शुक्रवार, नवम्बर 22, 2024
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एससी/एसटी अधिनियम के तहत पीड़ित/आश्रित को अनिवार्य रूप से सुना जाना चाहिए: सुप्रीम कोर्ट

उच्चतम न्यायालय ने भूपेंद्र सिंह बनाम राजस्थान राज्य में शुक्रवार को फैसला सुनाते हुए कहा कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (एससी/एसटी अधिनियम) की धारा 15 ए के तहत पीड़ित या उसके आश्रित को किसी भी कार्यवाही में अनिवार्य रूप से सुना जाना चाहिए। धारा 15 ए के तहत जमानत, रिहाई, पैरोल, दोषसिद्धि या सजा के लिए किसी भी कार्यवाही में पीड़ित या उसके आश्रित को सुनने की शर्त अधिनियम के तहत एक महत्वपूर्ण आदेश है और इसे सख्ती से लागू किया जाना चाहिए।

जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और बीवी नागरत्ना की पीठ ने कहा कि ये बहुत महत्वपूर्ण सुरक्षा है जो भेदभाव और पूर्वाग्रह के अधीन समुदाय के सदस्यों को लाभान्वित करने के लिए है और इन प्रावधानों को सख्ती से लागू किया जाना चाहिए। पीठ ने राजस्थान उच्च न्यायालय के एक फैसले को रद्द कर दिया, जिसने धारा 15 ए के तहत जनादेश का पालन किए बिना आरोपी को जमानत दे दी थी।

शक्तिशाली राज्य एक स्वीपर के खिलाफ लड़ रहा है

उच्चतम न्यायालय ने एक सफाईकर्मी के खिलाफ ताकतवर राज्य की लड़ाई पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए शुक्रवार को एक नगर पालिका को सेवा के नियमितीकरण के लिए हाईकोर्ट के निर्देश के खिलाफ दायर याचिका पर नोटिस जारी करने की शर्त के तहत कानूनी खर्च के रूप में 50,000 रुपये का जुर्माना जमा करने का निर्देश दिया।

जस्टिस एल नागेश्वर राव और जस्टिस बीआर गवई की पीठ एक सफाई कर्मचारी की सेवाओं को नियमित करने के लिए मद्रास हाईकोर्ट (मदुरै पीठ) के निर्देश के खिलाफ तमिलनाडु के बोदिनायकनूर नगर पालिका के आयुक्त द्वारा दायर एक अपील पर विचार कर रही थी। जस्टिस राव ने तमिलनाडु के अतिरिक्त महाधिवक्ता अमित आनंद तिवारी से कहा कि एक शक्तिशाली राज्य एक स्वीपर के खिलाफ लड़ रहा है। आप उसे यहां क्यों घसीटेंगे? वह एक अंतिम श्रेणी का कर्मचारी है। ये सफाई कर्मचारी अब भी उसी ग्रेड में काम कर रहे होंगे। वह यहां किसी वकील की सेवा लेने के लिए कितना धन खर्च करेगा? एएजी ने कहा कि हाईकोर्ट के निर्देश को चुनौती इसलिए दी जा रही है, क्योंकि कई अन्य मामलों में निर्देश लागू किए जा रहे हैं।

कोवैक्सीन पर डब्ल्यूएचओ के फैसले की प्रतीक्षा करें

उच्चतम न्यायालय ने एक जनहित याचिका को दीवाली की छुट्टी के बाद सुनवाई के लिए पोस्ट किया है। याचिका में कोवैक्सीन को डब्ल्यूएचओ की मंजूरी नहीं मिलने के मद्देनजर, जिन लोगों को कोवैक्सीन लग चुका है, उन्हें कोविशील्ड का फिर से टीका लगाए जाने की मांग की गई है। जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ ने कहा कि यह बताया गया है कि भारत बायोटेक (कोवैक्सिन के संबंध में) ने डब्ल्यूएचओ को स्पष्टीकरण के लिए नई प्रस्तुति की है। निर्णय आने की उम्मीद है। हम आपकी तरह ही अखबार पढ़ रहे हैं। आइए दिवाली के बाद तक थोड़ा इंतजार करें। अगर डब्ल्यूएचओ से मंजूरी मिल जाती है, तो कोई परेशानी नहीं होगी।

