शनिवार, जुलाई 27, 2024
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कश्मीर घाटी के पहले विस्थापित की अपील: अब बस करो ! जो भी मरा वह कश्मीरी था, आंसुओं को बाँटकर उनका सौदा करना बंद करो

( यह मोहम्मद युसूफ तारिगामी की अपील है। तारिगामी, जिन्हें आतंकियों ने सबसे पहले 1989 में घाटी से बाहर जाने को मजबूर किया। तारिगामी, जिन्होंने कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास की लड़ाई सबसे पहले लड़ी। तारिगामी, जिन्होंने अपने ससुर और भतीजे सहित अपने घर के आधा दर्जन परिजनों की शहादत देखी। मोहम्मद युसूफ तारिगामी चार बार विधायक रहे हैं और सीपीआई (एम) की केंद्रीय समिति के सदस्य हैं। उनके इस इंटरव्यू को शब्दांकित करते हुए उर्दू के कुछ गाढ़े शब्दों के भावार्थ हिंदी में भी दिए हैं। -बादल सरोज )

जहां तक इस फिल्म का ताल्लुक है, मेरी नजर में वक़्त की जरूरत थी कि यहां के हालात, यहां की ट्रेजेडीज का एहाता किया जाता और जो भी हुआ आज तक, जो भी ट्रेजेडीज यहां हुईं उन्हें पेश किया जाता, ओब्जेक्टिवेली मौरूजी हक़ायक़ (परम्परागत सच्चाईयों) को ध्यान में रखते हुए। ऐसा नजर नहीं आता। ये हमारी बदकिस्मती है कि कश्मीर पिछली कई दहाईयों से मुसलसल (लगातार) ट्रैजिक सिचुएशन्स से गुजर रहा है। और सबसे ज्यादा अलमनाक (दुःखद, त्रासद) वारदात, जिसकी वजह से कश्मीरी शिनाख्त (पहचान) को आंच पहुँची है, वो माइग्रेशन है। घर छोड़ने की मजबूरी। हमारे समाज के एक अहम् हिस्से को ख़ौफ़ के मारे, डर के मारे, वादी को छोड़ना पड़ा, वे कश्मीरी पण्डित हैं ।

ये अलमनाक चैप्टर है हमारी हिस्ट्री का, इसमें दो राय नहीं। लेकिन इसके साथ ही सचाई ये भी है कि तशद्दुद (हिंसा) की हामी कुव्वतों (शक्तियों) ने ये नहीं देखा कि कौन किस मजहब के साथ, मिल्लत के साथ ताल्लुक रखता है, किसका अक़ीदा (विश्वास) क्या है। उन्होंने जहां तिखला टपलू को मारा, जहां लासा कौल को मारा, मोहम्मद शाबान वकील को भी मारा। वहां एक अलमनाक हादसा पेश आया एक बुजुर्ग लीडर, रहनुमा जो बिस्तरे मर्ग (मृत्यु शैय्या) पर थे मौलाना मसूदी साहब, उनको भी नहीं बख्शा। मीर वाइज कश्मीये मौलाना फारूख किसकी गोली से मरा ? और फिर नमाज़े ज़नाज़ा में शामिल, मातमी जलूस में शामिल दर्जनों आम शहरी गोलियों के निशाना बने। क्या कसूर था उनका? ये भी हमारी तस्वीर का एक और रुख है।

जहां जनरल मैनेजर एचएमटी खेरा साहब को गोली का निशाना बनाया गया, वहीं कश्मीर यूनिवर्सिटी के वाईस चांसलर मशीरुल हक़ साहब को और उनके प्राइवेट सेक्रेटरी अब्दुल गनी साहब को भी बख्शा नहीं गया। क्या ये हक़ाइक़ (सच) नहीं जहां कई लोग, बाअसर लोग, और ऐसे अनासिर जिनका लेना-देना नहीं था सियासी मामलात के साथ ; शीतल कौल नाम की हमारी एक बहन श्रीनगर से ताल्लुक रखने वाली, उसे बेदर्दी से उन्हें क़त्ल किया गया। अखरनाक में अनंतनाग में प्रेमनाथ भट्ट साब को क़त्ल किया गया, वहीं गुलाम नबी क्वालर साब को भी निशाना बनाया गया।

