सन 2021 को संसद के प्रकाशित एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश के करीब पचास हजार (50000) विद्यार्थी पूर्व के सोवियत संघ के विभिन्न देशों में अध्ययनरत हैं। इनमें सबसे अधिक संख्या में छात्रों यूक्रेन में पढ़ाई करते हैं।जिनमें 80%मेडिकल की पढ़ाई करते हैं।
आखिर किन कारणों से हमारे देश के बच्चों को विदेशों में जाकर अपनी पढ़ाई करने के लिए मजबूर होना पड़ता हैं?
सन 2020 में ही संसद के प्रकाशित तथ्य के मुताबिक हमारे देश में प्रति वर्ष 278 सरकारी व 263 निजी मेडिकल कॉलेजों में 82,926 विद्यार्थियों को ही अध्ययन का अवसर प्राप्त होता हैं।वही देश में मेडिकल कॉलेज में प्रवेश हेतु ‘नीट’ के परीक्षा में करीब 16 लाख परीक्षार्थी शामिल हुए है।
हमारे देश में निजी मेडिकल कॉलेजों में मेडिकल की संपूर्ण पढ़ाई करने के लिए न्यूनतम एक करोड़ रूपये का खर्च होता है। वही यूक्रेन में 6 वर्ष का मेडिकल कोर्स पूरा करने में अधिकतम खर्च 30 लाख रूपये ही होता हैं।भारत के पड़ोसी देशों बांग्लादेश,नेपाल,चीन में भी मेडिकल की पढ़ाई करने 25से 30लाख रूपये खर्च होता हैं। लेकिन इन पड़ोसी देशों में सीटों की संख्या सीमित होने के कारण मेडिकल की पढ़ाई के इच्छुक विद्यार्थियों को यूक्रेन जाना पड़ता हैं।
भारत में एनएमसी (नेशनल मेडिकल कमीशन) के नियम के अनुसार सिर्फ अंग्रेजी माध्यम से मेडिकल की पढ़ाई करने वालों को ही मान्यता दी जाती हैं।रूस में अंग्रेजी और रशियन इन दो मिश्रित भाषाओं में मेडिकल की पढ़ाई होती हैं।पूर्ववर्ती सोवियत संघ के अनेकों देशों के मेडिकल कालेजों से पढ़ाई करने पर प्रतिबंध हैं। जो प्रतिबंध यूक्रेन के कालेजों पर नही लगाया गया है ।
यूक्रेन के मेडिकल कालेजों की पढ़ाई हमारे देश से कुछ हद तक सरल है और दूसरी बात हमारे देश के निजी मेडिकल कॉलेज से वहां के मेडिकल कालेजों की गुणवत्ता ज्यादा बेहतर हैं।
यूक्रेन के कालेजों से एमबीबीएस करने के बाद उसी देश में नौकरी करने, प्रैक्टिस करने का अवसर मिलता है।उसके साथ ही वे यूरोपीय संघ के किसी भी देश में नौकरी या प्रैक्टिस कर सकता हैं। लेकिन भारत में वापसी के बाद इन छात्रों को काफी समस्याओं का सामना करना पड़ता हैं।हमारे देश में चिकित्सा करने की लाइसेंस हासिल करने के लिए इनको FMGE (Foreign Medical Graduates Exams) का परीक्षा देना होता है। सन 2002 से 2014 तक इस परीक्षा में सिर्फ 23%ही उत्तीर्ण हो पाये हैं।पिछले वर्ष इस परीक्षा में 25000 परीक्षार्थियों में महज 20% को ही सफलता हासिल हुई हैं।
रूस-यूक्रेन का युद्ध हमारे देश की शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था की पोल खोल दी हैं।शिक्षा और स्वास्थ्य की दयनीय स्थिति को उजागर कर दिया हैं।बच्चों के भविष्य को अंधेर और अनिश्चियता की ओर धकेला जा रहा हैं। अंधाधुंध निजीकरण की नग्नता ने एक पीढ़ी को नष्ट कर दिया हैं।
विश्व स्वास्थ्य संस्था के नियम के मुताबिक प्रति एक हजार आबादी पर एक चिकित्सक होना आवश्यक है ।लेकिन हमारे देश में औसतन प्रति हजार आबादी के पीछे 0.76 चिकित्सक ही है। कुछ राज्यों में प्रति 6000आबादी पर एक ही चिकित्सक मौजूद हैं।
भारत में स्वास्थ्य सेवाओं को और दुरूस्त करने की आवश्यकता है, लेकिन स्वास्थ्य और शिक्षा क्षेत्र का निजीकरण इन दोनों ही क्षेत्रों आम जनता के पहुंच से बाहर होते जा रहा है। देश में भारी तादाद में चिकित्सक रोजगार से बंचित है तो दूसरी तरफ आम नागरिक न्यूनतम स्वास्थ्य सेवा से दूर हैं। यह स्थिति पूंजीवादी समाज में ही संभव हो सकता है जहा मुनाफा ही सर्वोपरि होता है। आलेख : सुखरंजन नंदी
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