रविवार, सितम्बर 8, 2024
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मार्क्सवाद के रचना तत्व

मार्क्सवादी अध्ययन मंच: कॉमरेड अरिंदम सेन द्वारा लिखित मार्क्सवादी शिक्षामाला का प्राथमिक अंश

मार्क्सवाद एक गतिशील विज्ञान है जो मानव समाज की गति के आम नियमों को निरंतर उद्घाटित करता रहता है। यह व्यवहार और क्रांतिकारी बदलाव का एक सदाबहार दर्शन है। एक वाक्य में कहें तो यह हमारे व्यवहार का मार्गदर्शन करता है। लेकिन मार्क्सवाद आता कहां से है? क्या यह किसी कुशाग्र बुद्धि व्यक्ति मार्क्स तथा उसके महान मित्र एंगेल्स के दिमाग की उपज है? लेनिन ने इस सवाल पर अपने एक लेख में चर्चा की है, जिसे हम यहां छाप रहे हैं! इस महान रचना को ध्यान से पढ़ें और उसके बाद मार्क्सवाद के बारे में खुद मार्क्स द्वारा की गई जो संक्षिप्त व्याख्या उपलब्ध है उसका अध्ययन करें।

मार्क्सवाद के तीन स्रोत और तीन संघटक अंग व्लादीमीर ईल्यीच लेनिन
दुनिया भर के सभ्य समाजों और सभी पूंजीवादी विज्ञानों ने चाहे सरकारी हो या उदारवादी मार्क्स के विचारों के प्रति दुश्मनी और हिकारत का रवैया अपनाया। वह मार्क्सवाद को विनाशकारी पंथ मानते थे। वर्ग संघर्ष पर आधारित वर्ग समाज में कोई भी सामाजिक विज्ञान निष्पक्ष नहीं हो सकता और पूंजीवादियों से मार्क्सवाद के खिलाफ नफरत और हिकारत के अलावा और किसी चीज की उम्मीद नहीं की जा सकती। सभी सरकारी और उदारवादी विज्ञान वेतन की गुलामी को किसी न किसी तरह जायज ठहराते हैं, जबकि मार्क्सवाद ने वेतन की गुलामी के खिलाफ अविराम संघर्ष चलाने की घोषणा की है। वेतन की गुलामी वाले समाज में विज्ञान के निष्पक्ष होने की उम्मीद करना वैसा ही मूर्खतापूर्ण और नादानी भरा विचार है, जैसे कि मिल-मालिकों से इस निष्पक्षता की आशा करना कि वे पूंजी का मुनाफा घटा कर मजदूरों का वेतन बढ़ा देंगे।

लेकिन यही सब कुछ नहीं है। दर्शन व सामाजिक विज्ञान का इतिहास साफ-साफ बताता है कि मार्क्सवाद में संकीर्णतावाद के लिए कोई जगह नहीं है। मार्क्सवाद किसी प्रकार से एक दकियानूसी, बंद दरवाजे वाला सिद्धांत नहीं है, जो विश्व सभ्यता के विकास वाले रास्ते से अलग कोई दूसरी दुनिया बनाना चाहता है, बल्कि मार्क्स की प्रतिभा इस बात में निहित है कि उन्होंने ऐसे सवालों के जवाब पेश किये, जो मानव जाति के सर्वश्रेष्ठ दिमागों को मथ रहे थे। मार्क्स के विचार दर्शनशास्त्र, राजनीतिक अर्थशास्त्र और समाजवाद के सर्वश्रेष्ठ विचारों का जारी रूप है।

मार्क्सवादी सिद्धांत सर्वशक्तिमान है, क्योंकि वह सत्य है। वह एक समग्र और सुसंगत विचार है। इसलिए वह मानव समाज को दुनिया के बारे में एकीकृत विश्व दृष्टिकोण देता है। अंधविश्वास, प्रतिक्रिया (यानी जनविरोधी) और पूंजीवादी उत्पीड़न की पैरवी चाहे किसी भी रूप में की गई हो, यह दृष्टिकोण उनका विरोध करता है। 19वीं सदी में मानव जाति ने जर्मन दर्शनशास्त्र, ब्रिटिश अर्थशास्त्र और फ्रांसीसी समाजवाद के रूप में जिन सर्वश्रेष्ठ विचारों की रचना की थी, मार्क्सवाद उसका तर्कसंगत उत्तराधिकारी है।

