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जनगणना: ब्राह्मणवाद के नगाड़े की थाप पर थिरकता ओबीसी

भारत में गायों की गिनती होती है, ऊंटों की गिनती होती है, भेड़ों की गिनती होती है। यहां तक कि पेड़ों की भी गिनती होती है लेकिन ओबीसी ऐसी गई गुजरी जिंदा प्रजाति है कि उनकी गिनती साल 1931 में हुई थी उसके बाद कोई गिनती नहीं कर रहा।

2011 की जनगणना में ओबीसी की गिनती को लेकर लालूप्रसाद यादव ने दबाव बनाया था और गिनती हुई भी लेकिन उसको जारी नहीं किया गया। उसके बाद लालूप्रसाद यादव को रांची जेल में जगह मिली। आरजेडी के दबाव में नीतीश सरकार ने ओबीसी की जनगणना का प्रस्ताव बिहार विधानसभा में पारित कर के भेजा, लेकिन उसके बाद की प्रक्रिया पर विमर्श बंद कर दिया गया। अब केंद्र सरकार ने साफ कर दिया है कि ओबीसी की जनगणना के आंकड़े 2021 के सेन्सस में शामिल नहीं किये जायेंगे।

जानवरों व पेड़ों से भी बदतर स्थिति ओबीसी की है। हकअधिकारों की बात तो छोड़ दीजिए ये कितने है, उनकी वास्तविक संख्या तक नहीं बताई जाती। भेड़ें ओबीसी से ज्यादा काबिल प्रजाति भारतभूमि पर विचरण कर रही है। ब्राह्मणवादी सरकारें ओबीसी समुदाय को ओबीसी के बाड़े में शामिल नहीं करना चाहते, जब कि धर्मों के बाड़े का विकल्प खुला छोड़ दिया गया है।

अंग्रेजों ने साल 1881 में जाति आधारित जनगणना की शुरुआत की थी और उन आंकड़ों से जो सच्चाई सामने आई उनको आधार बना कर महात्मा जोतिराव फुले ने सब से पहले विभिन्न जातियों को, आबादी में उनके हिस्से के अनुरूप, सरकारी सेवाओं में आरक्षण दिए जाने की मांग उठाई। आंकड़ों से स्पष्ट हो गया था कि सरकारी नौकरियों में जाति विशेष का एकछत्र कब्जा है। उन्होंने इस बारे में अपनी प्रसिद्ध पुस्तक शेतकर्याचा असुड़ (किसान का चाबुक, 1883) में लिखा है।

साल 1901 की जनगणना को आधार बनाकर कोल्हापुर के राजा शाहूजी महाराज ने सन् 1902 में अपने राज्य में 50 प्रतिशत आरक्षण लागू किया, जिसके लिए उन्हें ब्राह्मणों के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा। कांग्रेस के कद्दावर नेता बालगंगाधर तिलक ने भी उनका विरोध किया और ऐसा कहा जाता है कि तिलक ने शाहू को धमकी देते हुए कहा कि उन्हें अपने इस निर्णय की भारी कीमत चुकानी होगी। कोल्हापुर में लागू आरक्षण से प्रेरणा लेते हुए मद्रास प्रेसीडेंसी में पेरियार ने आंदोलन खड़ा कर दिया और आजतक वो चल रहा है और देश में सर्वाधिक 68% आरक्षण तमिलनाडु में लागू है।

जाति आधारित जनगणना अंतिम बार 1931 मे हुई थी और उस के अनुसार भारत मे ओबीसी की संख्या 52% थी। साल 1941 में द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण जनसंख्या का विवरण अटक गया और आजादी के बाद 1951 में पहली जनगणना हुई, मगर जाति आधारित जनगणना छोड़ दी गई।

बाबा साहेब अंबेडकर ने संविधान में अनुच्छेद-340 के तहत ओबीसी के उत्थान का प्रावधान किया था, जिसके तहत सरकार को संविधान लागू करने के एक साल के भीतर ओबीसी आयोग का गठन करना था। साल 1951 में जाति आधारित जनगणना न करने व ओबीसी आयोग का गठन न करने के कारण क्षुब्द हो कर 10 अक्टूबर 1951 को केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। बाबा साहेब को जो लोग एससी/एसटी तक सीमित करना चाहते है, उनको याद रखना चाहिए कि बाबा साहब ने बुद्ध, कबीर व फूले को अपना गुरु माना था और ये तीनों ही एससी/एसटी के नहीं थे।

