“इस बीमारी के पीछे के मनोविज्ञान और उसे पनपाने वाले सामाजिक-राजनीतिक विज्ञान को समझे बिना इसका निदान या समाधान नहीं हो सकता”
नए साल की शुरुआत हिन्दुस्तानी फासिस्टों के एक और घिनौने कर्म के उजागर होने के साथ हुयी। जनवरी की पहली तारीख को ही सोशल मीडिया के जरिये जहरीले काम कर रहा “बुल्ली बाई” एप्प पकड़ा गया।
यह अपराध तब सामने आया, जब कुछ मुस्लिम महिलाओं ने यह पाया कि एक एप्प के जरिये उनकी “नीलामी” की जा रही है। ट्विटर और फेसबुक आदि सोशल मीडिया के मंचों पर सक्रिय करीब एक सौ जानी पहचानी सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार और वकील मुस्लिम महिलाओं की तस्वीरें इसमें नीलामी के लिए डाली गई हैं और बोली लगाई जा रही है। इनमें हर उम्र की विभिन्न महिलायें शामिल थीं – उनकी समानता सिर्फ दो थीं। एक तो यह कि वे सामयिक ज्वलंत सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर मुखरता के साथ अपनी बात रखती थीं। दूसरी यह कि वे मुस्लिम समुदाय की थीं। जाहिर है कि महिलाओं और मुसलमानों के प्रति अतीव नफरत ही इसका एकमात्र आधार थी।
बुल्ली बाई एप्प इसके पहले जुलाई 2021 में सामने आये इसी तरह के अपकर्म “सुल्ली डील्स” का ही एक संस्करण था। सुल्ली डील्स में एप्प का इस्तेमाल करने वालों को “सुल्ली मुहैया कराने” की पेशकश की जा रही थी। ‘सुल्ली’ संघी ट्रॉलों द्वारा मुस्लिम महिलाओं के लिए इस्तेमाल की जाने वाली एक गाली है — एक घृणास्पद और अपमानजनक शब्द है। ‘सुल्ली फॉर सेल’ नामक एक सबके लिए उपलब्ध वेबसाइट बनाई गई, जिस पर मुसलमान महिलाओं के ट्विटर हैंडल से जानकारियाँ और पर्सनल तस्वीरें निकाल कर डाली गईं और इन्हें सार्वजनिक तौर पर नीलाम किया गया। इसी को ‘सुल्ली डील’ कहा गया ।
‘सुल्ली फॉर सेल’ और ‘सुल्ली डील’ के ज़रिए भी मुसलमान महिला पत्रकारों, कार्यकर्ताओं, कलाकारों और शोधार्थियों को निशाना बनाया गया। बुल्ली बाई मामले में एक महिला सहित चार युवा अभी तक गिरफ्तार किये जा चुके हैं। ये दोनों ही एप्प इंटरनेट पर उपलब्ध जिस ‘गिटहब’ नाम के प्रोग्राम के जरिये बनाये और चलाये जा रहे थे, उस गिटहब ने अब इन दोनों को अपनी साइट से हटा दिया है। मगर यहां मसला इससे आगे और इसके पीछे का है।
बुल्ली बाई एप्प के पीछे का एक और शातिर इरादा इनका संचालन करने वाले ट्विटर हैंडल्स के फर्जी नामकरण में निहित मंतव्य से सामने आ जाता है। इनमे से एक हैंडल का नाम “जट्ट खालसा” था, तो दूसरे हैंडल का नाम “खालसा सुप्रीमिस्ट” था। उद्देश्य साफ़ था : सिखों और मुसलमानो के बीच साम्प्रदायिक वैमनस्य बढ़ाना।
खुद मुम्बई पुलिस ने कहा है कि सिख समुदाय से संबंधित नामों का इस्तेमाल यह दिखाने के लिए किया गया कि ये ट्विटर हैंडल उस समुदाय के लोगों द्वारा बनाए गए हैं। चूँकि जिन महिलाओं को निशाना बनाया गया, वे मुस्लिम थीं, इसलिए ऐसी संभावना थी कि इससे “दो समुदायों के बीच दुश्मनी” पैदा हो सकती थी और ‘सार्वजनिक शांति भंग’ हो सकती थी।” ध्यान रहे कि यह सब उस समय किया जा रहा था, जब सिख किसान देश के ऐतिहासिक किसान आंदोलन की धुरी बने हुए थे और आंदोलन के साथ-साथ मोदी-आरएसएस कुनबे की साम्प्रदायिकता के विरुद्ध भी किसानो को लामबंद और जनता को सचेत कर रहे थे। ऐसे में यह करतूत कौन कर और करवा सकता है, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है।
