शनिवार, जुलाई 27, 2024
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दंगा-माफिया-अपराध मुक्ति के नाम पर सांप्रदायिकता

उत्तर प्रदेश में तीन बड़े नाम थे—उनमें एक आज़म खान का था। बताइए, आज वो कहां है?…लेकिन अगर सपा सत्ता में आ गयी, फिर क्या ये तीनों जेल में रह पाएंगे? भाजपा ही है जो माफिया को सलाखों के पीछे डालती है। — अमित शाह, बरेली में चुनाव सभा में।

अमित शाह भारत के गृह मंत्री हैं। आजम खान, जिन्हें ‘सलाखों के पीछे’ डालने की शेखी मारने के साथ, आगे भी जेल में ही डाले रहने का ‘वादा’ देश के गृहमंत्री द्वारा किया जा रहा था, जैसा कि सभी जानते हैं, रामपुर के एक प्रभावशाली मुस्लिम नेता हैं, जो समाजवादी पार्टी की पिछली सरकार में मंत्री भी रहे थे और इस समय भी भारतीय संसद के सदस्य हैं और वह भी जनता द्वारा सीधे चुने गए सदस्य। बेशक, योगी राज में उन पर अपने स्थापित किए विश्वविद्यालय के लिए जमीन पर अवैध कब्जे करने से लेेकर, लाइब्रेरी से मूल्यवान किताबें चुराने आदि सेे लेकर बकरी चुराने तक के, करीब सात दर्जन मुकद्दमे थोपे गए हैं। बदले की नंगी कार्रवाई में, खुद अमित शाह के ही दावे के अनुसार मोदी-योगी की डबल इंजन सरकार ने न सिर्फ यह सुनिश्चित किया है कि अस्सी से ज्यादा मामलों में जमानतें हो जाने के बाद भी, आजम खान पिछले दो साल से जेल में ही बंद हैं, बल्कि उनके साथ भी स्टेन स्वामी जैसा ही सलूक करते हुए, इस बीच कोरोना से उनकी हालत गंभीर हो जाने के बावजूद, उन्हें जेल से बाहर नहीं निकलने दिया गया। फिर भी वह बच गए।

आजम खान के पिछली बार विधायक चुने गए बेटे को, जिन्हें बाद में न्यूनतम आयु संबंधी तकाजे पूरे न करने के चलते बाद में विधानसभा की सदस्यता छोड़नी पड़ी थी, जरूर काफी समय जेल में रहने के बाद, पिछले ही दिनों जमानत पर रिहाई नसीब हो गयी थी। पिता-पुत्र, दोनों इस विधानसभाई चुनाव में भी सपा की ओर से मैदान में हैं। यह हमारे देश की शीर्ष न्यायिक व्यवस्था की ही विडंबना है कि चुनाव प्रचार के लिए भी आजम खान की जमानत पर रिहाई की सुप्रीम कोर्ट को भी कोई अर्जेंसी महसूस नहीं हुई, जबकि लखीमपुर-खीरी के किसानों के हत्यारे, केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्र टेनी के बेटे आशीष मिश्रा टेनी को इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बैंच ने चार ही महीने में इसके बावजूद जमानत दे दी कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर गठित सीबीआइ टीम ने अपनी जांच में उसे चार किसानों तथा एक पत्रकार, पूरे पांच लोगों को इरादतन ‘जीप से कुचलकर मार देने’ का दोषी पाया था!

बेशक, आज़म खान पर लगाए गए आरोपों के गुण-दोषों में जाना न तो हमारे लिए संभव है और न ही उचित। अपनी सारी कमजोरियों तथा कई बार बहुत ज्यादा खटकने वाली विफलताओं के बावजूद न्यायपालिका के निर्णय का और कोई विकल्प नहीं है। हां! जिस काल-खंड में और जिस तरीके से ये मामले बनाए गए हैं, उनसे कानूनी प्रक्रिया के बदले की भावना से इस्तेमाल किए जाने में किसी संदेह की गुंजाइश नहीं रह जाती है। फिर भी, यहां हम एक चीज की ओर खासतौर पर ध्यान खींचना चाहेंगे।

