आज़ादी के 79वें वर्ष में एक विश्लेषण
जब भारत अपनी आज़ादी की 79वीं वर्षगांठ की ओर अग्रसर है, और सत्ताधारी दल 2047 तक ‘अच्छे दिनों’ के सपने दिखा रहे हैं, यह सवाल उठना लाज़मी है कि आज़ादी के सही मायने क्या हैं। क्या आज़ादी केवल राजनीतिक स्वतंत्रता तक सीमित है या इसका अर्थ सामाजिक और आर्थिक शोषण से मुक्ति भी है? इस प्रश्न की पड़ताल के लिए छत्तीसगढ़ के कोरबा में स्थित भारत एल्यूमिनियम कंपनी लिमिटेड (बालको) के श्रमिकों की स्थिति एक महत्वपूर्ण केस स्टडी प्रस्तुत करती है।
भारत की आज़ादी और श्रमिकों के सपने
15 अगस्त 1947 को मिली आज़ादी केवल एक विदेशी शासन का अंत नहीं थी, बल्कि यह करोड़ों भारतीयों के लिए एक नए युग का आरंभ थी—एक ऐसा युग जिसमें समानता, न्याय और समृद्धि की परिकल्पना की गई थी। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, विशेषकर शहीद भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों ने एक ऐसे भारत का सपना देखा था, जहाँ “मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण” समाप्त हो जाएगा। भगत सिंह का मानना था कि असली आज़ादी तब आएगी जब देश के किसान और मज़दूर शोषण से मुक्त होकर सम्मान का जीवन जीएंगे। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि उनका लक्ष्य केवल अंग्रेजों को हटाना नहीं, बल्कि एक ऐसी समाजवादी व्यवस्था स्थापित करना है जहाँ सत्ता वास्तव में मज़दूरों और किसानों के हाथ में हो।
स्वतंत्र भारत में, शुरुआती दशकों में इसी समाजवादी सपने को साकार करने के प्रयास हुए। देश के औद्योगिक विकास को गति देने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (PSUs) की स्थापना की गई, जिनका उद्देश्य केवल मुनाफ़ा कमाना नहीं, बल्कि देश को आत्मनिर्भर बनाना और रोज़गार सृजित करना था।
बालको की स्थापना और राष्ट्र निर्माण में योगदान
इसी कड़ी में, 27 नवंबर 1965 को भारत एल्यूमिनियम कंपनी (बालको) की स्थापना एक सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम के रूप में हुई। बालको ने न केवल भारत को एल्यूमिनियम उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, बल्कि कोरबा जैसे आदिवासी बहुल क्षेत्र के विकास में भी एक शानदार योगदान दिया। यहाँ हज़ारों लोगों को स्थायी रोज़गार मिला, एक टाउनशिप का विकास हुआ, और कर्मचारियों को आवास, चिकित्सा, शिक्षा जैसी सामाजिक सुरक्षा की सुविधाएँ मिलीं, जो आज़ाद भारत के कल्याणकारी राज्य के मॉडल का प्रतीक था।

निजीकरण का प्रहार और 67 दिनों का ऐतिहासिक आंदोलन
21वीं सदी की शुरुआत में, उदारीकरण और निजीकरण की वैश्विक लहर भारत पहुँची। मार्च 2001 में, तत्कालीन केंद्र सरकार ने विनिवेश नीति के तहत बालको का 51% शेयर अनिल अग्रवाल के नेतृत्व वाली कंपनी स्टरलाइट इंडस्ट्रीज (अब वेदांता लिमिटेड) को मात्र 551.5 करोड़ रुपये में बेच दिया।
इस निजीकरण के फैसले ने बालको के श्रमिकों और स्थानीय समुदाय में भूचाल ला दिया। उन्हें डर था कि निजी कंपनी के हाथ में जाने से उनकी नौकरी, सुविधाएँ और सामाजिक सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी। इसी डर के परिणामस्वरूप, बालको के श्रमिकों ने निजीकरण के खिलाफ एक ऐतिहासिक आंदोलन छेड़ दिया। पूरे 67 दिनों तक प्लांट पूरी तरह से ठप रहा। यह आंदोलन केवल बालको के कर्मचारियों का नहीं, बल्कि पूरे देश में सार्वजनिक उपक्रमों के भविष्य को लेकर एक बड़ी बहस का प्रतीक बन गया। लेकिन अंततः, भारी दबाव और एक दुर्भाग्यपूर्ण समझौते के साथ यह आंदोलन समाप्त हो गया।
वेदांता का अकूत मुनाफ़ा और श्रमिकों की दुर्दशा
बालको का अधिग्रहण वेदांता के लिए एक “पारसमणि” साबित हुआ। कभी एक कबाड़ी के रूप में शुरुआत करने वाले अनिल अग्रवाल की संपत्ति में बेतहाशा वृद्धि हुई और वेदांता समूह एक वैश्विक खनन दिग्गज बन गया। कंपनी ने न केवल मौजूदा संयंत्रों से उत्पादन बढ़ाया, बल्कि नए स्मेल्टर प्लांट लगाने की भी योजना बनाई, जिससे उसकी उत्पादन क्षमता और मुनाफ़ा कई गुना बढ़ गया।
लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू बिक्कट भयावह है। जहाँ एक ओर वेदांता का मुनाफ़ा अर्श पर पहुँच गया, वहीं दूसरी ओर बालको के हज़ारों स्थायी श्रमिकों की ज़िंदगी फर्श पर आ गई। निजीकरण के बाद जो आशंकाएँ व्यक्त की गई थीं, वे एक-एक कर सच साबित होने लगीं।

