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शुक्रवार, फ़रवरी 7, 2025
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22 प्रतिज्ञायें, RSS का एजेंडा और अंबेडकर का भारत

पिछले दिनों 22 प्रतिज्ञाओं को लेकर पूरे देश में चर्चा छिड़ गई है। इसके पीछे है आम आदमी पार्टी के मंत्री राजेन्द्र पाल गौतम द्वारा 22 प्रतिज्ञाओं को बौद्ध धर्म शिक्षा के कार्यक्रम में दोहराया जाना। फिर तो हिंदुत्ववादी लोगों ने अपनी भावनाओं के आहत होने की बात कहकर इसे तूल दिया। इसके बाद राजेन्द्र पाल गौतम ने मंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया, जिसे अरविंद केजरीवाल ने तुरंत मान लिया।

यहां पर 22 प्रतिज्ञाएं विशेष महत्वपूर्ण नहीं है, क्योंकि यह हमेशा से पढ़ी जाती रही हैं। तमाम बुद्धिस्ट कार्यक्रमों में, बहुजन कार्यक्रमों में इन 22 प्रतिज्ञाओं का पढ़ा जाना एक आम बात है। लेकिन इस छोटे से कारण को लेकर किसी मंत्री को मंत्री पद से हटा देना बड़ी घटना है। इस पर हम चर्चा करें इससे पहले धर्मांतरण को ले कर बात करते हैं।

यहां यह बताना चाहता हूं कि कोई भी धर्मांतरण में प्रतिज्ञा, कसम, शपथ लेना एक आम बात है। जब कोई व्यक्ति हिंदू से मुसलमान बनता है, हिंदू से ईसाई बनता है, तो उसे उसके पुराने धर्म को न मानने की शपथ दिलाई जाती है। 22 प्रतिज्ञाएं कोई नई नहीं है। वैसे भी 22 प्रतिज्ञाओं में से केवल शुरू की 3 प्रतिज्ञाएं ही हिन्दू देवी देवता पर आधारित हैं। कई जगह ईसाई बनाते समय मां-बाप की शपथ दिलाई जाती है। पुराने देवी-देवताओं को न मानने की शपथ दिलाई जाती है।

इसी प्रकार इस्लाम धर्म में प्रवेश के दौरान भी शपथ दिलाई जाती है। ऐसी शपथ, जाहिर है कि मुस्लिम से हिंदू बनने के दौरान भी पुराने ईष्ट देव, अल्लाह या भगवान, उन्हें ना मानने की शपथ दिलाई जाती है। अब प्रश्न उठता है कि जब यह बहुत छोटी सी बात है तो इस बात को इतना तूल क्यों दिया जा रहा है। यह समझना जरूरी है जब यह छोटी सी बात है तो इस बात पर एक मंत्री को पद से हटाया क्यों गया? इसे भी समझना जरूरी है।

दरअसल बहुत सारे लोग आर एस एस के सही एजेंडे को नहीं समझ पाते हैं। लोग समझते हैं कि भारतीय जनता पार्टी को सत्ता में बनाए रखना ही आरएसएस का मकसद है। लेकिन यह सच्चाई नहीं है। सच्चाई यह है कि आरएसएस के लिए भारतीय जनता पार्टी एक मोहरा मात्र है जो उसके एजेंडों को आगे बढ़ाने में बड़ी भूमिका अदा कर रही है। दरअसल आरएसएस का मकसद है हिंदुत्व के मुद्दे को मुख्यधारा में लाना, राजनीति की धुरी में हिंदुत्व को रखना और आरएसएस अब तक अपने इस मकसद में पूरी तरह से कामयाब रहा है। ऐसी बात नहीं है कि इससे पहले हिंदुत्व के मुद्दे पर पार्टियां बात नहीं करती थीं। लेकिन 2014 के बाद में परिस्थितियां पूरी तरह बदल गईं।

अब किसी भी पार्टी के एजेंडे में कौमी एकता, भाईचारा, तर्कशीलता, विज्ञानवाद नहीं है इसीलिए कांग्रेस के राहुल गांधी अपने जनेऊ को दिखाते फिरते हैं। इसीलिए समाजवाद की बात करने वाली समाजवादी पार्टी ब्राह्मण सम्मेलन करती है। बहुजन की बात करने वाली बहुजन समाज पार्टी हाथी को गणेश बताती है। मायावती त्रिशूल लिए फिरती हैं। आम आदमी को लेकर चलने की बात करने वाली पार्टी के अध्यक्ष अरविंद केजरीवाल अपने आप को हनुमान का भक्त बताते हैं। यानी जितनी बड़ी पार्टियां हैं वह सब हिंदुत्व की तरफ बड़ी तेजी से बढ़ती हुई देखी जा सकती हैं। जेडीयू, एआईएमआईएम और एआईडीएमके को छोड़ दें तो सभी बड़ी पार्टियां हिंदुत्व के एजेंडे पर चलती हुई दिखती हैं।

