शनिवार, जुलाई 27, 2024
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औद्योगिक संबंध कोड: हड़ताल और संगठित होने के अधिकार पर हमला

नया श्रम कानून, श्रम और हम

नई दिल्ली (पब्लिक फोरम)। केंद्र सरकार ने हाल ही में 4 श्रमिक-विरोधी श्रम-कोड पारित किए हैं। जो कि “व्यापार करने में आसानी” के नाम पर मजदूर वर्ग के संघर्षों से प्राप्त अधिकारों को प्रभावी ढंग से कुचलने का काम करते हैं। ऐसा ही एक अधिकार जिसका भारी नुकसान हुआ है वह है संगठित होने और सामूहिक सौदेबाजी करने का श्रमिकों का अधिकार।

यह औद्योगिक संबंध कोड में भारी समस्या ग्रस्त प्रावधानों के माध्यम से किया गया है जो कि औद्योगिक विवाद अधिनियम (आईडी अधिनियम) 1947, औद्योगिक रोजगार (स्थाई आदेश) अधिनियम 1946 और ट्रेड यूनियन अधिनियम 1926 की जगह लेता है।

यह लेख हड़ताल के अधिकार और यूनियन बनाने के अधिकार पर कोड के द्वारा श्रमिकों पर किए गए हमलों पर विशेष रूप से चर्चा करेगा।

” हड़ताल के अधिकार पर हमला: बहुमत का छुट्टी पर जाना भी हड़ताल माना जायेगा “

आई आर कोड हड़ताल के विचार पर मौलिक और साथ ही प्रक्रियात्मक रूप से हमला करता है। सबसे पहले “हड़ताल” शब्द की परिभाषा को ही बदल दिया गया है जिसमें “किसी उद्योग में कार्यरत 50 प्रतिशत या अधिक श्रमिकों के द्वारा किसी दिए गए दिन पर सामूहिक आकस्मिक अवकाश” शामिल किया गया है। इसलिए, यदि किसी प्रतिष्ठान में आधे से अधिक कर्मचारी एक साथ आकस्मिक अवकाश पर चले जाते हैं तो यह न केवल एक हड़ताल के बराबर होगा, बल्कि अवैध हड़ताल के सभी परिणाम लागू होंगे। यदि कानून के अनुसार पूर्ण हड़ताल नोटिस नहीं दिया गया था।

” हड़ताल की सूचना अब सार्वजनिक उपयोगिता सेवाओं तक सीमित नहीं है ”

यह हमें दूसरे बड़े बदलाव की ओर ले जाता है जो सभी उद्योगों में हड़ताल के लिए पूर्व सूचना की आवश्यकता से संबंधित है। जबकि 1947 के अधिनियम में केवल सार्वजनिक उपयोगिता सेवाओं के लिए हड़ताल की पूर्व सूचना अनिवार्य कर रखी थी लेकिन अब सब कार्य स्थलों के लिए हड़ताल की 14 दिनों की अग्रिम सूचना अनिवार्य है। प्रभावी रूप से यहां तक कि प्रतिष्ठानों द्वारा खुलेआम उल्लंघन के मामलों में और उन परिस्थितियों में जहां श्रमिकों की ओर से तत्काल सामूहिक कार्रवाई की आवश्यकता होती है उन्हें भी अब अपने अधिकारों का प्रयोग करने के लिए आधा महीने इंतजार करना होगा यह अधिकांश श्रमिकों के लिए अंतिम उपाय के हथियार के रूप में हड़ताल के उपयोग के विपरीत है।

” हड़ताल के लिये दंड “

और अंत में, उस हड़ताल के परिणाम क्या होंगे जिसे नया कोड अब अवैध करार देता है? कोड के संदर्भ में, गैर कानूनी हड़ताल के लिए दंड में भारी वृद्धि की गई है। अवैध हड़ताल शुरू करने या जारी रखने वालों के लिए जुर्माना 1 महीने के कारावास या ₹50 के जुर्माने से बढ़ाकर 1 महीने का कारावास या न्यूनतम जुर्माना ₹1000. जिसे अब ₹10000 तक बढ़ाया जा सकता है या दोनों ही। इसलिए अब कर्मचारी को 1 महीने के कारावास के साथ ही साथ जुर्माने का सामना भी करना पड़ सकता है जो कि उसके मासिक वेतन के करीब है। सिर्फ बिना आधे महीने का नोटिस दिए हड़ताल में जाने भर पर। इसी तरह अवैध हड़ताल में भाग लेने के लिए उकसाने या उकसाने वालों के लिए या जानबूझकर इसे आगे बढ़ाने में पैसा खर्च करने वालों के लिए जुर्माना बढ़ाकर न्यूनतम ₹10000 से अधिकतम ₹50000 कर दिया गया है।

