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रविवार, दिसम्बर 22, 2024
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अम्बानी-अडानी की पूजा: इस आव्हान के पीछे क्या है?

राज्यसभा में भाजपा के सांसद के जे एल्फोन्स साहब ने अम्बानी और अडानी की पूजा करने का आव्हान किया है। वे देश में रिकॉर्ड तोड़ती बेरोजगारी पर संसद में हुयी बहस में हिस्सा लेते हुए बोल रहे थे।

उन्होंने कहा कि अम्बानी और अडानी अगर कमाई कर रहे हैं, तो नौकरियाँ भी तो पैदा कर रहे हैं — इसलिए उनका न केवल सम्मान किया जाना चाहिए, बल्कि उन्हें पूजा जाना चाहिए। यह दिलचस्प बात है कि उनकी इस गुहार को जितना फुटेज मिलना चाहिए था, उतना नहीं मिला। जिनकी पूजा की बात कर रहे थे, उन्होंने भी उनके इस बयान को अपने मीडिया में कोई ख़ास तवज्जोह नहीं दी। अपने भाषण में एल्फोन्स ने भाजपा राज की वर्णमाला के इन दोनों “अ” की कमाई को लेकर उठाये जाने वाले सवालों का जवाब देते हुए, दुनिया भर के धन्नासेठों की आमदनी गिनाई और दावा किया कि गरीबी-अमीरी के बीच गैरबराबरी तो सब जगह है, वगैरा-वगैरा। भाजपा के ये सांसद पूर्व में मोदी सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं।

यहां विषय अम्बानी और अडानी द्वारा रोजगार पैदा करने के सरासर बेबुनियाद दावे की गहराई में जाने का नहीं है। पूरा देश जानता है कि नवउदारीकरण के बाद और खासतौर से पिछले 7 वर्षों में कितने रोजगार पैदा हुए है। नब्बे के दशक से शुरू हुआ रोजगारहीन (जॉब लैस) विकास अब किस तरह रोजगार छीन (जॉब लॉस) विकास में बदल गया है। जिन दोनों की पूजा करने की सलाह भाजपा सांसद राज्यसभा में दे रहे हैं, उन दोनों की अगुआई वाले कारपोरेट घरानों ने मोदी सरकार के साथ साँठगाँठ करके सार्वजनिक क्षेत्र और सार्वजनिक सेवाओं के जिन-जिन संस्थानों को हड़पा है, उनमें रोजगार बढ़ने की बजाय कितना कम हुआ है। उनकी अटाटूट कमाई की रिसन की बूंदों वाला ट्रिकलिंग इफ़ेक्ट तो दिखा तक नहीं, समाज की सारी नमी और सोख ली गयी है।

बेरोजगारी और भुखमरी की बाढ़ सी आ गयी है। यह भी कि इस बीच में पहले से चली आ रही नौकरियों सहित नए रोजगार की गुणवत्ता विकट तेजी घटी है और उत्पादन के जरिये किये जाने वाले मूल्य संवर्धन (वैल्यू एडीशन) में श्रम का हिस्सा लगातार कम हुआ है। मुनाफे जितने छप्परफाड़ हुए, मजदूरी उतनी ही हाड़तोड़ और मिलने वाली पगार उतनी ही कमरतोड़ हुयी है। इस सच को उजागर करने वाले तथ्य और आंकड़ों के ग्रन्थ के ग्रन्थ उपलब्ध हैं –जिनमें से ज्यादातर खुद सरकार या उद्योगपतियों के शोध संस्थानों के जरिये सामने आये हैं। इसलिए पूजत्व की जो वजह सांसद जी ने बताई, वह दूर-दूर तक कहीं नहीं दिखाई देती।



यहां सवाल उस – एक और – “नयेपन” का है, जो मोदी राज की नत्थी पहचान बन कर सामने आया है। 1956 में लिखी एक किताब में देश के तब के एक बड़े पूंजीपति ने आह-कराह के साथ लिखा था कि “भारत की जनता पूंजीपतियों को अच्छी नजर से नहीं देखती — उसकी नजरों में पूंजीपति ऐसे धूर्त तिकड़मी हैं, जो सरकारों के साथ मिलकर बेईमानी करते हैं, मजदूरों का शोषण करते हैं, जनता को लूटते हैं।” उन्होंने अपने बिरादर पूंजीपतियों से इस खराब छवि को सुधारने के लिए कुछ करने के लिए कहा था। पूंजीपतियों के प्रति जनता का यह तिरस्कार भाव ही था कि के के बिड़ला अपने गृह जिले झुंझनू से और नवल टाटा अपने घर तब की बम्बई की सीट से लोकसभा का चुनाव लड़े, तो बुरी तरह हारे।

बहरहाल पूँजीपतियो ने तो अपनी आदतें सुधारने के लिए नाखून तक नहीं कटाये। भाजपा जरूर पूरी निष्ठा के साथ उनकी छवि चमकाने में लग गयी। तेरह दिन की सरकार में संसद में विश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के आख़िरी दिन भोजनावकाश के दौरान अमरीकी कम्पनी एनरॉन के साथ हुए करार से शुरू हुयी अटल सरकार अगले कार्यकाल में बालको के बिक्री घोटाले से होती हुई टेलीकॉम के सर्वनाश तक गयी। वर्ष 2014 में पहली बार प्रधानमंत्री बनने के बाद अपने घर आये मोदी की पीठ पर हाथ रखे मुकेश अम्बानी की तस्वीर से हुयी अगली शुरुआत वाशिंगटन में वित्त मंत्राणी निर्मला सीतारमण के “भारत को पूंजीपतियों का सम्मान करने वाला देश” बताने से होते हुयी उनकी पूजा करने के सदुपदेश तक आयी है और यहीं तक रुकने वाली नहीं है।

