‘फासीवाद’ विश्व पूंजीवाद और साम्राज्यवाद की शक्ति का नहीं बल्कि दुर्बलता का सूचक है.
फासीवाद विश्व के राजनैतिक मंच पर समाजवादी क्रांति के आरंभ के बाद पूंजीवाद के आम संकट काल में प्रकट हुआ। विश्वव्यापी महान आर्थिक संकट (1929-33) के दौरान फासीवाद की ताकत बढ़ी। सन 1933 में उसने दूसरी सफलता हासिल की। जर्मनी में राजसत्ता पर सर्वहारा वर्ग के अधिकार को रोकने के लिए वहा शासक वर्गों ने राजसत्ता नाजियों के नेता हिटलर के हाथ में सौंप दिया ।
फासीवाद विश्व को दूसरे महायुद्ध की आग में झोंककर भस्मासुर की तरह उसके बड़े-बड़े ध्वजाधारी हिटलर, मुसोलिनी, तीजो खुद उस आग में भस्म हो गये। फासीवाद पराजित हुआ है लेकिन नस्तानाबूत नही हुआ हैं। आमतौर पर यह धारणाएं है कि फासीवाद दमन हैं, प्रतिक्रियावादी है, प्रतिक्रांति हैं, फौजी तानाशाही है लेकिन हर एक दमन, प्रतिक्रांति, सैन्य तानाशाही फासीवाद नहीं है।
दमन, प्रतिक्रिया, प्रतिक्रांति और फौजी तानाशाही फासीवादे के उदय के पहले भी थे और आज भी हैं । ब्रिटिश शासकों ने हमारी आजादी की लड़ाई को कुचलने के लिए कितने जुल्म ढाए! लेकिन उस दमन को कभी भी फासीवाद नहीं कहा गया।साम्प्रदायिकता एक प्रतिक्रिया है, लेकिन फासीवाद नहीं ।दमन, प्रतिक्रिया, प्रतिक्रांति, सैन्य तानाशाही विशेष परिस्थिति में फासीवाद बन जाते हैं ।किन हालात में यह फासीवाद बनते है और फासीवाद क्या है?
1933 में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल ने फासीवाद को परिभाषित करते हुए कहा कि “फासीवाद वित्तीय पूंजी के सबसे ज्यादा प्रतिक्रियावादी, सबसे ज्यादा अंतर्राष्ट्रवाद और सबसे ज्यादा साम्राज्यवादी तत्वों की खुली आतंकवादी तानाशाही है।” क्लारा जेटकिन ने कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की परिवर्धित कार्यकारिणी की बैठक में फासीवाद पर रिपोर्ट पेश करते हुए उन्होंने कहा कि “चुकि पश्चिम और मध्य यूरोप के सर्वहारा समाजवादी क्रांति पूरा करने में असफल हुए है। इसलिए उन्हें उसका दंड फासीवाद के रूप में भोगना पड़ रहा हैं।”
कार्यकारिणी की उसी बैठक में फासीवाद के चरित्र का प्रारंभिक विश्लेषण पेश करते हुए कहा कि ‘फासीवाद’ विश्व पूंजीवाद और साम्राज्यवाद की शक्ति का नहीं, दुर्बलता का सूचक है।
कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की छठी कांग्रेस में यह स्पष्ट किया गया है कि फासीवाद कब और कैसे आता है और क्या करता हैं। कुछ विशेष ऐतिहासिक हालात में बुर्जुआ साम्राज्यवादी, प्रतिक्रियावादी आक्रमण की प्रगति फासीवादी का रूप धारण करती हैं। यह हालात हैं- पूंजीवादी संबंधों की अस्थिरता,शहरी पेटी बुर्जुआ और बुद्धिजीवियों के बहुत बड़े हिस्से का निस्व होना, देहांत के पेटी बुर्जुआ में असंतोष और अंत में सर्वहारा के जनसंघर्षों का लगातर खतरा।अपना राज दृढ और चिरस्थायी बनाने के लिए बुर्जुआ वर्ग संसदीय व्यवस्था को छोड़कर फासीवादी व्यवस्था को अपनाने को बाध्य होता है।