चूंकि देश के गृह मंत्री ने अपने राज की ओर से न सिर्फ आज़म खान को जेल में डालने तथा डाले रहने के लिए श्रेय का दावा किया है, बल्कि उत्तर प्रदेश में फिर सरकार आयी तो उन्हें जेल में ही बनाए रखने का ‘वादा’ भी किया है। क्या यह पूछा नहीं जाना चाहिए कि क्या आजम खान पर लगे आरोप, केंद्रीय गृह राज्य मंत्री टेनी के पुत्र पर लगे पांच-पांच लोगों की इरादतन हत्या के आरोपों से भी ज्यादा गंभीर हैं? अगर नहीं, तो जिस डबल इंजन भाजपा राज को आजम खान को जेल में बंद रखने के लिए मतदाताओं के अशीर्वाद की अपेक्षा है, क्या उसे आशीष टेनी के जेल से छूट जाने पर उससे ज्यादा पछतावा नहीं होना चाहिए? लेकिन, यह सामान्य तर्क की बात है, जबकि संघ-भाजपा शुद्घ सांप्रदायिक तर्क से संचालित होते हैं। यह तर्क खुद-ब-खुद आजम खान पिता-पुत्र के दानवीकरण और टेनी पिता-पुत्र के कीमती असेट माने जाने तक ले जाता है। अचरज नहीं कि नरेंद्र मोदी ने पिता टेनी को अपनी मंत्रिपरिषद में ही नहीं बनाए रखा है, उत्तर प्रदेश के पहले चरण की पूर्व-संध्या में प्रकाशित गोदी साक्षात्कार में उन्होंने टेनी का बाकायदा बचाव भी किया था।

इसके बावजूद हम अमित शाह तथा योगी को ही नहीं, बल्कि शीर्ष में प्रधानमंत्री से लेकर, साधारण संघ-भाजपा कार्यकर्ताओं तक और बहुत महत्वपूर्ण रूप से गोदी मीडिया को, आजम खान जैसे लगभग सभी असरदार विपक्षी नेताओं को बेहिचक अपराधी, गुंडा, दंगाई, माफिया आदि-आदि बनाकर पेश करता हुआ देखते हैं। याद रहे कि यह सिर्फ चुनाव ‘युद्घ’ की अतियों का मामला नहीं है, जिन्हें मोदी निजाम में अतियों तक पहुंचा दिया गया है। इस सिलसिले में सिर्फ इतना याद दिलाना काफी होगा कि गुजरात के पिछले विधानसभाई चुनाव के समय तो खुद प्रधानमंत्री मोदी ने अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह समेत, अनेक सेवानिवृत्त वरिष्ठ सैन्य व कूटनीतिक अधिकारियों पर गुजरात में मुसलमान मुख्यमंत्री बनवाने के लिए पाकिस्तान के साथ मिलकर षडयंत्र रचने का ही आरोप लगा दिया था! बहरहाल, यह अल्पसंख्यकों के नेताओं के कमोबेश स्थायी तरीके से दानवीकरण का मामला है, ताकि ‘खतरा’ दिखाकर, बहुसंख्यकों का अपने पीछे ध्रुवीकरण किया जा सके। बेशक, इसका नतीजा एमएआइएम नेता, असदुद्दीन ओवैसी के काफिले पर हमले जैसी घटनाओं के रूप में भी सामने आ रहा है।

अचरज की बात नहीं है कि पहले दो-चरणों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा रुहेलखंड में मतदान के लिए अपनी चुनाव सभाओं तथा अन्य कार्यक्रमों के जरिए, शाह और जोगी की जोड़ी ने, मुजफ्फरनगर के दंगों व तथाकथित ‘कैराना पलायन’ की कथित ‘हिंदू शिकायतों’ को कुरेदने के अलावा अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी सपा-रालोद गठबंधन को आम तौर पर अपराधियों को प्रश्रय देने वाली पार्टी करार देने से आगे बढ़कर, उनके अल्पसंख्यकों के संभावित समर्थन को, माफिया और दंगाइयों का समर्थन बनाने पर अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। वास्तव में एक हद तक सफलता के साथ उन्होंंने कम से कम संघ-भाजपा के परंपरागत समर्थकों के लिए मुसलमान को, दंगाई और माफिया का पर्याय ही बना दिया है। उत्तर प्रदेश के योगी राज का भी इसमें महत्वपूर्ण योगदान है, जो जितना ठाकुरवादी रहा है, उससे कम मुस्लिम विरोधी नहीं रहा है।