मेरा आज एक ही सवाल है उन कुव्वतों से, जो आज भी खून-ए-कश्मीर का सौदा कर रहे हैं, मुख्तलिफ बाजारों में इसे बेच रहे हैं। बस करो — कौन मरा, किसने मारा — जो भी मरा मेरा रिश्तेदार मरा, मेरा अजीज मरा, मेरा बुजुर्ग मरा। उसका नाम क्या था, वो किस अक़ीदे के साथ ताल्लुक रखता था, वो कश्मीरी था। और आज मैं फिर यही दोहराना चाहूँगा, जहां बन्दहामा के अलमनाक सानेहा (घटनाएं) सामने आया, वहीं गौकदल के सानहे को भूला नहीं जा सकता, जहां कहीं और गांदरबल के अलावा बड़गाम में कुछ हमारे माइनॉरिटी कम्युनिटी से ताल्लुक रखने वाले बेगुनाह भाईयों और बहनों को मारा गया, वहीं कुपवाड़ा में एक बस आ रही थी बांदीपोरा से, उस बस के मुसाफिरों को किसने मारा। जहां सोपोर की एक मासूम हमारी बहन की अस्मत फरोशी की गई और उसे क़त्ल किया गया, एक पंडित घराने से उसका ताल्लुक था, वहीं पर कनन पोशपोरा का सानेहा भी हमारे सामने है। किसकी इज्जत लुट गयी, किसने इज्जत पर हमारी सब्खूनमारा (रात में धावा बोला)?

मैं तो आज भी यह चाहता हूँ प्राइम मिनिस्टर साहब कि जुर्रत का मुजाहिरा (साहस दिखाईये) कर लीजिये आज अफ्रीका की तरह, जब अपार्थीड था वहां उसके बाद एक कमीशन बनाया गया ट्रुथ एंड रीकशिलिएशन का कमीशन, एतबारियत (भरोसा बहाली) का कमीशन। ये जानने के लिए कि कौन मरा, किसने मारा, जो भी मरा वो दोबारा ज़िंदा हो नहीं सकता, लेकिन कम-से-कम जवाबदेही पैदा हो, उनके संबंधियों को ये पता चले कि कौन मरा, क्यों मरा।

आज ये भी कहा जाता है कि ये सियासी पार्टी और वो सियासी पार्टी!! मेरा एक सवाल है। हमारे लेजिस्लेचर (विधानसभा) के स्पीकर थे, मेम्बरान थे, नेशनल कांफ्रेंस के साथ ताल्लुक था, कांग्रेस के साथ ताल्लुक था, पीडीपी के साथ ताल्लुक था। वो किसने मारे, क्यों मरे। कितनी बड़ी तादाद से उन्हें बेरहमी से मारा गया। क्यों मारा गया? इसलिए कि उन्होंने वो रास्ता नहीं चुना। सबसे पहले जिसकी मौत हुयी अलमनाक मौत। कौन था वो? वो श्रीनगर का नेशनल कांफ्रेंस का कारकून (कार्यकर्ता) था मोहम्मद युसूफ हलवाई। महज इसलिए कि जब इंतहा पसन्दों (अतिवादियों) ने कहा कि 15 अगस्त पर ब्लैक आउट हो, उसने मुखालफत (विरोध) की। वो था। आज उसको किस सफ (पंक्ति) में आप शामिल कर रहे हैं? आज माना सियासी मामलात की खातिर खून-ए-आदम (इंसान के लहू) को पेश किया जाये ; मुल्क के लिए नुकसानदेह है, अवाम के लिए नुकसानदेह है, कश्मीर के लिए नुकसानदेह है।

मैं आज दोहराना चाहता हूँ, मुल्क के बाअसर (प्रभावशाली) और अहले इक्तिदार (सत्ताधीश) लोगों को बताना चाहता हूँ कि कश्मीर सिर्फ जमीन का टुकड़ा नहीं। कश्मीर तहजीब का नाम है, सिविलाइजेशन का नाम हैं। पांच हजार साल की तारीख (इतिहास) है हमारी। जिसे मिटाया नहीं जा सकता – कोई भी बारूद, बाहर का बारूद, आर का यहां का बारूद भी हमारी शिनाख्त को पहचान को मिटाये, मिट नहीं सकती है। हमारी शिनाख्त, हमारी तहजीब को दचका लग सकता है मगर हमारी तहफ्फुज, उसे खत्म नहीं किया जा सकता।

मैं याद दिलाना चाहूँगा -मेरे ही इलाके में जहां कश्मीरी पंडित मारे गए, वहां बीबहाडा का सानेहा भी पेश आया, नमाज़ी मारे गए, जहां हिन्दू मरे, मुसलमान मरे वहाँ छतीसिंहपुरा में मेरी सिख बहन भी मरी, सिख भाई भी मरा और वो जो आंसू थे सिख बच्चे के चेहरे पर, वो जो जिनका कोई मरता है और आंसू बहते हैं, मैं फिल्म बनाने वालो से कहूंगा, अहले इक्तिदार (सत्ताप्रमुख) से कहूंगा कि जरा मुझे बताइये कि इन आंसुओं का कौन सा रंग है। ज़रा मुझे बताइये कि ये आंसू किस बाजार में बेचने हैं। बस करो।

मैं यही कहूंगा, जहां मेरे कुलगाम में मेरा अशोक मरा, वहां मेरा हाजन का युसूफ भी मरा, वहां मेरा बोगन का एमईएम भी मरा, वहां मेरे दो टीचर बशीर अहमद भी मरा और भी मरे। कौन मरे, कौन मरे, मेरे अजीज मरे, मैं अपने रिश्तेदारों को बांटना नहीं चाहता हूँ। मैं अपने क़रीबों को इस चेहरे से नहीं जानना चाहता हूँ कि वे मंदिर जाने वाले हैं या मस्जिद जाने वाले हैं।

पत्रकार का सवाल : सर, आपसे भी जानना चाहेंगे कि आप पहले कश्मीरी हैं, जो कश्मीर छोड़कर जम्मू गए थे और आप पर भी अटैक हुआ था और पहले थे आप जिसने जम्मू में कश्मीरी पंडितों को रिसीव किया, थोड़ा सा बताइयेगा कि हक़ाईक़ (सच्चाई) क्या है?