फासीवाद का मुख्य लक्ष्य मजदूरों के क्रांतिकारी हराबल को अर्थात सर्वहारा के कम्युनिस्ट हिस्सों और प्रमुख दलों को नष्ट करना हैं।बुर्जुआ वर्ग के भारी संकट कालों में फासीवाद,पूंजीवाद विरोधी शब्दावली का सहारा लेता है,लेकिन राजसत्ता पर जमकर बैठ जाने के बाद वह अपनी पूंजीवाद विरोधी लफ्जों को ताक पर रखकर बड़ी पूंजी की आतंकवादी तानाशाही के रूप में प्रकट होता हैं।
आखिर आर्थिक संकट के दौरान बुर्जुआ वर्ग को फासीवाद का रास्ता अपनाने की जरूरत क्यो पड़ी?इसका जवाब कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के सातवीं कांग्रेस में जार्ज दिमित्रोव ने अपने भाषण में देते हुए कहा “साम्राज्यवादी चक्र संकट का सारा बोझ श्रमजीवी जनता के कंधों पर डाल देने की कौशिश कर रहे है। इसलिए उन्हें फासीवाद की जरूरत हैं। वे लोग मजदूरों और किसानों के क्रांतिकारी आंदोलनों को कुचल कर क्रांतिकारी शक्तियों के विकास को रोक देने की कौशिश कर रहे है इसलिए उन्हें फासीवाद की जरूरत हैं।
उन्होंने कहा कि फासीवाद का विकास सब देशों में एक जैसा नहीं होता और इसलिए फासीवादी तानाशाहियां भी सब देशों में एक जैसी नहीं होती हैं।
जिन देशों में फासीवाद का व्यापक जनाधार नहीं होता है और जहां खुद फासीवादी बुर्जुआ के शिविर में विभिन्न गुटों के बीच संघर्ष बहुत कुछ तेज होता है,वहां फासीवाद संसद को फौरन खत्म करने का साहस नहीं करता,बल्कि दूसरी बुर्जुआ पार्टियों को और सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी को भी कुछ हद तक कानूनी बने रहने का इजाजत देता हैं। लेकिन जहां के शासक बुर्जुआ वर्ग को क्रांति के जल्द आरंभ होने का डर होता है वहा फासीवाद सभी प्रतिदंद्वी पार्टियों और गुटों के खिलाफ आत॔क का राज फौरन कर राजनैतिक इजारेदारी कायम करता हैं।
क्या फासीवाद का आगमन सिर्फ़ एक बुजुर्ग सरकार की जगह दूसरी बुर्जुआ सरकार का आगमन हैं? क्या इससे राज्य की चरित्र में कोई परिवर्तन नही होता? इसका जवाब देते हुए दिमित्रोव ने कहा “फासीवाद का सत्तारोहण साधारणतः एक बुर्जुआ सरकार की जगह दूसरी बुर्जुआ सरकारा का आना नहीं हैं,बल्कि बुर्जुआ के वर्गीय आधिपत्य में राज्य के एक रूप का स्थान दूसरे रूप द्वारा ,बुर्जुआ जनतंत्र का स्थान खुली आतंकवादी तानाशाही द्वारा लिया जाना हैं।
फासीवाद का मुख्य लक्ष्य जनता का निरंकुश शोषण हैं।दिमित्रोव के शब्दोँ में “फासीवाद श्रमजीवी जनता पर पूंजी का सबसे भयंकर आक्रमण हैं,फासीवाद निरंकुश अंधराष्ट्रवाद और लूटेरा युद्ध है,फासीवाद घोल प्रतिक्रिया और प्रतिक्रांति है,फासीवाद मजदूर वर्ग का और श्रमिकों का सबसे दुष्ट दुश्मन हैं”।
फासीवाद को परास्त करना मजदूर वर्ग की प्राथमिक जिम्मेदारी है। आलेख: सुखरंजन नंदी
(सुखरंजन नंदी वामपंथी एक्टिविस्ट एवं छत्तीसगढ़ किसान सभा के राज्य समिति सदस्य हैं।)
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