इसमें अगर थोड़ी-बहुत कसर रह भी गयी थी, तो उसे नरेंद्र मोदी ने सहारनपुर की अपनी चुनाव सभा में भाजपा के मुख्य प्रतिद्वंद्वी, सपा-रालोद गठबंधन को घोर परिवारवादी करार देने के साथ ही ”दंगावादी और माफियावादी” भी करार देकर पूरा कर दिया। कहने की जरूरत नहीं है कि डबल इंजन राज की जिन चौतरफा विफलताओं की तरफ से चुनाव के समय जनता का ध्यान हटाने के लिए, शेष संघ-भाजपा कुनबा ‘हिंदू-मुसलमान’ करने में लगा हुआ था, प्रधानमंत्री मोदी भी उन्हीं विफलताओं के चलते, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का ही दांव ज्यादा से ज्यादा आजमा रहे हैं। हां! प्रधानमंत्री इसमें कुछ खास अपना भी जोड़ रहे हैं।

मिसाल के तौर पर उत्तर प्रदेश चुनाव के पहले चरण से ऐन पहले, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बिजनौर समेत, एक के बाद एक, लगातार दो बड़ी जनसभाएं ”खराब मौसम” के चलते, ऑनलाइन ही संबोधित करने के लिए मजबूर होने के बाद, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसी संयोग से नहीं बल्कि योजनानुसार ठीक उसी दिन सहारनपुर में प्रत्यक्ष रूप से जन सभा को संबोधित करने पर पहुंचे, जब बगल में बागपत-मुजफ्फरनगर में मतदान हो रहा था।

बहरहाल, बहुचरणीय चुनावों में मतदान के दिन, जहां मतदान हो रहा हो उसके ऐन बगल में चुनाव सभा करने तथा इस प्रकार, मतदान से छत्तीस घंटा पहले चुनाव प्रचार पर रोक लगाने की भारतीय चुनाव में हमेशा से चली आती व्यवस्था को धता बताते हुए ऐन मतदान के समय तक मतदाताओं को प्रभावित करने की आखिरी कोशिश की इस सवा-चतुराई को प्रधानमंत्री मोदी ने अपने लिए इस तरह सामान्य बना लिया है कि इस पर तो विपक्ष ने भी चर्चा तक करना बंद कर दिया है। इसी खेल के अपने एक और पैंतरे को आजमाते हुए, सहारनपुर रैली से ऐन पिछली शाम को यानी पहली चरण के मतदान वाले क्षेत्रों में प्रचार बंदी के दौरान, प्रधानमंत्री ने अपनी गोदी समाचार एजेंसी के माध्यम से करीब सवा घंटे लंबा एक स्क्रिप्टेड साक्षात्कार, लगभग सभी समाचार चैनलों पर चलवाया था, जिसमें अन्य चीजों के अलावा विधानसभाई चुनाव के मौजूदा चक्र में भाजपा की जबर्दस्त कामयाबी के दावे करने का भी पूरा मौका दिया गया था।।

जाहिर है कि यह किसी से छुपा नहीं रहा कि यह पाबंंदी के समय में, टेलीविजन के जरिए प्रधानमंत्री के चुनाव प्रचार करने का ही मामला था। यह दूसरी बात है कि चुनाव आयोग के बहुत हद तक अपनी स्वतंत्रता व निष्पक्षता खो चुके होने की पृष्ठïभूमि में, इस खेल पर भी शायद ही कोई शोर हुआ और किसी प्रमुख विपक्षी पार्टी ने इस संबंध में चुनाव आयोग से शिकायत दर्ज नहीं करायी। यह इसके बावजूद है कि सोशल मीडिया में इसी संदर्भ में 2017 के गुजरात के चुनाव से जुड़ी एक खबर काफी शेयर की गयी, जो याद दिलाती थी कि किस तरह प्रचार रोक की ऐसी ही अवधि में, इसी प्रकार राहुल गांधी का एक साक्षात्कार प्रसारित करने के लिए, राहुल गांधी और संबंधित खबरिया चैनल, दोनों के खिलाफ चुनाव आयोग नेे चुनाव कानून के लिए उल्लंघन के लिए मामला दर्ज कराना जरूरी समझा था।

आलेख : राजेंद्र शर्मा
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)

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