छंटनी और वीआरएस (VRS): कंपनी ने लागत में कटौती के नाम पर बड़े पैमाने पर कर्मचारियों की छँटनी शुरू कर दी। हज़ारों स्थायी कर्मचारियों को स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना (VRS) लेने के लिए मजबूर किया गया।
ठेका प्रथा को बढ़ावा: स्थायी नौकरियों की जगह ठेका प्रथा को बड़े पैमाने पर लागू किया गया। आज, प्लांट के भीतर अधिकतर काम ठेका मज़दूरों द्वारा किया जाता है, जिन्हें स्थायी कर्मचारियों की तुलना में बहुत कम वेतन और न के बराबर सामाजिक सुरक्षा मिलती है।
प्रताड़ना और ट्रांसफर: प्रबंधन की नीतियों का विरोध करने वाले या यूनियनों में सक्रिय कर्मचारियों को कथित तौर पर प्रताड़ित किया गया और दूर-दराज़ के स्थानों पर स्थानांतरित कर दिया गया।
सुविधाओं में कटौती: कर्मचारियों को मिलने वाली श्रमिक सुरक्षा, चिकित्सा, आवास और शिक्षा जैसी सुविधाओं के अलावा उनके बुनियादी अधिकारों में लगातार कटौती की गई, जिससे उनका जीवन स्तर गिरा है।
यह कहानी सिर्फ बालको की नहीं है, बल्कि देश के कई अन्य सार्वजनिक उपक्रमों की भी है जिनका निजीकरण हुआ है। वेदांता पर बालको के अलावा बोकारो स्थित इलेक्ट्रो स्टील प्लांट में भी लॉकडाउन के दौरान सैकड़ों मजदूरों को निकालने के आरोप लगे थे।
तिरंगे की शान और शोषण का अंतहीन सिलसिला
यह एक विडंबना ही है कि आज़ाद भारत में एक निजी कंपनी का मालिक हाथ में तिरंगा लेकर राष्ट्रीय पर्वों पर शान से झंडा फहराता है, जबकि उसी की छत्रछाया में हज़ारों मज़दूरों का अंतहीन शोषण जारी रहता है। यह स्थिति भगत सिंह के उस सपने का खुल्लम-खुल्ला मखौल उड़ाती है जहाँ आज़ादी का मतलब हर तरह के शोषण से मुक्ति था।
आरोप लगते रहे हैं कि छत्तीसगढ़ में शासन, प्रशासन, और यहां तक कि मीडिया का एक बड़ा वर्ग भी वेदांता के हितों के रक्षक के रूप में काम करता नज़र आता है। कंपनी पर पर्यावरणीय नियमों के खुलेआम उल्लंघन सहित कई गंभीर आरोप समय-समय पर लगते रहे हैं, किंतु अधिकांश मामलों में सख्त और निर्णायक कार्रवाई का घोर अभाव देखने को मिलता है। 2018 में, वेदांता समूह पर नया रायपुर में कैंसर अस्पताल बनाने के MoU की शर्तों का उल्लंघन करने पर राज्य सरकार द्वारा जुर्माना भी लगाया गया था।
कमज़ोर होते श्रमिक कानून और भयभीत मज़दूर
हाल के वर्षों में केंद्र सरकार द्वारा लाए गए नए श्रम कोड को लेकर भी श्रमिक संगठनों ने चिंता जताई है। उनका आरोप है कि ये कोड नियोक्ताओं को अधिक अधिकार देते हैं और श्रमिकों के लिए हड़ताल करना या अपने अधिकारों के लिए संगठित होना और भी मुश्किल बना देंगे। इन कानूनों का उद्देश्य भले ही निवेश को सुगम बनाना हो, लेकिन आलोचकों का मानना है कि यह श्रमिकों के शोषण का रास्ता और चौड़ा कर सकता है।
बालको के भीतर, एक समय में मज़बूत रहीं ट्रेड यूनियनें भी अब कथित तौर पर कमज़ोर हो गई हैं। कुछ पर प्रबंधन के साथ मिले होने के लगातार आरोप लगते रहे हैं, जबकि कई नेता और कार्यकर्ता भय के माहौल में कार्य कर रहे हैं। आम मज़दूर अपने भविष्य को लेकर अनिश्चित और भयभीत रहता है।
आज़ादी के मायने और 2047 के सपने
जब हम आज़ादी के 79वें वर्ष में खड़े हैं और 2047 में ‘विकसित भारत’ की बात कर रहे हैं, तो बालको के श्रमिकों की कहानी हमें रुककर सोचने पर मजबूर करती है। विकास किसके लिए? क्या विकास का मतलब कुछ कॉर्पोरेट घरानों की तिजोरियाँ भरना और लाखों मज़दूरों को उनके मौलिक अधिकारों से वंचित करना है?
भगत सिंह ने क्रांति की तलवार को विचारों की सान पर तेज़ करने की बात कही थी। आज बालको के श्रमिकों और देश के करोड़ों मेहनतकशों के लिए असली आज़ादी तब होगी जब उन्हें केवल वोट देने का नहीं, बल्कि सम्मान के साथ जीने, काम करने और अपने श्रम का उचित मूल्य पाने का अधिकार मिलेगा। जब तक एक निजी मालिक के मुनाफ़े का ग्राफ़ मज़दूरों की ज़िंदगी के ग्राफ़ को नीचे गिराकर ऊपर चढ़ता रहेगा, तब तक आज़ादी अधूरी है और भगत सिंह के सपनों का भारत दूर की कौड़ी बना रहेगा। 2047 के “अच्छे दिन” के राजनीतिक नारे तभी सार्थक हो सकते हैं, जब वे देश के हर नागरिक, विशेषकर अंतिम पंक्ति में खड़े श्रमिक के जीवन में वास्तविक और सकारात्मक बदलाव लाएं।
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