दरअसल आरएसएस का भी मकसद यही है कि हिंदुत्व को राजनीति की धुरी बनाया जाए। इसलिए आरएसएस के खिलाफ बात करने वाले राहुल गांधी भी अपने आप को हिंदुत्व से अलग नहीं दिखाना चाहते हैं। मुसलमानों की बात करने वाली आप पार्टी, समाजवादी पार्टी अपने आप को हिंदुत्व के एजेंडे से जुड़े रखना चाहती है। बहुजन समाज पार्टी ने अपनी विचारधारा को लगभग पूरा बदल दिया है। इसके पीछे कोई दबाव नहीं है।* लेकिन आरएसएस ने जो माहौल बनाया है। जो भ्रम लोगों में पैदा किया है कि हिंदुत्व के बिना राजनीति नहीं की जा सकती। वह भ्रम पैदा करने में पूरी तरह से सफल हो गई।

भारतीय जनता पार्टी को छोड़कर बाकी पार्टियों को लगता है कि वह भी हिंदुत्व को लेकर बात करेंगे तो लोग भाजपा को छोड़कर उन्हें वोट देंगे। और वे सत्ता में आ जाएंगे। लेकिन यह उनका भ्रम है। सवर्ण हिन्दू किसी भी हाल में भारतीय जनता पार्टी का साथ नहीं छोड़ेंगे। बाकी जो 80 फीसदी जनता है जो कि किसी ना किसी प्रकार से हिंदुत्व से पीड़ित होते हुए भी वह हिंदुओं में शामिल है। उस जनता के लिए आज की तारीख में कोई ऑप्शन नहीं है जो विज्ञान की बात करना चाहती है , जो जनता कौमी एकता को आगे बढ़ाना चाहती है, उस जनता के लिए आज कोई विकल्प नहीं है। क्योंकि कांग्रेस की सरकार भी जहां बन रही है वहां पर वे हिंदुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए बीजेपी को पीछे छोड़ देना चाह रही है। अब आप समझ सकते हैं कि आरएसएस अपने मकसद में किस कदर सफल हुआ है। और इतनी छोटी सी बात कांग्रेस के विचारक नहीं समझ पा रहे हैं। इसे आरएसएस की सफलता के रूप में भी देखा जाना चाहिए।

आरएसएस के कार्यकर्ता, विचारक अक्सर यह बोलते हुए देखे जाते हैं कि देखो हमने कांग्रेस को मजबूर किया राम वनगमन पथ बनाने के लिए। हमने उन्हें जनेऊ दिखाने के लिए मजबूर कर दिया। हमने आम आदमी पार्टी के केजरीवाल को कृष्ण बनने के लिए मजबूर कर दिया। याने संघ ने जो भ्रम तैयार किया है उसमें भ्रमित होने के लिए सभी पार्टी आमादा है। होड़ लगी हुई है हिन्दुत्व के एजेन्डे में आने की।

यदि सवर्ण और कट्टर हिंदुओं को छोड़ दें तो 80 फीसदी जनता जिसमें ईसाई, मुस्लिम, सिक्ख, कबीरपंथी, रवीदासी तमाम पंथों को मानने वाले लोग, जिनमें ओबीसी, एससी, एसटी हिंदू भी शामिल हैं, उनके लिए आज कोई विकल्प नहीं है। क्योंकि भारत की 80 फीसदी जनता हिंदुत्व के एजेंडे पर नहीं विकास के एजेंडे पर गरीबी, भुखमरी, शिक्षा, स्वास्थ्य के मुद्दे पर केन्द्रित राजनीति को देखना चाहती है। समता, समानता, भाईचारा पर केंद्रित राजनीति देखना चाहती है। लेकिन कोई पार्टी इस पथ पर चलती हुई नहीं दिखती है। इसीलिए मौजूद नरम दल गरम दल में किसी एक को चुनना उनकी मजबूरी हो जाती है। तमाम गोदी मीडिया होने के बावजूद भारत की लगभग 80 फीसदी जनता देश के राजनीतिक माहौल को समझ रही है। यह खुशी की बात है। आप इस विकसित होती भारत की जनता की राजनीतिक समझ को सलाम कर सकते हैं। यही कारण है कि पिछले 2014 से हिंदुत्व का माहौल होने के बावजूद बहुत सारे राज्यों में गैरभाजपा सरकार बनी है।

