों की मदद करने की अपनी घोषणाओं के बावजूद, अमेरिकी प्रतिष्ठान ने भारतीय एजेंसियों को हेडली तक पहुँचने देने से इनकार करने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई।
उन्होंने यह अजीब तर्क दिया कि लश्कर-ए-तैयबा का यह षड्यंत्रकारी (जैसा कि अमेरिका ने खुद दावा किया है) “…भारतीय जांचकर्ताओं द्वारा पूछताछ का सामना नहीं करना चाहता है…”।
पीटीआई द्वारा जारी और रेडिफ.कॉम द्वारा प्रस्तुत (15 दिसंबर, 2009) एक रिपोर्ट में बताया गया था कि “अपनी चर्चा के दौरान, एफबीआई अधिकारियों ने भारतीय जांचकर्ताओं को बताया कि हेडली भारतीय जांचकर्ताओं द्वारा पूछताछ का सामना नहीं करना चाहता है, जिससे यह संदेह पैदा होता है कि अमेरिकी एजेंसी ही चाहती है कि भारत उससे पूछताछ न करे।”
कोई भी देश, जो दुनिया भर में आतंकवादी गतिविधियों और उनके कारण होने वाली निर्दोष लोगों की जान की परवाह करता है, वह निश्चित रूप से अमेरिकी सरकार के इस रुख से हैरान होगा। अगर हेडली वास्तव में लश्कर-ए-तैयबा का सदस्य था, तो क्या यह अधिक तर्कसंगत नहीं था कि उससे पूछताछ की जाए, ताकि 26/11 हमले की पूरी कहानी में कुछ कमियों को उजागर किया जा सके और साथ ही इससे इस संगठन के अखिल भारतीय नेटवर्क का पता लगाने में मदद मिल सकती थी; खासकर इस तथ्य को देखते हुए कि हेडली ने खुद पुणे में जर्मन बेकरी जैसी जगहों की रेकी की थी। बेशक, अमेरिका ने भारत से गए जांचकर्ताओं की एक टीम के सामने अपने इरादे स्पष्ट कर दिए थे, जो इस उम्मीद से गए थे कि उन्हें हेडली तक आसानी से पहुँच मिल जाएगी, और जब अमेरिका ने कुछ तकनीकी कठिनाइयों का हवाला देते हुए उनके अनुरोध को स्वीकार करने से साफ इनकार कर दिया, तो उन्हें निराशा हाथ लगी।
आखिरकार, अमेरिकी सरकार, जिसने दुनिया के किसी भी हिस्से से आतंकवाद के संदिग्धों को असाधारण तरीके से प्रत्यर्पित करने की प्रथा में महारत हासिल कर ली है, और जिसने ग्वांतानामो और बगराम की तर्ज पर दुनिया भर में गुप्त जेलों का निर्माण किया है, जिसमें बंदियों को हर तरह के मानवाधिकार से वंचित किया जाता है, वह भारत में हाल के समय में हुए सबसे बड़े आतंकवादी हमले के एक प्रमुख खिलाड़ी तक भारतीय जांचकर्ताओं को पहुँच प्रदान करने में ‘तकनीकी कठिनाइयों’ के कारण विवशता क्यों महसूस कर रही थी? अमेरिकी सरकार की कार्रवाई में या हेडली को सौंपने में काल्पनिक ‘तकनीकी कठिनाइयों’ की बात करने में कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
अमेरिका के इतिहास पर सरसरी निगाह डालने से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि वह खुद भी कई बार इसी तरह के कपटपूर्ण व्यवहार में लिप्त रहा है। सार्वभौमिक भाईचारे/बहनापे के सिद्धांतों की प्रशंसा करते हुए इसने हर मामले में जो निर्णय लिए हैं, उसमें मुख्य चीज यही रही है कि अमेरिका के हितों को बेहतर ढंग से कौन सा कारक पूरा करता है। इसने इजरायली गुप्त सेवा मोसाद के गुप्त अभियानों को बेशर्मी से समर्थन दिया है, जहां इसने खुद को सूचना एकत्र करने वाले के बजाय अंतर्राष्ट्रीय हत्यारे के रूप में पेश किया है।
क्यूबा-अमेरिकी आतंकवादी पोसाडा कैरिल्स का बहुचर्चित मामला, जिसने एक नागरिक विमान को उड़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और जिसमें 73 लोग मारे गए थे, इसका एक ज्वलंत उदाहरण है। पोसाडा, जो दशकों तक सीआईए के पेरोल पर था और ‘गंदे काम’ करता रहा, अमेरिकी प्रतिष्ठान द्वारा लगातार बचाया जाता रहा, भले ही उसे दोषी ठहराया गया था और उसने अपना अपराध कबूल कर लिया था।
अब बात डेविड हेडली की। यह स्पष्ट करने की आवश्यकता है कि अमेरिकी सरकार ने हेडली को भारतीय जांच एजेंसियों को न सौंपकर ‘अजीब व्यवहार’ क्यों किया। हेडली, जिसका असली नाम दाउद गिलानी था, एक पाकिस्तानी पिता और अमेरिकी माँ का बेटा था। अमेरिका में ड्रग्स के आरोप में पकड़ा गया, दोषी ठहराया गया और जेल भेजा गया। 9/11 के बाद उसे रिहा कर दिया गया और कथित तौर पर ड्रग एन्फोर्समेंट एडमिनिस्ट्रेशन (DEA) के लिए एक अंडरकवर एजेंट के तौर पर काम पर लगाया गया। उसे उसके असली नाम के बजाय डेविड हेडली नाम से नया पासपोर्ट दिया गया, जिससे वह आसानी से दुनिया भर में, खासकर अमेरिका और पाकिस्तान के बीच यात्रा कर सके, एक दोषी अपराधी के तौर पर बिना संदेह पैदा किए।