मुम्बई पुलिस उनकी तलाश में थी। साजिश बेनकाब होने की आशंका गुनहगारों के सूत्रधारों में भी है, शायद इसीलिए मुम्बई पुलिस द्वारा की गयी त्वरित कार्यवाहियों और गिरफ्तारियों के बीच में ही दिल्ली पुलिस ने एक आरोपी – नीरज बिश्नोई (21 वर्ष) को गिरफ्तार कर दोनों मामलों की जांच-तफ्तीश को अपने हाथों में ले लेने की कवायद शुरू कर दी है, ताकि महाराष्ट्र और मुम्बई पुलिस के दायरे से इसे बाहर लाया जा सके।
यह घटना विकास व्यक्ति और प्रवृत्ति, दोनों तरह से देखे जाने और कर्ता और निर्देशक दोनों की ही पड़ताल किये जाने की दरकार रखता है। यह थोड़े विस्तार की मांग करता है, यहां उसे संक्षिप्त रूप में ही लेना होगा।
पहले व्यक्तियों पर। अभी तक पकडे गए आरोपियों में उत्तराखंड की श्वेता सिंह अभी सिर्फ 18 वर्ष की हुयी हैं। उत्तराखंड का ही मयंक रावत और बैंगलोर से पकड़ा गया बिहार का इंजीनियरिंग का छात्र विशाल कुमार झा दोनों 21 वर्ष के हैं। बुल्ली बाई एप्प को बनाने वाले असम के एक इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ने वाले जिस छात्र नीरज बिश्नोई को गिरफ्तार किया गया है, वह भी सिर्फ 21 वर्ष का युवा है। जिस ओंकारेश्वर ठाकुर को सुल्ली डील्स में धरा गया है, उसकी उम्र भी सिर्फ 26 साल है।
प्रोफेशनल कोर्स की पढ़ाई करने वाले इन युवाओं को इतना जहरीला किसने बना दिया कि वे इस कदर घिनौने काम करने पर आमादा हो गए? श्वेता सिंह तो खुद एक युवती हैं, जिनके बारे में खबर है कि हिरासत में लिए जाने के बाद भी उनके मन में कोई मलाल या प्रायश्चित का भाव नहीं है। श्वेता सिंह और इन संभावनाओं से भरे तकनीकी योग्यता वाले युवाओं को इतना विषाक्त किसने बना दिया कि एक महिला होने के बावजूद वे महिलाओं की ही नीलामी करने और उनके बारे में अश्लीलता की हद तक बेहूदा प्रपंच रचने में जुट गयी?
साफ़ है कि यह करामात इनके दिमाग की हार्डडिस्क में बिठाये गए कुत्सा, बर्बरता के उस नफरती सॉफ्टवेयर की है, जिसने इनसे उनकी मनुष्यता ही छीन ली। यह वही उन्माद है, जिसके शिकार गांधी को गोली मारने पर जश्न मनाते हैं, गुजरात के दंगों में अहमदाबाद की युवती कौसर बी को मारकर उसके गर्भ के भ्रूण को त्रिशूल पर लहराते हैं। जिनके नेता अपने ही देश के नागरिकों के बड़े हिस्से के खिलाफ कत्लेआम की हुंकार लगाते हैं। यह इतना भीषण मनोरोग है, जिसे पाशविकता भी नहीं कहा जा सकता — क्योंकि पशु भी अपनी प्रजाति में इस तरह की हिंसा नहीं करते। उस पर तुर्रा यह है कि लोगों के दिमागों को अति विकृत करने वाली बातें आज हर पाठ्यक्रम का हिस्सा बन रही है।
केरल के एक पूर्व आर एस एस के कार्यकर्ता एस मणी के अनुभवों वाली जल्द ही हिंदी में प्रकाशित होने जा रही पुस्तिका ‘‘नरक के तहखाने’’ में जो भयावह और घृणित अनुभव दर्ज हैं, उससे स्पष्ट हो जाता है कि शाखाओं में जा कर बड़ा हुआ व्यक्ति चाहे कितना भी पढा-लिखा हो, उसके अंदर जो नस्लीय, धार्मिक और जातीय घृणा ये शाखाएं और सरस्वती शिशु मंदिर जैसे संस्थान भर देते हैं, तो वह सुल्ली डील्स और बुल्ली बाई जैसे काम ही कर सकता है।