यह कोई अलग-थलग घटना नहीं है। भाजपा जिस आरएसएस की सहस्र भुजाओं में से एक उसकी राजनीतिक भुजा है, यह उसकी विचारधारा के मूल में है। दोहराने की आवश्यकता नहीं कि आरएसएस की स्थापना के पीछे तब की अंग्रेज हुकूमत के संरक्षण के साथ दुनिया के सबसे खूंखार पूँजीवाद – फासिस्टों और नाज़ियों – की प्रेरणा थी। इस प्रेरणा को इसके संस्थापकों ने भरे गले से गदगद होकर स्वीकारा भी और संगठन शैली से लेकर गणवेश तक व्यवहार में भी उतारा। जिस मुसोलिनी से मिलकर और उसके शिविरों में रहकर उनसे प्रेरित होकर संघ की संस्थापक मंडली ने इसे ढाला था, उस मुसोलिनी ने कहा था कि “फासिज्म को कार्पोरेटिज्म कहना ज्यादा सही होगा, क्योंकि यह सत्ता और कारपोरेट का एक दूसरे में विलय है।” इसी के आधार पर आरएसएस की नीति और सिद्धांत गढ़े गए। इसके अधिक विस्तार में जाने की जरूरत नहीं – इन दिनों यह आंखों देखा अनुभव है, जिसे राजनीतिक रूप से कम जागरूक हिस्सा भी अब भली-भांति समझने लगा है।

कार्पोरेट्स और पूंजीपतियों को देवत्व प्रदान करने का प्रत्याख्यान मेहनतकशों को दानव मानने तक जाता है। गोलवलकर समग्र संकलन ‘विचार नवनीत’ से लेकर आरएसएस का पूरा साहित्य श्रम की अवमानना और मेहनतकशों के तिरस्कार से भरा हुआ है। न्यूनतम वेतन, काम के घंटे, काम के दौरान सुरक्षा प्रबंधन, नौकरी की गारंटी जैसे उनके सारे अधिकारों को छीन कर चार लेबर कोड लाया जाना उसी का एक रूप है। खुद मोदी यह मानते हैं कि इस देश में दो तरह के लोग हैं : एक दौलत पैदा करने वाले, जो उनके मुताबिक़ अम्बानी-अडानी जैसे धनपिशाच है ; दूसरे दौलत खाने वाले, जो उनकी विचारधारा के हिसाब से गरीब और मेहनतकश भारतीय हैं। वे खुद कई बार कह चुके हैं कि 70 साल तक इस देश में अधिकारों की ही बात की गयी, अधिकारों पर बहुत जोर दिया गया। बकौल उनके अब समय आ गया है कि अधिकारों की बात बंद हो और मेहनतकश हिन्दुस्तानी बिना कोई चूं-चपड़ किये सिर्फ कर्तव्यों पर ही ध्यान दें।

कोरोना काल में मनुष्यता के प्रति किये अपराध को अपनी काबलियत बताते हुए यही बात बजट पर बहस का जवाब देते हुए वित्त मंत्राणी निर्मला सीतारमण ने राज्यसभा में कही कि “हमने अमरीका या दूसरे देशों की तरह महामारी के समय सीधे नकद सहायता नहीं दी।” यह ढीठता सिर्फ मंत्री या सांसद तक सीमित नहीं है — खुद प्रधानमंत्री ने जो अपना निजी राहत कोष बनाया है, उसका हिसाब भी यही कहता है। इतनी विनाशकारी महामारी और उसके आज तक निरन्तरित जबरदस्त असर के बावजूद 10 हजार करोड़ रुपयों से ज्यादा के इस फण्ड का एक तिहाई हिस्सा भी अभी तक खर्च नहीं किया जाना असहायों और पीड़ितों के प्रति उसी तिरस्कार भाव का परिचायक है, जिसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। यही निर्लज्ज ढिठाई अब लुटे पिटे लोगों से लुटेरों की पूजा करवाना चाहती है।

देश और उसके अवाम को प्रतिगामिता की इस फिसलन भरी ढलान पर धकेलने की यदि लुटेरों ने पूरी तैयारी कर रखी है, तो उसका जवाब कमेरों – हर तरह के कमेरों – की मैदानी तैयारियों से ही दिया जा सकता है। अमरीका और यूरोप के अनेक देशों की कुल आबादी से ज्यादा मेहनतकशों की आबादी वाले हिन्दुस्तान के कमेरों ने इस जरूरत को समझा है। इसके तीनों बड़े तबके – किसान, मजदूर और खेत मजदूर – मिलकर भी और अलग-अलग भी मोर्चे खोले हुए हैं, जिसकी एक आभा किसान आंदोलन दिखा चुका है – अगला धावा 28-29 मार्च को होना है।

आलेख : बादल सरोज
(लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।

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