इस प्रावधान की सरासर बेवकूफी को समझा जाना और प्रचारित किया जाना चाहिए उदाहरण के लिए नियोक्ता की आपराधिक लापरवाही के कारण एक कर्मचारी की मौत हो जाने का एक मामला लें। मान लीजिए यूनियन अनायास हड़ताल करने का फैसला करती है और इसके लिए रुपए जमा करती है ₹5 अपने प्रत्येक सदस्य से सार्वजनिक वितरण के लिए परिचय छापने को। कोड के तहत प्रत्येक कर्मचारी जिसने ₹5 चंदा दिया है ₹10000 से ₹50000 तक का न्यूनतम दंड का भुगतान करने के लिए उत्तरदाई होगा। जो 1 महीने के कारावास के साथ लगाया जा सकता है।

” हड़ताल का अधिकार “

भारत में हड़ताल का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं बल्कि एक वैधानिक अधिकार है। हालांकि अदालत ने बार-बार कहा है यह अधिकार सामूहिक सौदेबाजी के अधिकार का एक अभिन्न अंग है। यह याद रखना चाहिए कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में श्रमिक सिर्फ एक ही उपयोगिता है और वह है उसका श्रम। जब उसके दैनिक कार्य से किया गया श्रम प्रभावित होता है तभी उसकी आवाज सुनी जा सकती है। इस प्रकार जब प्रबंधन और श्रमिकों के बीच आसमान शक्ति समीकरणों पर विचार किया जाए तो समझा जा सकता है कि श्रमिकों के अधिकारों के उल्लंघन को चुनौती देने के लिए अक्सर हड़ताल ही एकमात्र तरीका होता है।

हड़ताल के अधिकार पर अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन आईएलओ यह बिल्कुल स्पष्ट करता है कि हड़ताल के अधिकार को श्रमिकों और उनके संगठनों ट्रेड यूनियनों संघों और परी संघों के द्वारा उपयोग में लाए जाने वाला मौलिक अधिकार माना जाए जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संरक्षित हो बशर्ते अधिकार का शांतिपूर्ण तरीके से प्रयोग किया जाए। इसके अलावा ” पूर्व नोटिस देने का दायित्व….. जहां यह व्यवहार में हड़ताल को बहुत कठिन या असंभव नहीं बनाता है….. हड़ताल के अधिकार के प्रयोग के लिए स्वीकार्य शर्तें हैं ” सिद्धांत यह भी कहते हैं कि दुरुपयोग की स्थिति में लगाए गए प्रतिबंध उल्लंघन की गंभीरता के अनुपात में होने चाहिए ”

भारत आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों के अंतरराष्ट्रीय समझौते आई सी एस सी आर का भी एक हस्ताक्षर करता है जो कि अनुच्छेद आठ में यह प्रावधान करता है कि वे राज्य जो समझौते की हस्ताक्षर करता है यह सुनिश्चित करने के लिए वचन दें कि ” हड़ताल का अधिकार बशर्ते कि वह विशेष देश के कानूनों के अनुरूप प्रयोग किया जाता है, को मानेंगे “

कोर्ट में हड़ताल के अधिकार को कमजोर करने से हड़ताल है व्यवहार में बहुत कठिन या असंभव हो जाती हैं और यह हड़ताल पर अंतरराष्ट्रीय सिद्ध सिद्धांतों का खुला उल्लंघन है।

” ट्रेड यूनियनों पर हमले “

इस समय हड़ताल पर कानून की भयावह नए सूत्री करण को छोड़कर अधिक आधारभूत स्तर पर कोर्ट ट्रेड यूनियनों पर अभूतपूर्व प्रतिबंध लगाकर यूनियन की स्वतंत्रता की अवधारणा पर भी हमला करता है। कोड एक रिश्ता द्वारा ट्रेड यूनियन के पंजीकरण के प्रमाण पत्र को वापस लेने या रद्द करने की अनुमति देता है। मात्र “इस कोड के प्रावधानों या इसके तहत बनाए गए नियमों या इसके संविधान के प्रावधानों के ट्रेड यूनियन के द्वारा उल्लंघन के संबंध में उसे प्राप्त जानकारी होने पर” यह विशाल और अनियंत्रित शक्तियां हैं जो यूनियन की स्वतंत्रता पर मनमाने हमलों के लिए छूट देती हैं। जबकि पूर्व सूचना और रद्द करने के कारणों को प्रदान करने की आवश्यकता होगी लेकिन सुनवाई के अवसर देने की कोई आवश्यकता नहीं होना प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का स्पष्ट उल्लंघन है। कोर्ट यह भी निर्देश देता है रिव्यू नल के निर्देश पर कुछ व्यक्तियों को यूनियन के पदाधिकारी के रूप में चयन के लिए अयोग्य घोषित किया जा सकता है। ट्रिब्यूनल को दी गई यह विशाल शक्ति फिर से यूनियन की स्वतंत्रता पर सीधा और एक स्पष्ट हमला है।