याचिकाकर्ता की ओर से पेश हुए वकील ने छात्रों, अन्य लोगों के साथ-साथ विदेश यात्रा करने वाले छात्रों को होने वाली असुविधा का आग्रह किया, जिन्हें कोवैक्सीन की मंजूरी नहीं मिलने के कारण मुश्किल का सामना करना पड़ रहा है। जस्टिस चंद्रचूड़ ने टिप्पणी की कि हम कैसे कह सकते हैं कि जो लोग टीके की पहली डोज प्राप्त कर लिए हैं, उन्हें दूसरा टीका लगवाने की अनुमित कैसे दे सकते हैं? हम नहीं जानते कि जटिलताएं क्या होंगी। हम लोगों के जीवन के साथ नहीं खेल सकते। हम नहीं जानते कि परिणाम क्या होंगे। पीठ ने मामले को सुनवाई के लिए दीवाली की छुट्टी के बाद के लिए पोस्ट किया।

एलोपैथी विवाद पर बाबा रामदेव को नोटिस

बाबा रामदेव की मुश्किलें बढ़ सकती हैं। दिल्ली हाईकोर्ट ने योग गुरु को एलोपैथी के खिलाफ कथित रूप से गलत जानकारी फैलाने के मामले में समन जारी किया है। जस्टिस सी हरिशंकर ने रामदेव को वाद पर जवाब दाखिल करने के लिए चार सप्ताह का समय दिया है। उन्होंने स्पष्ट किया कि वह रामदेव के खिलाफ वाद में आरोपों के गुण-दोष पर कोई राय व्यक्त नहीं कर रहे और किसी प्रकार की राहत देने के बारे में बाद में विचार किया जाएगा।

जस्टिस हरिशंकर ने रामदेव के वकील राजीव नायर से कहा कि मैंने वीडियो क्लिप (रामदेव के) देखे हैं। वीडियो क्लिप देखकर लगता है कि आपके मुवक्किल एलोपैथी उपचार प्रोटोकॉल पर उपहास कर रहे हैं। उन्होंने लोगों को स्टेरॉइड की सलाह देने और अस्पताल जाने वाले लोगों तक का उपहास उड़ाया है। क्लिप देखकर यह निश्चित रूप से वाद दर्ज करने का मामला है। वरिष्ठ अधिवक्ता नायर ने कहा कि उन्हें मामले में समन जारी होने पर कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन उन्होंने आरोपों का विरोध किया। नायर ने अदालत से अनुरोध किया, ‘वाद के तीन हिस्से हैं। कोरोनिल, मानहानि और टीकाकरण के खिलाफ असमंजस। अदालत केवल मानहानि के मामले में ही नोटिस जारी कर सकती है’।

मातहत अधिकारी के कृत्यों का जिम्मेदार उच्च अधिकारी नहीं

उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि दीवानी अवमानना का मतलब है कि अदालत के निर्णय का जानबूझकर पालन नहीं करना और अगर कोई मातहत अधिकारी अदालत की तरफ से पारित आदेश की अवज्ञा करता है तो उसकी जिम्मेदारी उच्च अधिकारियों पर नहीं डाली जा सकती है। यह टिप्पणी मंगलवार को उच्चतम न्यायालय ने की।

जस्टिस एस. के. कौल और जस्टिस एम. एम. सुंदरेश की पीठ ने कहा कि किसी और की जिम्मेदारी को सिद्धांत के तौर पर अवमानना के मामले में लागू नहीं किया जा सकता। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अदालतों की अवमानना कानून, 1971 के मुताबिक सिविल अवमानना का मतलब होता है कि अदालत के किसी निर्णय का जानबूझकर अवज्ञा करना और इसलिए जानबूझकर अवज्ञा ही प्रासंगिक है।

पीठ ने कहा चूंकि किसी मातहत अधिकारी ने अदालत द्वारा पारित आदेश की अवज्ञा की है, इसलिए इसकी जिम्मेदारी किसी वरीय अधिकारी पर उनकी जानकारी के बगैर नहीं डाली जा सकती। उच्चतम न्यायालय का फैसला गुवाहाटी उच्च न्यायालय के एक आदेश के खिलाफ दायर अपील पर आया है, जिसने आवेदकों को असम कृषि उत्पाद बाजार कानून, 1972 की धारा 21 के मुताबिक लगाए गए जुर्माने के सिलसिले में पारित आदेश का जानबूझकर अवज्ञा करने का दोषी पाया था। पीठ ने उच्च न्यायालय के आदेश को दरकिनार करते हुए कहा कि आवेदकों का यह विशिष्ट मामला है कि उन्होंने अदालत के निर्देशों का उल्लंघन नहीं किया। पीठ ने कहा कि कोई ऐसा साक्ष्य नहीं है जिससे साबित किया जा सके कि अपने मातहतों के काम के बारे में उन्हें जानकारी थी या उन्होंने मिलीभगत में काम किया।
(आलेख: जेपी सिंह। वरिष्ठ पत्रकार। इलाहाबाद)

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