तारिगामी : यही हम चाहते हैं कि आज सच यह नहीं है और सच एक आँख से देखा नहीं जा सकता। सच देखने और परखने के लिए दोनों आँखों का इस्तेमाल लाजिमी है। मैंने पहले भी बताया कि कश्मीर की रूह खुद रोई है, जब तक मेरे भाई बहन कश्मीरी पंडित, इज्जत से सलामती से फिर अपने वतन में वापस न आ जाएँ, अपने घर में वापस न आ जायें, क्या कहें हम।

89 में मैं, जब मैं सरपंच नहीं था, कभी एमएलए नहीं था, कुछ लोग आ गए, घर का घेराव किया। और मुझे घर छोड़ना पड़ा। जम्मू जाना पड़ा और वहां भी एक कश्मीरी पंडित, जो मुलाजिम था सेक्रेटेरिएट में, उसके यहां पनाह लेनी पड़ी, तब तक जब तक कि सरकार ने मुझे गाँधी नगर में कोई जगह नहीं दे दी। और बाद में गवर्नर रूल जब हुआ मुझे सिक्योरिटी भी दी गयी। मैं वो बदनसीब हूँ कश्मीर का सबसे पहला जिसने बाद में कश्मीरी पंडितों की बेबसी का खुद आँखों देखा मुजाहिरा किया, उनको देखा। मैंने तब देखा जब वो अपने घर छोड़कर वहां आये और कोई दंग नहीं था कोई सबील नहीं थी। (आसरा या उपाय) जहां से वो अपनी साँसें ले सकें। हमने एक जलूस निकाला था गवर्नर्स हाउस के सामने और मैंने वहां कहा था कि गवर्नर साहब दरवाजा खोलिये, ये जो लोग यहां हैं कश्मीरी, ये भिखारी नहीं, ये भीख मांगने के लिए नहीं आये हैं। ये किसी पिकनिक पर नहीं आये हैं। ये आये हैं डर के मारे, खौफ के मारे, और ये आपसे फ़रियाद नहीं करेंगे हक़ मांगेंगे। यहां तहाफ्फुज (सुरक्षित) से रहने के लिए। ये मैंने तब कहा, हमारे बिरादर भाई कश्मीरी पंडित जानते हैं।

मैं क्या कहूँ, मेरे रिश्तेदार मारे गए। अशोक भी मेरा रिश्तेदार था ; हमसाया। मेरे और भी जो भी लोग मरे – मेरा फादर इन लॉ मारा गया। मेरा भतीजा मारा गया। मेरा वली मोहम्मद इत्तुस स्पीकर भी मारा गया। मेरा गुलाम नबी डार जो असेम्बली के मेंबर रहे हैं, उनको भी मारा गया। यहां बांदे साहब सोपियां के, उनको भी मारा गया। यहां पुलवामा के जो एमएलए रहे हैं दो- तीन, उनको मारा गया। गुलाम कादिर एक एमएलए पुलवामा इलाके से, उनको मारा गया। क्या कुछ कहूँ मैं? किस को किस खाते में डालूँ?

मैं अपील करना चाहता हूँ देश की सियासी जमातों (राजनीतिक दलों) से, खासतौर पर बीजेपी के हुक्मरानों से ; अरे साहब वोट की खातिर मेरे आंसू, मेरे अजीजों के आँसूं, उनको बटोरिये मत, तकसीम मत कीजिये, जो भी मरा, मेरा मरा, हमारा मरा और घाटे में रहा कश्मीर, कश्मीर की पहचान रही, कश्मीर की तहजीब रही। तब तक जब तक कि सब मिलकर अपने घर को ना संभालें।

और मैं यही कहूंगा आखिर पर कि; ये गम तेरा है न मेरा, ये गम तेरा है न मेरा, हम सबकी जागीर है प्यारे। ये गम कश्मीरी पंडित का है, सिख का है, मुसलमान का है, ये अखबारनवीस का है, जर्नलिस्ट का है, वकील का है , यह आम मजदूर का है, आम गरीब का है, मेरी बहन का है ; हमे बाँटिये मत।

पूरा साक्षात्कार आप इस लिंक पर देख-सुन सकते हैं : https://fb.watch/bT4-g1KOnM/

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