धर्म के बारें में मार्क्स का यह कथन ” धर्म उत्पीड़ित प्राणी की आह, हृदयविहीन विश्व का हृदय, आत्माहीन परिवेश की आत्मा है। यह जनता की अफीम है।
धर्म को अफीम बताने वाले या किसी नशे के रूप में इसे मार्क्स ने ही सबसे पहले नहीं देखा था।
मार्क्स के बहुत पहले सन 1767 में ही फ्रांस के भौतिकवादी डि होल्बाख ने ईसाइयत पर टी करते हुए कहा था कि “धर्म मनुष्य को उत्साह में मस्त करने की एक ऐसी कला है जो उसे अपने पर शासकों द्वारा किए गये जुल्मों पर सोचने से रोकती हैं।
मार्क्स को वर्कर्स एसोसिएशनों तथा यूनियनों से परिचित कराने वाले मोसेस हेस ने अपने लेखों के एक संकलन में धर्म को नशीली पदार्थ अफीम, ब्रांडी के रूप में उल्लेख किया है ।गुलाम होने के कारण ही कोई मनुष्य दयनीय होता है तथा धर्म उसे गुलामी को सहने की शक्ति देता है लेकिन धर्म उसे खुद को गुलामी से मुक्त होने की शक्ति नहीं दे सकता”।
मार्क्स के प्रारंभिक दिनों के अत्यंत करीबी मित्र बर्लिन विश्वविद्यालय के अध्यापक ब्रुनो बावर ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि,”राज्य को धर्म के प्रति निरपेक्ष होना चाहिए,राजसत्ता का धार्मिक स्वरूप स्वतंत्रता के लिए मनुष्य की मूल वृत्तियों को सुलाने में अफीम की तरह काम करता हैं”।
मार्क्स ने धर्म जनता की अफीम है और वह उसे अपने पर किए जा रहे जुल्मों से लड़ने में निष्क्रिय बनाता है,सिर्फ इस बात तक ही धर्म के बारे में मार्क्स की कथन नही थी।मार्क्स ने धर्म को अफीम कहने के बावजूद वे अन्य नास्तिकवादियों की तरह धर्म का सिर्फ उपहास करने या उसे तिरस्कृत करने तक ही सीमित नही रहे।
धर्म के साथ समाज के दबे-कुचले तबकों के अभिन्न संबंध का कारण को उन्होने तलाश किया।मार्क्स ने धर्म को हमेशा एक भूल,एक भ्रम माना।
उन्होने यह देखा कि एक वर्गीय समाज में धर्म उत्पीड़ित जनता के जीवन में एक स्वांत्वना के समान हैं,एक ऐसी जरूरी सांत्वना जिसके बिना आदमी का अपनी कठिन परिस्थितियों में जीना दूभर हो जायेगा।
धर्म का नाश भ्रमों के नाश के लिए, आदमी को ठोस यथार्थ के सम्मुख लाने के लिए करना है लेकिन भ्रमों का नाश उस वक्त तक नहीं किया जा सकता जब तक मानव जीवन की उन परिस्थितियों को नही बदला जाता जिनके लिए भ्रमों की आवश्यकता होती हैं। (आलेख : सुख रंजन नंदी)
धर्म का नाश याने कि भ्रम का नाश
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