पंडित नेहरू सरकार ने दबाव में आकर 1953 में काका कालेलकर की अध्यक्षता में ओबीसी आयोग का गठन किया व इस आयोग ने 1955 में अपनी रिपोर्ट दी। कांग्रेस के ब्राह्मण नेताओं, हिन्दू महासभा आदि ने यह कह कर इसको लागू करने से रोक दिया कि ओबीसी जनसंख्या के आंकड़े 1931 के अर्थात पुराने है। 1955 से लेकर 1977 तक जनगणना के समय जाति आधारित गिनती का यह कह कर विरोध करते कि इससे देश कमजोर होगा व ओबीसी को हक़ देने की बात आती तो यह कह कर विरोध करने लग जाते कि नवीनतम आंकड़े उपलब्ध नहीं है इसलिए लागू नहीं किया जा सकता।

1977 में समाजवादियों के दबाव में बीपी मंडल की अध्यक्षता में दुबारा ओबीसी आयोग बनाया और उठापटक के बीच 1980 मे रिपोर्ट देते हुए मंडल ने कहा “यह रिपोर्ट विसर्जित कर रहा हूँ”। उन को अंदेशा था कि कुछ होगा नहीं, मगर 1989 में वीपी सिंह की सरकार बनी और समाजवादियों के दबाव में मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने का आदेश दे दिया।

मंडल के खिलाफ ब्राह्मण वर्ग ने कमंडल आंदोलन शुरू कर दिया और 1993 में सुप्रीम कोर्ट ने ओबीसी के आंकड़ों का हवाला देते हुए 27% तक आरक्षण सीमित कर दिया और ऊपर से क्रीमीलेयर थोप दिया गया। सबसे बड़ा खेल यह किया गया कि ओबीसी आरक्षण को मात्र सरकारी नौकरियों तक सीमित कर दिया गया।

कम्युनिस्ट पार्टियों का इन आंकड़ों से कोई लेनादेना ही नहीं है क्योंकि वे जाति संबंधी मुद्दों को नजऱअंदाज़ करने का ढोंग करती आई है। एक तरह से, मंडल आयोग की सिफारिशों के खिलाफ अभियान में ये पार्टियां कांग्रेस व भाजपा के साथ थी। आरएसएस व सभी हिंदू समूह और ब्राह्मण सभाएं, मंडल विरोधी आंदोलन की अग्रिम पंक्ति में थी।

एससी/एसटी वर्ग के लोग जितने मंडल आयोग के समर्थन में बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रहे थे वो अब ओबीसी की जनगणना को लेकर उतने मुखर नजर नहीं आते है। इसके दो कारण हो सकते हैः पहला तो एससी/एसटी की जनसंख्या की गणना होती है व दूसरा मंडल आयोग के समर्थन से जो ओबीसी नेताओं से अपेक्षा थी वो धूमिल हुई है।

गरीबी का सामाजिक व शैक्षणिक पिछड़ेपन से गहरा ताल्लुक है। गरीबों में जन्मदर ज्यादा है। उसके हिसाब से देखा जाए तो कुल जनसंख्या अनुपात में ओबीसी का आंकड़ा बढ़ा है। भारत में समाज कल्याण की जितनी भी योजनाएं फैल हो रही है उसका मुख्य कारण यही है कि हमारे पास जातिगत जनसंख्या का कोई आंकड़ा नहीं है।

केंद्र में ओबीसी के लिए मंत्रालय बना है,ओबीसी आयोग बना है, विभिन्न राज्यों में ओबीसी मंत्रालय, विभाग व आयोग बने हुए है, मगर ओबीसी का आंकड़ा उपलब्ध न होने के कारण अल्प फण्ड जारी होता है व जो जारी होता है वो या तो विभागों के वेतन पर ही खर्च हो जाता है या केंद्र का फण्ड राज्य सबके लिए उपयोग में ले लेते है क्योंकि जनसंख्या का आंकड़ा उपलब्ध न होने का बहाना जरूर उपलब्ध है।

आज तो ओबीसी नेताओं, ओबीसी के जातिय संगठनों का हाल यह है कि श्रेष्ठी वर्ग के सामने समर्पण कर चुके है और जो न्यायपूर्ण तरीके से 27% आरक्षण मिला उसको भी नहीं बचा पा रहे है। ओबीसी का बुद्धिजीवी वर्ग सच्चाई लिखता है मगर कोई समझने/लड़ने वाला नहीं है।