अब हम संक्षेप में, मार्क्सवाद के तीन स्रोतों पर, जो मार्क्सवाद के तीन संघटक अंग भी हैं, विचार करेंगे।

01. मार्क्सवाद का दर्शन द्वंद्वात्मक भौतिकवादी दर्शन है। यूरोप के संपूर्ण आधुनिक इतिहास में खासकर फ्रांस में 18वीं सदी के अंत में जब हर प्रकार के मध्ययुगीन कूड़ा-करकट संस्थाओं और विचारों में व्याप्त सामंतवाद के खिलाफ निर्णायक संघर्ष का समय था, तब केवल भौतिकवादी दर्शन ही प्रकृति विज्ञान की सभी शिक्षाओं के अनुसार सभी प्रकार के अंधविश्वास, पोंगापंथ और पाखंड के खिलाफ एक सुसंगत और सच्चा दर्शन साबित हुआ। इसीलिए जनवाद के दुश्मनों ने हर प्रकार से भौतिकवाद का खंडन करने, उसकी जड़ खोदने और उसे बदनाम करने की कोशिश की तथा भाववादी (ईश्वरवादी) दर्शन के अनेक रूपों की वकालत की। जो किसी न किसी प्रकार से धार्मिक जड़सूत्र के ही पक्षधर हैं।

मार्क्स और एंगेल्स ने सदा बहुत ही दृढ़ता के साथ भौतिकवादी दर्शन की रक्षा की और इस मूल स्थापना से होने वाले किसी भी विचलन की गंभीर गलतियों को बारंबार चिह्नित किया। एंगेल्स की रचना “लुडविग फायरबाख और ड्यूहरिंग मतखंडन” में उनके विचारों की बहुत स्पष्ट व्याख्या की गई है। ये पुस्तकें भी “कम्युनिस्ट घोषणापत्र” की तरह हर वर्ग सचेत मजदूर के लिए गुटका। (अवश्य पठनीय) है। मार्क्स 18 वीं सदी के भौतिकवाद : हर वस्तु, चाहे जीव हो या निर्जीव- भोतिक पदार्थ से ही बने होते हैं और सदा से विद्यमान हैं, जिसे बनाने के लिए किसी ईश्वर की जरूरत नहीं – तक ही सीमित नहीं रहे।

उन्होंने दर्शन को और भी विकसित किया और जर्मन शास्त्रीय दर्शन, खासकर हेगेल की विचार प्रणाली “द्वंदवाद” से उसे समृद्ध किया, जो फायरबाख के भौतिकवाद की ओर ले गई। हेगेल की विचार प्रणाली से जो मुख्य चीज ली गई है, वह है द्वंद्ववाद (कि हर चीज विपरीतों की जोड़ी में होता है, जिनके बीच संघर्ष चलते रहते हैं और कुछ समय के बाद उनसे फिर एक नई वस्तु पैदा होती है, वह भी विपरीतों की जोड़ी में होती है : जैसे – इलेक्ट्रॉन – प्रोटोन, जन्म – मरण, दिन – रात, भौतिक परिवर्तन – रासायनिक परिवर्तन, शून्य – अनन्त, जोड़ – घटाव, गुना – भाग, इंटिग्रल कैलकुलस – डिफ्रेंसियल कैल्कुलस, वर्ग – वर्गमूल, नर – नारी, क्रांति – प्रतिक्रांति, आस्तिक – नास्तिक, पूंजीवाद – समाजवाद, जीव – निर्जीव, बचपन – बुढ़ापा, आदि-अन्त और जिनके बीच संघर्ष चलते रहते हैं और देर-सबेर नई वस्तु का विकास होता रहता है।

किसी जीव में हो या सामाजिक व्यवस्था में, प्रकृति में इसी द्वंदवादी नियम से ही विकास होते रहते हैं) अर्थात अपने पूर्ण और गहरे रूप में किसी भी एकांगीपन से मुक्त, मनुष्य के ज्ञान के सापेक्ष होने का सिद्धांत, जो हमें निरंतर विकसित होते पदार्थ की झलक दिखाता है। पूंजीवादी दार्शनिकों द्वारा बार-बार पुराने सड़े-गले भाववाद (ईश्वरवाद) की नई व्याख्याएं पेश किए जाने के बावजूद प्राकृतिक विज्ञान की आधुनिकतम खोजों- रेडियम, इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, पदार्थों का रूपांतरण इत्यादि में मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद यानी प्रकृति के अस्तित्व और विकास के नियम को असाधारण ढंग से सही साबित किया है।