” ट्रेड यूनियन के लिए दंड “

फिर से इन प्रावधानों के बेतुके परिणाम होंगे। एक ट्रेड यूनियन यूनियन का मामला लेकर देखें, जो सदस्यता को ₹10 प्रति माह से ₹15 प्रति माह बढ़ाने का निर्णय लेती है एक गलती से यूनियन इस बदलाव की सूचना निर्णय के बावजूद रिश्ता को सूचित करने की अनदेखी करती है इसके लिए यूनियन का पंजीकरण ही रद्द किया जा सकता है। इससे यह स्पष्ट है कि बड़े पैमाने पर असंगत व अनाप शनाप परिणाम गठित हो सकते हैं।

इसके अलावा एक बार फिर से ऐड यूनियनों के खिलाफ दंड में नाटकीय रूप से वृद्धि की गई है। ट्रेड यूनियन अधिनियम के तहत आवश्यक नोटिस भेजने में क्योंकि के परिणाम स्वरूप पदाधिकारियों को ₹5 का जुर्माना देना होता था जिसे लगातार चौक के मामले में ₹50 तक बढ़ाया जा सकता है। लेकिन अब अधिकतम प्रारंभिक सजा ₹10000 कर दी गई है साथ में न्यूनतम दंड सजा ₹1000 का प्रावधान भी लाया गया है। इसके अलावा निरंतर चूक अब एक उचित सीमा के अधीन नहीं है ₹50 1 दिन के जुर्माने के साथ अब तक डिफॉल्ट जारी रहता है तब तक बनी रहेगी इसलिए यदि कोई यूनियन नाम परिवर्तन की सूचना भेजने में विफल रहती है और 5 वर्ष की अवधि बीत जाने तक इसका एहसास नहीं हुआ है तो यूनियन को एक लाख रुपए का जुर्माना देना होगा।

” संगठित होने एवं सामूहिक सौदेबाजी का अधिकार “

यह ध्यान दिया जाना चाहिए श्रमिकों के संगठित होने और सामूहिक रूप से सौदेबाजी करने के अधिकार अंतरराष्ट्रीय कानूनों में अच्छी तरह से तय किए गए हैं। आईएलओ कन्वेंशन 87 के अनुच्छेद 3 और 4 संगठित होने की स्वतंत्रता और सामूहिक सौदेबाजी संरक्षण कन्वेंशन 1948 विशेष रूप से प्रासंगिक हैं।

इस कन्वेंशन नंबर 87 की अनुछेद 11 में यह भी कहा गया है कि ” अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन का प्रत्येक सदस्य जिसके लिए यह कन्वेंशन लागू है यह सुनिश्चित करने के लिए सभी आवश्यक और उचित उपाय करने का वचन देता है कि श्रमिक और नियोक्ता स्वतंत्र रूप से संगठित होने के अधिकार का प्रयोग कर सकें “

भारत के द्वारा इस कन्वेंशन 87 और ना ही आई एल ओ कन्वेंशन 98 (संगठित होने के अधिकार और सामूहिक सौदेबाजी कन्वेंशन) 1949 की पुष्टि की गई है। हालांकि संविधान के अनुच्छेद 19(1) (सी) से निकलने वाला संगठित होने का मौलिक अधिकार, संघ बनाने की मौलिक स्वतंत्रता की रक्षा करता है।

जब कोर्ट द्वारा लाए जा रहे कानून में मूलभूत परिवर्तनों को कॉल आ जाए तो यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि सरकार एक मजदूर विरोधी एजेंडे पर चल रही है। मजदूरों के संगठित होने और हड़ताल करने के अधिकारों को कमजोर किया जा रहा है और उन्हें भारी पैमाने पर दंडित किया जा रहा है। जबकि प्रबंधन के दमन करने के अधिकार से निपटने को कोई उपाय ही नहीं किया जा रहा है। ऐसे में साफ है कि मौजूदा क्रोनी पूंजीवादी सरकार निजी संस्थाओं के फलते फूलते खदानों में जोड़ने के लिए सार्वजनिक कंपनियों का अंधाधुंध निजी करण कर रही है और श्रमिकों के पैसे की लूट कर रही है। श्रमिकों को जो भी थोड़े बहुत कानूनी संरक्षण प्राप्त है, कोर्ट के माध्यम से उन्हें लगातार छीना जा रहा है। सरकार के द्वारा अधिकारों के खात्मा के खिलाफ आगे का रास्ता बड़े पैमाने पर जन आंदोलनों के माध्यम से ही निकल सकता है। -पी के वर्मा

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