बनारस और बरेली सहित उत्तरप्रदेश के अनेक जिलों में थोक के भाव ईवीएम मशीनें और कोरे डाक-मतपत्र इधर से उधर किये जाने की आपराधिक हरकतों के लाइव वीडियो सामने आ रहे रहे हैं। इन वीडियो के सामने आने के बाद संबंधित जिलाधीश पूरी बेशर्मी और दीदादिलेरी के साथ जो बोल रहे रहे हैं, वह “ऐसा ही चलेगा, जो किया जाए सो कर लो” के दंभी अहंकार के सिवा कुछ नहीं है। कानपुर के जिलाधीश और पुलिस कमिशनर ने तो मतगणना में विध्वंस (पढ़ें : आपत्ति) करने वालों को गोली मारने के आदेश तक दे दिए हैं।
गुजरात की पुलिस के यूपी में लगाए जाने और उन पुलिस वालों के योगी को जीताने के एलान के वीडियो भी सामने आये हैं। इन सबके बीच सबसे रहस्यमयी है केंद्रीय चुनाव आयोग (केंचुआ) की चुप्पी। इतना सब कुछ आने के बाद भी केंचुआ ज़रा सा भी नहीं हिला है। कार्यवाही तो दूर, कोई एडवाइजरी तक जारी नहीं की है। यहां तक कि मुख्य विपक्षी गठबंधन के प्रमुख और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव द्वारा तथ्यों और सबूतों को पेश किये जाने के बावजूद केंचुआ उनका भी संज्ञान लेने की मुद्रा में नहीं आया है। ढीठ इतना बना हुआ है कि इन “आरोपों” का खंडन करने की भी जरूरत नहीं समझी है।
यह अहंमन्यता असाधारण और अभूतपूर्व है। इन दिनों प्रशासनिक अमले की सत्ता पार्टी – खासकर भाजपा – के साथ, उसके हित साधन के लिए की जाने वाले अवैधानिकताएं आम बात हो गयी हैं, मगर संवैधानिक संस्थाओं का इस कदर क्षरण खुद उनके द्वारा हाल में हासिल की गयी नीचाइयों से भी कहीं ज्यादा ही नीचे की बात है। अगर ये गिरोहबंदी अपनी चालों में कामयाब हो जाती है, तो यह सिर्फ लोकतंत्र के लिए नहीं, भारत के लिए बहुत बुरा, बहुत ही अशुभ और अत्यन्त विनाशकारी साबित होगा।
लोकतंत्र के इस ध्वंस की एक निर्धारित और तयशुदा कार्यप्रणाली – मोडस ऑपरेंडी – है। सबसे पहले, जिन्हें उनके निर्बुद्धि भक्तों द्वारा चाणक्य कहा जाता है, वे शकुनि जीतने वाली सीटों की संख्या का एलान करते हैं। मीडिया में बैठी पालतू चीखा बिरादरी उसे दोहराती है, उसके बाद एग्जिट पोल में ठीक वही संख्या बताई जाती है और गिनती के दौरान तिकड़म करके उसे हासिल भी कर लिया जाता है। पिछले विधानसभा चुनावों में बिहार में ऐसा कर चुके हैं, अब उत्तरप्रदेश में यही किये जाने की तैयारी है।
यह उस उत्तर प्रदेश के साथ हो रहा है, जिस उत्तरप्रदेश ने देश का सबसे संवेदनशील चुनाव देखा था। इंदिरा गांधी की एमर्जेन्सी – आपातकाल – में हुआ यह चुनाव भी 1977 में मार्च महीने में ही हुआ था और यही उत्तरप्रदेश था, जिसने उस वक़्त की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और कई मायनो में उनसे भी अधिक ताकतवर माने जाने वाले संजय गांधी तक को हरा दिया था। यही उत्तरप्रदेश था, जिसने 1971 के गोरखपुर के उपचुनाव में तब के महंत अवैद्यनाथ के घनघोर समर्थन और अपनी सीट खाली किये जाने के बावजूद तब के सत्तासीन मुख्यमंत्री टी एन सिंह को हरा दिया था। यह उत्तरप्रदेश ही था, जिसने सवर्णवादी हरम में कैद राजनीति को बाहर निकालकर एक दलित युवती (भले बाद में अपने मायामोह के चलते उन्होंने उत्तरप्रदेश को शर्मसार किया) को शीर्ष पर बिठाया था।
आज लोकतंत्र के जन्मना शत्रु उसी उत्तरप्रदेश को जीभ चिढ़ा रहे हैं, अंगूठा दिखा रहे हैं – अब यह उत्तरप्रदेश को तय करना है कि वह इस ठगी का जवाब किस तरह देता है। लोकतंत्र डरे हुए लोगों के लिए नहीं होता – लोकतंत्र हासिल करने के लिए लड़ना पड़ता है, उसके बाद उसे बचाने के लिए भी लड़ना पड़ता है। कल यदि वोट चुराने और जनादेश पर डकैती डालने का कुकृत्य होता है, तो उत्तरप्रदेश को “इस क़दर कायर हूँ, कि उत्तर प्रदेश हूँ” लिखने वाले धूमिल को गलत साबित करना होगा। उनकी इसी कविता को थोड़ा बदल कर याद करना होगा कि
“जब ढेर सारे दोस्तों का ग़ुस्सा
हाशिए पर
चुटकुला बन रहा है
क्या तुम व्याकरण की नाक पर
रूमाल लपेटकर
निष्ठा का तुक
विष्ठा से मिला डोज?
आपै जवाब दो
आख़िर क्या करोगे ?”
आलेख: बादल सरोज
(लेखक लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)
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