द्वंद्वात्मक भौतिकवाद को गहराई में ले जाकर और उसे विकसित करके मार्क्स ने उसके प्रकृति संबंधी ज्ञान को मानव इतिहास संबंधी ज्ञान तक विकसित किया। मार्क्स का ऐतिहासिक भौतिकवाद वैज्ञानिक विचारों में एक महानतम उपलब्धि है। इसे इतिहास और राजनीति संबंधी विचारों के क्षेत्र में छायी अराजकता और मनमानेपन की जगह एक अद्भुत रूप से एकीकृत एवं सुसंगत वैज्ञानिक सिद्धांत ने ले ली। यह सिद्धांत दिखलाता है कि किस तरह उत्पादक शक्तियों के विकास के फलस्वरूप एक सामाजिक व्यवस्था के गर्भ से ही दूसरी, पहले से अधिक विकसित व्यवस्था जन्म लेती है। मिसाल के लिए, कैसे विपरीत वर्गों और तत्वों के बीच संघर्षों से आदिम सामुदायिक समाज से सामंतवाद और पूंजीवाद का विकास हुआ और आगे समाजवाद आया और साम्यवाद के दौर आने का पूर्वानुमान करते हैं।किस प्रकार मनुष्य का ज्ञान, इससे स्वतंत्र अस्तित्व रखने वाली प्रकृति, जो दरअसल निरंतर विकासमान पदार्थ ही हैं, को प्रतिबिंबित करता है। उसी प्रकार मनुष्य का सामाजिक ज्ञान और उसके दार्शनिक, धार्मिक, राजनीतिक तथा अन्य किस्म के विचार एवं सिद्धांत, समाज के आर्थिक ढांचे को प्रतिबिंबित करता है। राजनीतिक संस्थाएं एक ऊपरी ढांचे की चीज है, जो आर्थिक आधार पर खड़ी है। मिसाल के लिए, हम देखते हैं कि आधुनिक यूरोपीय राजसत्ता के विभिन्न राजनीतिक स्वरूप सर्वहारा पर पूंजीपतियों के शासन को मजबूत करने के काम को करते हैं।

मार्क्स का दर्शन परिपक्व राजनीतिक दार्शनिक “द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद” है, जिसने मानव जाति को, खासकर मजदूर वर्ग के ज्ञान को शक्तिशाली हथियारों से लैस किया है।
02. यह समझ लेने के बाद कि आर्थिक ढांचा ही वह बुनियाद है, जिस पर राजनीतिक ढांचा खड़ा होता है- मार्क्स ने समाज की आर्थिक व्यवस्था का अध्ययन करने पर अपना ध्यान केंद्रित किया। मार्क्स की प्रमुख रचना “पूंजी” आधुनिक पूंजीवादी ढांचा के अध्ययन पर केंद्रित है।

मार्क्स से पहले शास्त्रीय राजनीतिक अर्थशास्त्र का विकास, उस जमाने के सबसे अधिक विकसित पूंजीवादी देश इंग्लैंड में हुआ था। अर्थशास्त्री एडम स्मिथ और डेविड रिकार्डो ने अर्थव्यवस्था का अध्ययन किया और मूल्य के श्रम सिद्धांत की नींव रखी। मार्क्स ने उसके काम को आगे बढ़ाया। मार्क्स ने इस सिद्धांत को अकाट्य रूप से साबित किया और सुसंगत ढंग से उसका विकास किया। उन्होंने दिखाया कि प्रत्येक माल का मूल्य उसके उत्पादन में लगे सामाजिक रूप से आवश्यक श्रमकाल की मात्रा से निर्धारित होता है।पूंजीवादी अर्थशास्त्री केवल वस्तुओं के बीच संबंध, एक माल से दूसरे माल की अदला-बदली को देख रहे थे, लेकिन मार्क्स ने मनुष्य की आपसी संबंधों को उजागर किया। मालों का विनिमय उस बंधन को दिखाता है कि यह संबंध और अधिक घनिष्ठ होता जा रहा है, जो व्यक्तिगत उत्पादकों के पूरे आर्थिक जीवन को एक ही समग्र प्रणाली में बांध रहा है। पूंजी इस बंधन के एक कदम और आगे विकास को दर्शाती है कि मनुष्य की श्रमशक्ति एक माल बन गई है। वेतन पर काम करने वाला मजदूर की श्रमशक्ति एक माल बन गई है।