इस बीमारी के पीछे के मनोविज्ञान और उसे पनपाने वाले सामाजिक-राजनीतिक विज्ञान को समझे बिना इसका निदान या समाधान नहीं हो सकता। दुनिया जब-जब इस तरह के हादसों से गुजरी है – उसके नागरिकों ने नरसंहार भुगता और देखा है, तब-तब उस समय के मनोवैज्ञानिकों, दार्शनिकों, चिंतकों ने इस प्रवृत्ति को समझने की कोशिश की है। हिटलर के जमाने की जर्मनी की मनोदशा का अध्ययन करने के सैकड़ों अच्छे अध्ययन हुए हैं। उपन्यास, कहानियां लिखी गयी हैं, फिल्में बनाई गयी हैं। उनकी संख्या इतनी अधिक है कि सभी का उल्लेख करना मुश्किल है।
मनोविश्लेषण को सामान्यतः व्यक्ति से जुड़ा माना जाता है, लेकिन एरिक फ्रॉम ने 1941 की अपनी चर्चित किताब – एस्केप फ्रॉम फ्रीडम – में और विल्हेल्म राइख ने 1933 की अपनी नए तरह की किताब – मास सायकोलॉजी ऑफ़ फासिज्म – में इसका विस्तृत विवरण दिया है। डेनियल पिक का हिटलर और हेस का मनोविश्लेषण करती 2012 की किताब – परस्यूट ऑफ़ नाज़ी माइंड – द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद युद्ध अपराधियों पर चले मुकद्दमों – न्यूरेम्बर्ग ट्रायल – के दौरान और बाद ऐसे अनेक मनोविश्लेषण हुए और सार्वजनिक हुए है।
इनका सार एक ही है कि समाज जब भीषण संकटों के घेरे में होता है, व्यक्ति समूहों की इच्छाओं-जरूरतों को संकुचित कर उसे कुंठित बना दिया जाता है, जब-तब एक ख़ास किसम का सुनियोजित प्रचार उनके मन में अपने ही आसपास और बीच के कुछ लोगों और समूहों के विरुद्ध नफ़रत पैदा की जाती है – उनके विरुध्द होने वाली हिंसक बर्बरता इस कुंठा का निस्तार बना दी जाती है। भारतीय फासिज्म ठीक इसी रास्ते पर चल रहा है।
पढ़े लिखे युवक युवतियों के हाथों में रोजगार और दिमाग में सृजन का काम देने की बजाय उन्हें जीते-जागते मानव बमों में बदला जा रहा है। उनके अवसाद को अपराध में ढाला जा रहा है। इन्हीं का नतीजा बुल्ली बाई और सुल्ली डील्स के एप्प के रूप में दिखाई देता है। एरिक फ्रॉम इसके इलाज का भी जरिया बताते हैं, जो समाज की लोकतांत्रिकता के लिए अड़ने से लेकर स्वप्नभंग के शिकार अवाम को उनकी मुश्किलों के समाधान और सपनों की तामीर की संभाव्यता बताने वाले विकल्पों और उन्हें हासिल करने की जद्दोजहद तक पहुँचते हैं।
फासिज्म के भारतीय संस्करण के मुकाबले के लिए इस देश की जनता पहले से ही अपने संघर्षों में जूझ रही है। जितनी तेजी से जन-लामबंदी बढ़ती है, उतनी ही तेजी से इन मनोरोगियों की झुंझलाहट और वहशीपन भी बढ़ता है; बुल्ली बाई और सुल्ली डील्स जैसे अपकर्म इसी झुंझलाहट का एक नमूना है। कोई भी हुक्मरान अपने नमूनों के खिलाफ कार्यवाही नहीं करता – इसलिए संघ-भाजपा मण्डली भी पूरी ताकत इन दोनों एप्प्स के अपराधियों को बचाने में लग रही है।
-बादल सरोज
(लेखक बादल सरोज पाक्षिक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)
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