दरअसल जब हेडली को पहली बार अक्टूबर 2009 में अमेरिका में पकड़ा गया था, तब अमेरिकियों ने घोषणा की थी कि उन्होंने डेनमार्क के एक कार्टूनिस्ट की हत्या की साजिश को नाकाम कर दिया है। जैसे-जैसे और जानकारी सामने आई, पता चला कि संदिग्ध आतंकवादी पाकिस्तानी मूल का एक अमेरिकी नागरिक था, उसके लश्कर से संबंध थे और वह भारत आया था और संभवतः 26/11 के लिए गठित एक दल का हिस्सा था। उसकी इस ‘दोहरी पहचान’ ने निश्चित रूप से उसे भारत की खुफिया जांच के दायरे में आने से बचाया।
भारत में मुख्यधारा के मीडिया चैनलों ने तब इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाया था।
सीएनएन-आईबीएन के सुमन के. चक्रवर्ती ने अपनी टिप्पणी (क्या डेविड हेडली एक डबल एजेंट था?, 15 दिसंबर, 2009) में स्पष्ट रूप से यह प्रश्न उठाया था: “डेविड कोलमैन हेडली आखिर कौन है? क्या वह सिर्फ लश्कर-ए-तैयबा का एक ऑपरेटिव है? नए सबूतों से पता चलता है कि वह एक डबल एजेंट हो सकता है… 9/11 के बाद अमेरिका को कड़ी सुरक्षा व्यवस्था में रखा गया था, लेकिन हेडली… स्पष्ट रूप से आसानी से अमेरिका और पाकिस्तान के बीच आता-जाता था। इस संबंध ने अब कई असहज सवाल खड़े कर दिए हैं।”
‘द हिंदू’ (16 दिसंबर, 2009) में विनय कुमार ने भी कुछ ऐसा ही सवाल उठाया था: ‘डेविड हेडली, एक डबल एजेंट?’ उन्होंने बताया था कि केंद्रीय गृह मंत्रालय के शीर्ष अधिकारियों के अनुसार, हेडली 26/11 के चार महीने बाद मार्च 2009 में भारत आया था, लेकिन एफबीआई समेत अमेरिकी एजेंसियों ने अपने भारतीय समकक्षों को सूचित नहीं किया, क्योंकि इससे उसे यहां गिरफ्तार किया जा सकता था। जांच में यह “पक्का संदेह” भी सामने आया कि सीआईए को 26/11 से एक साल पहले हेडली के लश्कर-ए-तैयबा से संबंधों के बारे में पता था, लेकिन उसने भारतीय एजेंसियों को इसकी जानकारी नहीं दी, क्योंकि इससे हेडली की गतिविधियों का पर्दाफाश हो सकता था।
डेविड हेडली मामले पर शायद सबसे विस्फोटक लेख हिंदुस्तान टाइम्स में 20 दिसंबर 2009 में छपा था। वीर सांघवी ने अपने विचारोत्तेजक लेख ‘क्या अमेरिका ने 26/11 हमलों पर चुप्पी साधी?’ में महत्वपूर्ण बिंदु उठाए थे कि “…अमेरिका 26/11 के इस संदिग्ध आरोपी का इतना सम्मान क्यों करता है? एकमात्र स्पष्टीकरण जो सही बैठता है, वह यह है: वह शुरू से ही एक अमेरिकी एजेंट था। अमेरिका ने उसे तभी गिरफ्तार किया, जब लगा कि भारतीय जांचकर्ता उसके पीछे पड़े हैं।” तहव्वुर राणा का सफल प्रत्यर्पण निश्चित रूप से डेविड हेडली के रहस्य और इस पूरी साजिश में अमेरिकी भूमिका से जुड़े इन सभी अनसुलझे और महत्वपूर्ण सवालों के जवाब मांगने की हमारी मांग को और अधिक ज़रूरी बना देता है। क्या मोदी सरकार इन सभी सवालों का जवाब उसी तत्परता से देने का साहस जुटा पाएगी?

राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विपरीत परिस्थितियों का सामना करने पर चुप्पी साधने के अपने ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए, सत्तारूढ़ दल की ओर से ऐसे स्पष्ट और दृढ़ दृष्टिकोण की उम्मीद करना मुश्किल लगता है। वास्तव में, ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रत्यर्पण को छात्रों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने, युवाओं को सम्मानजनक नौकरियां देने, किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देने या पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर में भड़की जातीय आग को बुझाने जैसी अपनी तमाम विफताओं से ध्यान हटाने के लिए एक सुविधाजनक राजनीतिक चाल के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है।
कांग्रेस के एक युवा नेता ने सही कहा कि यह प्रत्यर्पण “कोई कूटनीतिक सफलता नहीं है, बल्कि जनता का ध्यान भटकाने के लिए भाजपा की एक चाल है।”
(आलेख: सुभाष गाताडे, स्वतंत्र पत्रकार।अनुवादक: संजय पराते, छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष)
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