वह मजदूर अपनी श्रमशक्ति जमीन के मालिकों, मिल-मालिकों तथा उत्पादन के औजारों के मालिकों को बेचता है। मजदूर अपने दिन भर के श्रम के एक हिस्से के वेतन से अपना तथा अपने परिवार का भरण-पोषण करता है, जबकि उसी कार्य दिवस के दूसरे बड़े हिस्से में बिना मजदूरी के काम करके वह पूंजीपति के लिए अतिरिक्त मूल्य पैदा करता है, जो कि मुनाफे का स्रोत है, यही पूंजीपति वर्ग की दौलत पूंजी का स्रोत है और जो मजदूरों की बड़ी संख्या के सामाजिक (सम्मिलित) मेहनत से पैदा होती है, इसलिए वह मजदूरों की सामाजिक पूंजी है।

“अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत” मार्क्स के आर्थिक सिद्धांत की बुनियाद है।
मजदूर के श्रम से पैदा की गई पूंजी छोटे मालिकों को रौंदकर तथा बेरोजगारों की फौज खड़ी करके मजदूरों को ही गुलाम बना देती है। उद्योग में तो बड़े पैमाने के उत्पादन की सफलता एकदम साफ दिखती है, मगर खेती में भी हम यही बात देख सकते हैं। बड़े पैमाने पर पूंजीवादी खेती की बरतरी बढ़ती जाती है, मशीनों का इस्तेमाल बढ़ता जाता है और किसान अर्थव्यवस्था मुद्रा पूंजी के फंदे में फंस जाती है और अपने पिछड़े तकनीक के बोझ से उसका पतन होता है और वह तबाह हो जाता है। खेती में छोटे पैमाने के उत्पादन का पतन विभिन्न रुख अख्तियार करता है, लेकिन यह पतन तो एक निर्विवाद बात है।

छोटे पैमाने के उत्पादन की तबाही लाकर पूंजी श्रम की उत्पादकता बढ़ाती है और बड़े पूंजीपतियों के गठजोड़ों के लिए इजारेदारी की अवस्था पैदा कर देती है। उत्पादन का रूप ज्यादा से ज्यादा सामाजिक होता जाता है। लाखों-करोड़ों मजदूर एक सुगठित आर्थिक प्रणाली में बंध जाते हैं- लेकिन सामाजिक श्रम के फल पर मुट्ठी भर पूंजीपतियों का कब्जा हो जाता है। उत्पादन की अराजकता बढ़ती जाती है और उसी के साथ-साथ संकट भी बढ़ते जाते हैं। इसके पीछे बाजारों के बेलगाम दौड़-भाग (होड़) के साथ व्यापक आबादी के लिए अस्तित्व की असुरक्षा भी बढ़ती जाती है।

पूंजीवादी व्यवस्था एक तरफ मजदूरों को पूंजी पर निर्भर बनाती है तो दूसरी तरफ एकताबद्ध श्रमिकों की एक विराट शक्ति को भी जन्म देती है। मार्क्स ने माल पर आधारित अर्थव्यवस्था के शुरुआती बीज यानी सामान्य विनिमय से लेकर उच्चतर रूपों यानी बड़े पैमाने के उत्पादन तक पूंजीवाद के विकास का खाका खींचा है।
नए-पुराने सभी पूंजीवादी देशों का अनुभव, उन देशों में साल दर साल बढ़ती मजदूरों की तादाद मार्क्सवादी सिद्धांत की सच्चाई को स्पष्ट रूप से उजागर कर रही है। पूंजीवाद ने दुनिया भर में जीत हासिल कर ली है, लेकिन उसकी यह विजय पूंजी पर श्रम की जीत की भूमिका भर है।
सामंतवाद के गर्भ से पूंजीवाद का जन्म

03. जब सामंतवाद को उखाड़ फेंका गया था और स्वतंत्र पूंजीवाद का उदय हुआ था तो उसी वक्त यह जाहिर हो गया था कि इस स्वतंत्रता का मतलब है, मेहनतकशों के उत्पीड़न और शोषण की नई व्यवस्था। तभी से विभिन्न समाजवादी सिद्धांत बनने शुरू हो गये, जिनमें इस उत्पीड़न और शोषण के खिलाफ प्रतिवाद की झलक दिखाई देती थी। लेकिन शुरुआती समाजवाद काल्पनिक समाजवाद था। इसने पूंजीवादी समाजवाद की आलोचना की, उसकी भर्त्सना की, निंदा की, उसके विनाश का सपना देखा, वह बेहतर व्यवस्था के कल्पना लोक में घूमने लगा और उसने अमीरों के शोषण में निहित अनैतिकता को समझाने की कोशिश की।