जब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के द्वारा धर्मांतरण किया गया तब पहली बार 22 प्रतिज्ञाएं उपस्थित लाखों लोगों को दिलाई गई। इसके बाद जहां भी धर्मांतरण होता है तो सबसे पहले 22 प्रतिज्ञाओं की शपथ दिलाई जाती है। उसके बाद ही बुद्ध की शरण में लाया जाता है। प्रश्न उठता है कि उस समय तथाकथित हिंदुओं की भावनाएं क्यों आहत नहीं हुई। बहुत सारे दलित बुद्धिजीवी कहते हैं कि डॉक्टर अंबेडकर के साहित्य का निचोड़ 22 प्रतिज्ञाएं हैं। अगर आप उनकी तमाम किताबें नहीं पढ़ पा रहे हैं लेकिन यदि उनकी 22 प्रतिज्ञाएं पढ़ लें तो आपको समझ आ जाएगा कि उनकी किताबों में क्या है। संघ अपने एजेंडे में डॉक्टर अंबेडकर को रखती है जहां एक ओर गांधी की आलोचना करते हैं वहीं दूसरी ओर डॉक्टर अंबेडकर की प्रशंसा करते हैं। और उन्हें अपनी ओर बनाए रखने की कोशिश करते हैं। फिर यही काम आम आदमी पार्टी भी करती है। आम आदमी पार्टी के तमाम कार्यालयों में और जहां उनकी सरकार है उनके ऑफिस में डॉक्टर अंबेडकर की फोटो लगाना अनिवार्य कर दिया गया है। इसके बावजूद बाबा साहब की 22 प्रतिज्ञाओं से उन्हें परेशानी हुई।

समझने वाले यह समझ रहे हैं कि वास्तव में आरएसएस को अंबेडकर की विचारधारा हमेशा कसकती रही है। वह अंबेडकर की खुलकर आलोचना से इसलिए बचता है, क्योंकि उसे पता है कि अंबेडकर की जो लोकप्रियता और ग्राह्यता है उसका दायरा बहुत बड़ा है। यही बात शहीदे आजम भगतसिंह को लेकर भी है। इसीलिए उनकी विचारधारा उसे फूटी आंख नहीं सुहाते हुए भी वह अंबेडकर को अपने खेमें से बाहर नहीं जाने देना चाहता। यह मात्र उसकी राजनीतिक चालाकी है। जहां तक भाजपा और आम आदमी पार्टी की विचारधारा का सवाल है तो इन दोनों की कोई विचारधारा नहीं है।

आज भाजपा मुस्लिमों के खिलाफ नफरत फैलाकर हिंदूवादी लोगों की नजरों में कट्टर हिंदुत्व की संवाहक और रक्षक के रूप में स्थापित हो चुकी है, भले ही हिंदुओं की बड़ी आबादी उनके अत्याचारों और जनविरोधी नीतियों से त्राहि-त्राहि क्यों न कर रही हो। दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी भाजपा से कुछ इतर नरम हिंदुत्व के साथ खुद को जन हितैषी दिखाने की क़वायद में लगी हुई है और वह भी गांधी से किनारा कर अंबेडकर और भगतसिंह को अपना नायक बताने की कोशिश कर रही है, जबकि उसकी गतिविधियों का दोनों की विचारधाराओं से कोई मेल नहीं दिखता। हम कह सकते हैं कि भाजपा अगर आरएसएस की ए टीम है तो आम आदमी पार्टी निश्चय ही उसकी बी टीम है। आरएसएस यही तो चाहता था कि हिंदुत्व का एजेंडा सब पर भारी हो और उसकी ऐसी दो टीमें तैयार हों जो लोगों की नज़रों में एक-दूसरे की विरोधी दिखें और सत्ता की चाबी दोनों में साझा होती रहे।

अब प्रश्न उठता है कि क्या बहुजनों को लुभाने के लिए ही डॉ आंबेडकर की तस्वीर लगाई जा रही है? उनकी विचारधारा का क्या होगा? उनकी तमाम लिखी किताबों का क्या होगा जिसे भारत सरकार ने प्रिंट करके प्रकाशित किया है? आखिर वह क्या कारण है जो कि आम आदमी पार्टी अपने आपको बाबा साहब के करीबी बताते हुए उनकी प्रतिज्ञा को पढ़ने वाले मंत्री को हटा देती है। इसका सीधा कारण है 15 फीसदी सवर्ण जनता को खुश करने की कोशिश। जबकि कोई भी राजनीतिक पार्टी 15 फीसदी सवर्ण जनता के वोटों से सरकार नहीं बना सकती। यह उन्हें मालूम है। लेकिन वे उनके गोदी मीडिया से डरते हैं, उनके खिलाफ आईटी सेल से डरते हैं, उनको लगता है कि वह यदि हिंदुत्व के खिलाफ जाएंगे तो उनका विनाश निश्चित है।

हिंदुत्व के एजेंडे को अगर छोड़ दें तो राजनीति के लिए मुद्दों की कमी नहीं है। समता, समानता, भाईचारा, तर्कशीलता, विकास, स्वास्थ्य, गरीबी, बेरोजगारी जैसे तमाम मुद्दे हैं। जिन्हें राजनीति की धुरी बनाकर विपक्ष आगे बढ़ सकता है और जनता के लिए एक विकल्प बन सकता है। ऐसा करने के लिए उन्हें हिंदुत्व के विरोध में कोई बात बोलने की जरूरत नहीं है। हिंदुत्व विरोधी बनने की कोई जरूरत नहीं है। ना ही अपने आप को हिंदुत्व में घुसा हुआ बताने की जरूरत है। लेकिन आज के दौर का दुखद पहलू यह है कि इतनी छोटी सी समझ वाम व एक-दो दलों को छोड़ दें तो किसी को भी नहीं है।

-श्याम लाल साहू

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