हर राज्य में ओबीसी को आरक्षण देने, बढ़ाने का ढोंग चलता रहता है। राज्य सरकारें बिना ओबीसी की नवीनतम जनगणना करवाये देती है और न्यायपालिका नवीनतम आंकड़े उपलब्ध न होने का कह कर खारिज कर देती है। जब आरक्षण देने की बारी आती है तो उच्च जातियों के लोग आंकड़े न होने का कह कर न्यायपालिका में याचिका लगाते है और जब आंकड़ों के लिए जातिगत जनगणना की बात होती है तो उच्च जातियां झूठ-षड्यंत्र के माध्यम से ओबीसी को बरगलाने लग जाती है कि इससे हिन्दू धर्म कमजोर हो जाएगा और देश पर मुस्लिम राज आ जायेगा! देश दुबारा बंटवारे की तरफ बढ़ जाएगा।

आँकड़ों के अनुसार केन्द्रीय मंत्रालयों में अवर सचिव से लेकर सचिव व निदेशक स्तर के 747 अफसरों में महज 60 अफसर एससी, 24 अफसर एसटी व 17 अफसर ओबीसी समुदाय के हैं। अर्थात उच्च सरकारी पदों पर दलितों का प्रतिनिधित्व महज 15 फीसदी है। जब कि सामान्य वर्ग से करीब 85 फीसदी अफसर इन पदों पर कार्यरत हैं और ओबीसी समुदाय तो कहीं नजर ही नहीं आता है।

केंद्र सरकार में सचिव रैंक के 81 अधिकारी हैं, जिस में केवल 2 अनुसूचित जाति के और 3 अनुसूचित जनजाति के हैं व ओबीसी शून्य। 70 अपर सचिवों में केवल 4 अनुसूचित जाति के और 2 अनुसूचित जनजाति के हैं व 3 ओबीसी के है।

293 संयुक्त सचिवों में केवल 21 अनुसूचित जाति और 7 अनुसूचित जनजाति के व 11ओबीसी के हैं। निदेशक स्तर पर 299 अफसरों में 33 अनुसूचित जाति और 13 अनुसूचित जनजाति व 22 ओबीसी के अधिकारी हैं।

केंद सरकार की ग्रुप A की नौकरियों मे अनुसूचित जाति की भागीदारी का प्रतिशत 12.06 है, पिछड़ा वर्ग की भागीदारी 8.37 जबकि सामान्य वर्ग की हिस्सेदारी 74.48 है।

ग्रुप B की नौकरियों में अनुसूचित जाति की भागीदारी का प्रतिशत 15.73 है, पिछड़ा वर्ग की भागीदारी 10.01 जबकि सामान्य वर्ग की हिस्सेदारी 68.25 है। ग्रुपC की नौकरियों मे अनुसूचित जाति की भागीदारी का प्रतिशत 17.30 है, पिछड़ा वर्ग की भागीदारी 17.31 जबकि सामान्य वर्ग की हिस्सेदारी 57.79 है।

वहीं केंद सरकार के उपक्रमों की नौकरियों मे अनुसूचित जाति की भागीदारी का प्रतिशत 18.14 है, पिछड़ा वर्ग की भागीदारी 28.53 जब कि सामान्य वर्ग की हिस्सेदारी 53.33 है।

यूजीसी के आरटीआई द्वारा मिले जवाब के मुताबिक, देशभर में कुल 496 कुलपति हैं। इन 496 में से केवल 6 एससी, 6 एसटी, और 36 ओबीसी कुलपति हैं। इस के अलावा बाकी बचे सभी 448 कुलपति सामान्य वर्ग के हैं। मतलब देश की 85 फीसदी आबादी (एससी, एसटी और ओबीसी) से 48 कुलपति और 11 फीसदी आबादी (सामान्य) से 448 कुलपति।

पिछड़े प्रधानमंत्री के कार्यालय में एक भी ओबीसी अधिकारी नहीं है। जहां से पूरे देश के लिए नीतिनिर्माण के फैसले होते है, वहां देश की 65% आबादी का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। न्यायपालिका आजादी के समय ही दूर चली गई थी। सोशल जस्टिस की लड़ाई को धार्मिक झंडों के हवाले कर दिया गया।

“पिछड़े पावे सौ में साठ” के नारों का दौर खत्म हो चुका है। अब पिछड़े हिंदुत्व का झंडा उठा कर हकों के नाम पर “लट्ठ खावे आठ” के दौर में है। संघी ढोल पर थिरकने का नया दौर आया है। झूमते रहिए।
(आलेख: मदन कोथुनियां। वरिष्ट पत्रकार, जयपुर)

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