लेकिन काल्पनिक समाजवाद असली रास्ते को नहीं खोज सका, न तो वह पूंजीवाद के तहत मजदूरी की गुलामी के सार को समझ सका और न ही वह पूंजीवाद के विकास के नियमों की खोज कर सका, न ही वह उस सामाजिक शक्ति की खोज कर सका, जो एक नए समाज का सृजनहार बन सकती है। इसी दौरान यूरोप में हर जगह और फ्रांस में आई तूफानी क्रांतियों ने सामंतवाद और भूदास प्रणाली को ध्वस्त करके और भी ज्यादा स्पष्टता से दिखला दिया कि वर्गों के बीच संघर्ष समूचे विकास का आधार है और वही उसकी प्रेरक शक्ति है।राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल करने की लड़ाई में कोई भी जीत सामंत वर्ग के जी-जान प्रतिरोध का मुकाबला किए बगैर नहीं हासिल हुई थी! किसी भी पूंजीवादी देश में स्वतंत्रता एवं जनवादी अधिकारों का जो कुछ भी विकास हुआ है, वह पूंजीवादी समाज के विभिन्न वर्गों के बीच जीवन-मरण की लड़ाई के बिना नहीं हासिल हुआ!
मार्क्स की सूझबूझ इस बात में है कि उन्होंने सबसे पहले इस अनुभव से निष्कर्ष निकाला और दुनिया भर के इतिहास के अध्ययन से उन्हें जो निष्कर्ष मिला, उसे वे लागू कर सके। यह निष्कर्ष है : वर्ग संघर्ष का सिद्धांत।

राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल करने की लड़ाई में कोई भी जीत सामंत वर्ग के जी-जान प्रतिरोध का मुकाबला किए बगैर नहीं हासिल हुई थी! किसी भी पूंजीवादी देश में स्वतंत्रता एवं जनवादी अधिकारों का जो कुछ भी विकास हुआ है, वह पूंजीवादी समाज के विभिन्न वर्गों के बीच जीवन-मरण की लड़ाई के बिना नहीं हासिल हुआ!
मार्क्स की सूझबूझ इस बात में है कि उन्होंने सबसे पहले इस अनुभव से निष्कर्ष निकाला और दुनिया भर के इतिहास के अध्ययन से उन्हें जो निष्कर्ष मिला, उसे वे लागू कर सके। यह निष्कर्ष है : वर्ग संघर्ष का सिद्धांत।जो लोग तमाम नैतिक, धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक मुहावरों, घोषणाओं और वादों के पीछे किसी वर्ग के हितों को खोजना नहीं सीख लेते, तब तक वे राजनीति में प्रवंचना और आत्म-प्रवंचना के नादान शिकार बनते रहे हैं और हमेशा बनते रहेंगे। सुधार और विकास के तमाम समर्थकों को पुरानी व्यवस्था के रक्षकों द्वारा तब तक मूर्ख बनाया जाता रहेगा, जब तक वे यह महसूस नहीं करते कि हर पुरानी संस्था, चाहे वह कितनी भी बर्बर और सड़ी-गली क्यों न लगती हो, उसे किसी न किसी शासक वर्ग द्वारा बरकरार रखा जाता है, और इन वर्गों के प्रतिरोध को चकनाचूर करने का एक ही तरीका है, वह यह कि हमारे आस-पास के हर समाज में ऐसी शक्तियों को खोजें, उन्हें जागरूक बनायें और संघर्ष के लिए संगठित करें, जो न सिर्फ पुराने समाज को झाड़-बुहार कर साफ करने और नए समाज की सर्जना करने में समर्थ हैं, बल्कि अपने सामाजिक हैसियत के चलते उन्हें ऐसा अनिवार्य रूप से करना भी है।

जो लोग तमाम नैतिक, धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक मुहावरों, घोषणाओं और वादों के पीछे किसी वर्ग के हितों को खोजना नहीं सीख लेते, तब तक वे राजनीति में प्रवंचना और आत्म-प्रवंचना के नादान शिकार बनते रहे हैं और हमेशा बनते रहेंगे। सुधार और विकास के तमाम समर्थकों को पुरानी व्यवस्था के रक्षकों द्वारा तब तक मूर्ख बनाया जाता रहेगा, जब तक वे यह महसूस नहीं करते कि हर पुरानी संस्था, चाहे वह कितनी भी बर्बर और सड़ी-गली क्यों न लगती हो, उसे किसी न किसी शासक वर्ग द्वारा बरकरार रखा जाता है, और इन वर्गों के प्रतिरोध को चकनाचूर करने का एक ही तरीका है, वह यह कि हमारे आस-पास के हर समाज में ऐसी शक्तियों को खोजें, उन्हें जागरूक बनायें और संघर्ष के लिए संगठित करें, जो न सिर्फ पुराने समाज को झाड़-बुहार कर साफ करने और नए समाज की सर्जना करने में समर्थ हैं, बल्कि अपने सामाजिक हैसियत के चलते उन्हें ऐसा अनिवार्य रूप से करना भी है। केवल मार्क्स के दार्शनिक द्वंद्वात्मक भौतिकवाद ने ही सर्वहारा को उस मानसिक गुलामी से छुटकारा पाने का रास्ता दिखाया है, जिसमें तमाम उत्पीड़ित वर्ग आज तक पिसते आये हैं। केवल मार्क्स के आर्थिक सिद्धांत ने ही पूंजीवाद की सामान्य प्रणाली में सर्वहारा की सही स्थिति की व्याख्या की है।
सर्वहारा के स्वतंत्र संगठन आज अमेरिका से लेकर जापान तक और स्वीडन से लेकर दक्षिण अफ्रीका तक समूची दुनिया में बढ़ते जा रहे हैं। सर्वहारा अपने वर्ग-संघर्ष छेड़ने के जरिये जागरूक बनता जा रहा है और शिक्षा हासिल कर रहा है- पूंजीवादी समाज के पूर्वाग्रहों से।

केवल मार्क्स के दार्शनिक द्वंद्वात्मक भौतिकवाद ने ही सर्वहारा को उस मानसिक गुलामी से छुटकारा पाने का रास्ता दिखाया है, जिसमें तमाम उत्पीड़ित वर्ग आज तक पिसते आये हैं। केवल मार्क्स के आर्थिक सिद्धांत ने ही पूंजीवाद की सामान्य प्रणाली में सर्वहारा की सही स्थिति की व्याख्या की है।
सर्वहारा के स्वतंत्र संगठन आज अमेरिका से लेकर जापान तक और स्वीडन से लेकर दक्षिण अफ्रीका तक समूची दुनिया में बढ़ते जा रहे हैं। सर्वहारा अपने वर्ग-संघर्ष छेड़ने के जरिये जागरूक बनता जा रहा है और शिक्षा हासिल कर रहा है- पूंजीवादी समाज के पूर्वाग्रहों से।

इस प्रकार ‌मार्क्स ने समाजवाद की ओर ले जाने वाले रास्ते को तथा उस लक्ष्य को हासिल करने में सक्षम प्रमुख सामाजिक शक्ति (सर्वहारा) को ठोस रूप से सामने ला दिया। दरअसल, मार्क्स और एंगेल्स ने समाजवाद के लिए संघर्ष में सर्वहारा द्वारा अपनायी जाने वाली रणनीति और कार्यनीति के बारे में भी विस्तार से लिखा है। इसी कारण लेनिन ने अपने लेख में “कार्ल मार्क्स में समाजवाद” शीर्षक अध्याय के बाद एक अलग अध्याय के बतौर सर्वहारा वर्ग-संघर्ष की कार्यनीति को लिखा है। देखें “सुधारवाद और अराजकतावाद के खिलाफ संघर्ष”! सर्वहारा की रणनीति (लक्ष्य प्राप्ति की नीति) और कार्यनीति के बारे में विस्तार से लिखा है इसी कारण लेनिन ने अपने लेख कार्ल मार्क्स में समाजवाद शीर्षक अध्याय के बाद एक अलग अध्याय के बतौर सर्वहारा वर्ग के वर्ग संघर्ष की कार्यनीति को लिखा है।
(देखें, सुधारवाद और अराजकतावाद के खिलाफ संघर्ष)
सुधारवाद तथा अराजकतावाद की निम्न-पूंजीवादी प्रवृतियों के अनथक संघर्ष के माध्यम से विकसित हुई और निरंतर विकसित हो रही है। जैसा कि हम जल्द ही विस्तार से समझेंगे।

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